आत्मकथ्य कविता की व्याख्या | Aatmkathya poem vyakhya
आत्मकथ्य कविता की व्याख्या : आत्मकथ्य कविता पहली बार 1932 में हंस के आत्मकथा विशेषांक में प्रकाशित हुई थी। छायावादी शैली में लिखी गई इस कविता में जयशंकर प्रसाद ने जीवन के यथार्थ एवं अभाव पक्ष की मार्मिक अभिव्यक्ति की है।
आत्मकथ्य कविता की व्याख्या – Aatmkathya poem vyakhya
प्रेमचंद के संपादन में हंस पत्रिका का एक आत्मकथा विशेषांक निकलना तय हुआ। प्रसाद जी के मित्रों ने आग्रह किया कि वह भी आत्मकथा लिखें।
प्रसाद जी इससे सहमत नहीं थे। इसी असहमति के तर्क से पैदा हुई कविता है आत्मकथ्य यह कविता पहली बार 1932 में हंस के आत्मकथा विशेषांक में प्रकाशित हुई थी। छायावादी शैली में लिखी गई इस कविता में जयशंकर प्रसाद ने जीवन के यथार्थ एवं अभाव पक्ष की मार्मिक अभिव्यक्ति की है। छायावादी सूक्ष्मता के अनुरूप ही अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करने के लिए जयशंकर प्रसाद ने ललित सुंदर एवं नवीन शब्दों एवं विम्बों का प्रयोग किया है।
इन्हीं शब्दों एवं चित्रों के सहारे उन्होंने बताया है कि उनके जीवन की कथा एक सामान्य व्यक्ति के जीवन की कथा है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे महान और रोचक मानकर लोग वाह-वाह करेंगे। कुल मिलाकर इस कविता में एक तरफ कवि द्वारा यथार्थ की स्वीकृति है तो दूसरी तरफ एक महान कवि की विनम्रता भी।
आत्मकथ्य कविता का सार
आत्मकथ्य शीर्षक कविता छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित है।
इसमें कवि अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति करता है। कभी संसार की असारता और निरसता पर विचार करता है। जीवन दुखों से भरा है। इस वातावरण में भला कौन अपनी कथा को कहने का साहस करेगा। कवि का कहना है कि उसके जीवन की गागर तो रीती अर्थात खाली है।
वह भला दूसरों को क्या दे सकता है। कभी अपनी भूलों और दूसरों की रचनाओं को उजागर नहीं करना चाहता इसका कोई लाभ भी नहीं है। यह ठीक है कि कवि ने भी कुछ सुखी क्षण भोगे थे। तब वह मधुर चांदनी में बैठकर प्रियसी के साथ खिलखिलाकर हंसता था। पर वे क्षण कुछ पल ही टिक पाए। सुख उसके निकट आते – आते भाग गया। वह उन क्षणों की प्रतीक्षा करता रह गया। कवि अपने प्रिय के सौंदर्य का भी स्मरण करता है।
उसके गालों की लाली उषा के लिए भी ईर्ष्या का विषय थी। पर अब इन सब बातों के कहने का कोई लाभ नहीं है। उसकी कथा में दूसरों को कुछ भी नहीं मिल पाएगा। यही कारण है कि वह अपनी कथा कहने से बचता रहा है।
आत्मकथ्य कविता के काव्यांश की सप्रसंग व्याख्या
मधुप गुन – गुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी ,
मुरझाकर गिर रही पत्तियां देखो कितनी आज घनी।
इस गंभीर अनंत – नीलिमा में असंख्य जीवन – इतिहास
यह लो करते ही रहते हैं अपना व्यंगय – मलिन उपहास
तब भी कहते हो – कह डालूं दुर्बलता अपनी बीती।
तुम सुनकर सुख पाओगे , देखोगे यह गागर रीती।
मधुप – भंवरा , मन रूपी भंवरा। अनंत – जिसका अंत न हो। नीलिमा – आकाश का नीला विस्तार। व्यंगय – मलिन – खराब ढंग से निंदा करना। उपहास – हंसी-मजाक। दुर्बलता – कमजोरी। गागर रीती – खाली घड़ा ,भावहीन मन।
प्रसंग
प्रस्तुत पंक्तियां छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित आत्मकथ्य से अवतरित है। इस कविता में कवि ने जीवन के यथार्थ एवं अभाव पक्ष की मार्मिक अभिव्यक्ति की है।
व्याख्या
कवि कहता है कि फूलों पर गुंजार करने वाला भ्रमर गुनगुनाकर ना जाने अपने मन की कौन सी वेदना की अभिव्यक्ति कर जाता है। यह पता नहीं चलता कि वह उस समय क्या कहता है। घनी पत्तियां मुरझा कर जमीन पर गिर रही है। यह आज बहुत अधिक घनी हो रही है। तात्पर्य यह है कि यह विश्व सराहनीय है। अतः व्यक्ति की वेदना का कहीं भी अंत नहीं है। आगे कवि कहता है कि इस गंभीर और आर-पार रहित नीले आसमान के नीचे अनगिनत जीवन के इतिहास बनते-बिगड़ते रहते हैं।
और यह एक विचित्र बात है कि वह सब अपने आप में अपनी स्थिति पर व्यंग करते हैं।
अर्थात जीवन की अनेक रेखाएं अपने अस्तित्व पर स्वयं हंसती रहती है। इस पर भी तुम कहते हो कि मैं अपनी दुर्बलता को कह डालो। मैं अपने ऊपर जीतने वाली व्यथा को सुना दूं मेरी जीवन रूपी गागर तो खाली है।
अतः तुम शायद मेरी कथा सुनकर कुछ सब पाओगे , इसमें मुझे संदेह है।
विशेष
1. रूपक अलंकार की छटा है।
2. छायावादी शैली है।
3. खड़ी बोली का प्रयोग है।
4. माधुर्य गुण हैं।
आत्मकथ्य कविता के काव्यांश की सप्रसंग व्याख्या
किंतु कहीं ऐसा ना हो कि तुम ही खाली करने वाले……
अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।
यह विडंबना ! अरी सरलते तेरी हंसी उड़ाऊँ मैं।
भूले अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं।
उज्जवल गाथा कैसे गाऊं , मधुर चांदनी रातों की।
अरे खिल-खिला कर हंसते होने वाली उन बातों की।
शब्दार्थ
विडंबना – छलना। प्रवंचना – धूर्तता , धोखा।
प्रसंग
प्रस्तुत काव्यांश जयशंकर प्रसाद की कविता आत्मकथ्य से अवतरित है।
व्याख्या
कवि कहता है कि , हे प्रिय कहीं ऐसा ना हो , कि तुम ही मेरी गागर को खाली करने वाले हो। तुम मेरी जीवन रूपी गागर से रस लेकर अपनी गागर भरने वाले हो।
अतः जब तुम मुझे खाली करके स्वयं को भरते हो , तो तुम मुझे कैसे भरोगे। कवि कहता है ,कि यह जीवन एक छलावा है। सबसे बड़ा आश्चर्यजनक छल तो यह है , कि मैं अपनी सरलता की हंसी उड़ाऊँ। मैं दूसरों की प्रवचनाओं और भूलों को दूसरों को दिखाऊं। अपने जीवन में आने वाली प्रवंचना को याद करके मैं उन मधुर चांदनी रातों की उज्जवल गाथा को कैसे गाऊँ।
जो जीवन में कभी आई थी। मैं उन रातों की बातों को कैसे बताऊं जिनमें हम खिलखिलाकर हंसते थे। अर्थात दुख के समय सुख को याद करना अपने ऊपर हंसने के समान है।
आत्मकथ्य कविता के काव्यांश की सप्रसंग व्याख्या
मिला कहां वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया।
आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया।
जिसके अरुण – कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में।
अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।
उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथीक की पंथा की।
सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्यों मेरी कंथा की?
छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएं आज कहूं ?
क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता में मौन रहूं ?
सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्म-कथा ?
अभी समय भी नहीं थकी सोई है मेरी मौन व्यथा।
शब्दार्थ
मुसक्या कर – मुस्कुरा कर। अरुण कपोल – लाल गाल। अनुरागिनी उषा – प्रेम भरी भोर। स्मृति पाथेय – स्मृति रूपी संबल। पंथा – रास्ता राह। कंथा – गुदड़ी , अंतर्मन।
प्रसंग
प्रस्तुति काव्यांश छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित कविता आत्मकथ्य से अवतरित है।
व्याख्या
कवि कहता है ,कि मुझे वह सुख नहीं मिला जिसे प्राप्त करने के लिए मैं सुख का स्वप्न देखकर सोते हुए जाग गया था। वह सुख ऐसा था जो मेरे आलिंगन में आते-आते मुस्कुरा कर भाग गया। अर्थात मैं उसे पकड़ नहीं सकता। कवि स्मरण करता है कि उसकी प्रियसी के लाल गानों की सुंदर मतवाली छाया में अनुरागी उषा भी अपना सुहाग देखती थी।
अर्थात जिसके गालों की लालीमा ने मानो उषा की लालिमा और भी मधुर रूप धारण कर लेती थी। कवि कहता है कि आज के जीवन में उन क्षणों की स्मृति ही जीवन के संभल हैं। तुम मेरे जीवन की कथा की परतें खोल कर भला क्या पाओगे।
कवि अपने जीवन को अत्यंत छोटा बता कर उसकी कहानी नहीं सुनना चाहता। वह दूसरों की बातें सुनना और स्वयं चुप रहना चाहता है। उसका कहना है कि अभी अपने जीवन की कथा को कहने का समय नहीं आया है। उसकी व्यथा , कथा को शांत ही रहने दो उसे कुरेदने का प्रयास मत करो।
विशेष
अनुप्रास एवं उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग है
आत्मकथ्य कविता का संक्षिप्त परिचय – Aatmkathya poem vyakhya/आत्मकथ्य कविता sanchipt parichay jaishankar prasadआत्मकथ्य कविता का संक्षिप्त परिचय – Aatmkathya poem vyakhya/आत्मकथ्य कविता sanchipt parichay jaishankar prasad
इसे भी पढ़ें :
2 thoughts on “आत्मकथ्य कविता की व्याख्या”