कंपनी संचालकों के क्या अधिकार हैं ?

कंपनी संचालकों के क्या अधिकार हैं ?

कंपनी संचालकों के क्या अधिकार हैं ? :  कम्पनी अधिनियम द्वारा उनके अधिकारों पर क्या प्रतिबन्ध है ? एक संचालक को किस प्रकार हटाया जा सकता अथवा ” कम्पनी के संचालकों के अधिकारों का वर्णन कीजिए। क्या उनके अधिकारों पर कुछ प्रतिबन्ध है ? अथवा ” एक कम्पनी में संचालकों के क्या अधिकार होते हैं ? कम्पनी अधिनियम में उनके अधिकारों पर क्या प्रतिबन्ध लगाये गये हैं ? क्या कम्पनी संचालकों को ऋण दे सकती है? अथवा ” संचालक का क्या आशय है ? एक सीमित दायित्व वाली कम्पनी के संचलाकों के अधिकारों और कर्तव्यों का वर्णन कीजिए। अथवा ” एक कम्पनी के संचालकों के अधिकारों, कर्तव्यों और दायित्वों का वर्णन कीजिए।

कंपनी संचालकों (Director) के क्या अधिकार हैं ?

कम्पनी अधिनियम के अधीन निर्मित एक कृत्रिम व्यक्ति है,इसलिए वह अपने कार्यों को अपने एजेण्टों द्वारा अपने द्वारा नियुक्त किये गये व्यक्तियों के द्वारा ही निष्पादित कर सकती है। जिन व्यक्तियों द्वारा वह अपने कार्यों को निष्पादित करती है उन्हें ‘संचालक‘ कहते हैं।

संचालकों के अधिकार (Rights of Directors)

सामान्यतः संचालकों के अधिकार कम्पनी के अन्तर्नियमों में वर्णित होते हैं और अन्तर्नियमों के अधीन संचालक वह सब कार्य कर सकते हैं जो कि कम्पनी के कुशल संचालन के लिए आवश्यक है। यद्यपि संचालकों के अधिकार सामूहिक रूप से संचालक मण्डल द्वारा क्रियाशील होते हैं, परन्तु अन्तर्नियमों में की गई व्यवस्था के अधीन संचालकगण अपने अधिकार किसी दूसरे को या उनमें से किसी को भी हस्तान्तरित कर सकते हैं। अध्ययन की दृष्टि से संचालकों के अधिकारों को निम्न दो भागों में बाँटा जा सकता है-

 (1) संचालक मण्डल के सामान्य अधिकार-

अधिकार की धारा 291 के अनुसार,कम्पनी का संचालक मण्डल उन सब अधिकारों का प्रयोग करने तथा उन सब कार्यों के लिए अधिकारी है जिनको किं कम्पनी प्रयोग करने की अधिकारी है। परन्तु संचालक मण्डल उन अधिकारों का प्रयोग तथा उन कार्यों को नहीं कर सकती जो कि अधिनियम, पार्षद सीमानियम अथवा अन्तर्नियमों के अधीन कम्पनी केवल व्यापक सभा द्वारा ही कर सकती है।

 (2) संचालक मण्डल की सभा में प्रयोग किये जाने वाले अधिकार-

संचालकों के अधिकार सामूहिक रूप से संचालक मण्डल की सभा द्वारा ही क्रियान्वित होते हैं। संचालक मण्डल निम्न अधिकारों का प्रयोग केवल मण्डल की सभा में प्रस्ताव पारित करके ही कर सकता हैT

(i) अंशों का अदत्त राशि की अंशधारियों से माँग करनाः

(ii) ऋणपत्रों का निर्गमन करना;

(iii) ऋणपत्रों के अतिरिक्त अन्य किसी रूप से ऋण लेनाः

(iv) कम्पनी के कोषों का विनियोग करना;

(v) ऋण देना;

(vi) आकस्मिक रिक्त स्थान की पूर्ति;

(vi) ऐसे अनुबन्धों की स्वीकृति जिनमें संचालक,उसके रिश्तेदार या फर्म का हित है; तथा

(viii) किसी अन्य कम्पनी के प्रबन्धक या प्रबन्धक संचालक को प्रबन्ध संचालक या प्रबन्धक नियुक्त करना।

संचालक मण्डल के अधिकारों पर प्रतिबन्ध (Restrictions on the Power of Board of Directors)

कम्पनी अधिनियम द्वारा संचालक मण्डल के अधिकारों पर निम्नलिखित प्रतिबन्ध लगाये गये हैं-

(1) व्यापक सभा की बिना सहमति के कार्य करने पर प्रतिबन्ध-

सार्वजनिक कम्पनी का संचालक मण्डल निम्न कार्य कम्पनी की व्यापक सभा की अनुमति के बिना नहीं कर सकता-

(i) कम्पनी का व्यवसाय पूर्णत: या अंशत: बेचना, पट्टे पर देना या उसकी अन्य कोई व्यवस्था करना;

(ii) किसी संचालक के प्रायः ऋण को समाप्त करना, अथवा भुगतान के लिए अधिक समय देना;

(iii) कम्पनी की किसी सम्पत्ति के अधिग्रहण से प्राप्त क्षतिपूर्ति के धन को ट्रस्ट प्रतिभूतियों के अतिरिक्त किसी अन्य प्रकार से विनियोजित करना;

(iv) कम्पनी की प्रदत्त पूँजी एवं स्वतन्त्र कोषों के योग से अधिक राशि का ऋण लेना;

(v) किसी वर्ष में 50,000 रु. अथवा शुद्ध लाभ के 5% (दोनों में जो अधिक है) से अधिक दान देना।

(2) राजनैतिक चन्दों पर प्रतिबन्ध-

कम्पनी (संशोधन) अधिनियम, 1985 के अनुसार कुछ दशाओं में राजनैतिक चन्दे निषेध हैं जबकि कुछ दशाओं में उल्लेखित प्रतिबन्धों के साथ ऐसे चन्दे दिये जा सकते हैं-

(i) एक सरकारी कम्पनी या एक ऐसी कम्पनी जिसका जीवन वित्तीय वर्षों से कम है वह किसी व्यक्ति या राजनैतिक पार्टी को चन्दा नहीं दे सकती है।

(ii) उपर्युक्त कम्पनियों के अलावा अन्य कम्पनियाँ किसी भी व्यक्ति या राजनैतिक पार्टी को अपने शद्ध लाभों का 50% तक चन्दा दे सकती है।

(3) एकाकी विक्रय एजेण्टों की नियुक्ति पर प्रतिबन्ध-

कम्पनी (संशोधन) अधिनियम,1947 की धारा 293 A के अनुसार केन्द्र सरकार को अधिकार है कि वह ऐसी वस्तु के लिए जिसकी माँग उसकी पूर्ति से अधिक है,कुछ समय के लिए एकाकी विक्रय एजेण्टों की नियुक्ति पर रोक लगा सकती है।

संचालकों को ऋण (Loan to Directors)

एक सार्वजनिक कम्पनी केन्द्रीय सरकार की पूर्व सहमति प्राप्त किये बिना निम्न में से किसी व्यक्ति को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से न तो कोई ऋण दे सकती है और न उनके द्वारा लिये गये ऋण के लिए कोई जमानत या प्रतिभूति दे सकती है-

  1. इस कम्पनी या इसकी सूत्रधारी कम्पनी के संचालक को, संचालक के साझेदार या रिश्तेदार को;
  2. किसी फर्म को जिसमें ऐसा कोई संचालक या उसका रिश्तेदार साझेदार हो;
  3. किसी भी ऐसी निजी कम्पनी को जिसमें ऐसा संचालक सदस्य है या संचालक है;
  4. किसी समामेलित संस्था को जिसकी साधारण सभा में कुल मताधिकार के कम से कम25% मताधिकार ऐसे किसी संचालक या संचालकों का नियन्त्रण हो;
  5. किसी समामेलित संस्था को जिसका संचालक मण्डल प्रबन्धक संचालक या प्रबन्धक ऋण देने वाली कम्पनी के संचालक मण्डल या किसी संचालक या संचालकों के आदेशों एवं निर्देशों के अनुसार कार्य करती है।

उपर्युक्त व्यवस्थाएँ एक निजी कम्पनी तथा बैंकिंग कम्पनी की दशा में लाग नहीं होंगी। परन्तु एक सूत्रधारी कम्पनी को उसकी सहायता कम्पनी को ऋण देने पर रोक नहीं लगाती।

संचालकों के कर्तव्य (Duties of Directors)

संचालकों के कर्तव्यों को निम्न भागों में बाँटा जा सकता है-

(अ) अधिनियम के अधीन कर्तव्य

(1) हितों को प्रकट करने का कर्तव्य ।

(2) पद-धारकता को प्रकट करने का कर्तव्य ।

(3) अंश-धारकता को प्रकट करने का कर्तव्य ।

(ब) सामान्य कर्तव्य

(1) विश्वास पर आधारित कर्तव्य ।

(2) सावधानी का कर्तव्य ।

(3) अधिकारों को हस्तान्तरण न करने का कर्तव्य ।

(अ) अधिनियम के अधीन कर्तव्य

(1) हितों को प्रकट करने का कर्तव्य-

कम्पनी के प्रत्येक संचालक को यदि वह कम्पनी के किसी अनुबन्ध में कोई हित रखता है तो उसे संचालक मण्डल की सभा में ऐसे हित को प्रकट कर देना चाहिए।

(2) पद-धारकता को प्रकट करने का कर्तव्य-

प्रत्येक संचालक का यह कर्तव्य है कि यदि वह किसी अन्य समामेलित संस्था का संचालक,प्रबन्धक संचालक, मैनेजर अथवा सचिव है तो उसे ऐसे पद का विवरण कम्पनी को प्रकट कर देना चाहिए।

(3) अंश धारकता को प्रकट करने का कर्तव्य-

प्रत्येक संचालक का यह कर्तव्य है कि वह अपने द्वारा धारण किये गये अंशों अथवा ऋण-पत्रों का विवरण कम्पनी को दे।

(ब) सामान्य कर्तव्य

(1) विश्वास पर आधारित कर्तव्य-

संचालकों का यह कर्तव्य है कि उन्हें अपने अधिकारों के बाहर कार्य नहीं करना चाहिए। संचालकों का यह भी कर्तव्य है कि उन्हें ईमानदारी से तथा सद्भावना से कार्य करना चाहिए।

(2) सावधानी का कर्तव्य-

कम्पनी के प्रत्येक संचालक का यह कर्तव्य है कि वह कम्पनी के मामलों के प्रबन्ध में यथोचित सावधानी का प्रयोग करे। ऐसा न करने पर यदि कम्पनी को कोई हानि हो जाती है तो वह उसके लिए कम्पनी के प्रति उत्तरदायी होगा।

(3) अधिकारों को हस्तान्तरण न करने का कर्तव्य-

कम्पनी ने किसी संचालक को उसकी कुशलता एवं विश्वास के आधार पर ही उसे संचालक नियुक्त किया है, अत: संचालक को अपने कार्यों को स्वयं ही निष्पादित करना चाहिए। ऐसे कार्यों का हस्तान्तरण किया जा सकता है जिनके सम्बन्ध में कम्पनी अधिनियम अथवा अन्तर्नियमों में व्यवस्थित हैं।

संचालकों के दायित्व (Liabilities of Directors)

संचालकों के दायित्व को निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है-

(अ) तीसरे पक्षकारों के प्रति दायित्व

(1) अधिनियम के अधीन दायित्व ।

2) अन्य दायित्व।

(ब) कम्पनी के प्रति दायित्व

(1) अधिकारों के बाहर कार्य करने के लिए दायित्व ।

(2) कपट के लिए दायित्व।

(3) लापरवाही के लिए दायित्व ।

(4) कर्तव्य-खण्डन तथा विश्वास-खण्डन के लिए दायित्व।

(स) दण्डनीय दायित्व

इन्हें तीन भागों में बाँटा जा सकता है-

(अ) तीसरे पक्षकारों के प्रति दायित्व

(1) अधिनियम के प्रति दायित्व-

जबकि वह ऐसे प्रविवरण के निर्गमन के लिए उत्तरदायी है जिसमें अधिनियम की व्यवस्थाओं के अधीन विवरण नहीं है अथवा जबकि उसमें महत्वपूर्ण मिथ्याकथन है। इसी प्रकार अनियमित आबंटन के लिए उनका वैयक्तिक दायित्व हो सकता है।

(2) अन्य दायित्व-

यदि संचालक कोई ऐसा अनुबन्ध करते हैं जो कि कम्पनी के अधिकारों के बाहर हैं, तो तीसरे पक्षकार संचालकों से व्यक्तिगत रूप से भी हर्जाना प्राप्त करने के अधिकारी हैं।

(ब) कम्पनी के प्रति दायित्व

(1) अधिकारों के बाहर कार्य करने के लिए दायित्व-

संचालक अपने अधिकारों से बाहर कार्यों के लिए कम्पनी के प्रति दायी है और ऐसी दशा में कपट प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है।

(2) कपट के लिए दायित्व-

यदि कोई संचालक कपटमय प्रविवरण निर्गमित करता है अथवा अन्य किसी रूप में कपट का पक्षकार है, वैयक्तिक रूप से दायी है।

(3) लापरवाही के लिए दायित्व-

संचालक कम्पनी के प्रति लापरवाही के लिए भी दायी है। यदि कोई संचालक अपने कर्तव्यों का पालन करने में असफल रहता है, वह लापरवाही के लिए दोषी है । परन्तु जब वह अपने अधिकारों के अन्तर्गत कार्य करते हैं और उन्होंने सद्भावना से कार्य किया है, तब वह अपनी गलतियों अथवा निर्णयों को भूलों के लिए दायी न होंगे।

(4) कर्तव्य-खण्डन तथा विश्वास-खण्डन के लिए दायित्व-

एक संचालक कर्तव्य-खण्डन के लिए दायी है । कर्तव्य-खण्डन लापरवाही से अधिक है और इसमें विश्वास-खण्डन भी शामिल है। यदि संचालक जान-बूझकर एक अवयस्क को अंशोंका आबंटन करते हैं तो वह कर्तव्य-खण्डन के लिए दोषी ‘हैं। संचालक विश्वास-खण्डन के लिए भी दायी है। यदि संचालक कोई गुप्त लाभ प्राप्त करते हैं अथवा कम्पनी के धन का दुरुपयोग करते हैं तो वह विश्वास-खण्डन के लिए दोषी

(स) दण्डनीय दायित्व

कम्पनी अधिनियम के अधीन अनेक दशाओं में संचालकों का नागरिक दायित्व है। साथ ही कुछ दशाओं में दण्डनीय दायित्व भी है-

(1) आबंटन के उचित विवरण के सम्बन्ध में।

(2) अंशों तथा स्टॉक के परिवर्तन की सूचना रजिस्ट्रार को भेजने के सम्बन्ध में।

(3) प्रमाण-पत्रों की सुपुर्दगी के लिए तैयार करने एवं भेजने के सम्बन्ध में ।

(4) सदस्यों का रजिस्टर रखने के सम्बन्ध में।

(5) बन्धकों तथा प्रभारी के रजिस्टर के सम्बन्ध में।

(6) सदस्यों की सूची रखने के सम्बन्ध में।

(7) व्यापक सभाओं को बुलाने के सम्बन्ध में।

(8) अन्य अनेक दशाओं में।

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