देवदारु-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

देवदारु-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी | Devdaru Nibandh ka Mool Bhav

देवदारु-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी: पता नहीं किसने इस पेड़ का नाम ‘देवदारु’ रख दिया था, नाम निश्चय ही पुराना है, कालिदास से भी पुराना, महाभारत से भी पुराना । सीधे ऊपर की ओर उठता है, इतना ऊपर की पास वाली चोटी के भी ऊपर उठ जाता है, एकदम द्युलोक ( स्वर्गलोक, आकाश या अंतरिक्ष ) को भेद करने की लालसा से । नीचे शाखाएं मर्त्यलोक को अभयदान देने की मुद्रा में फैलती चली जाती हैं, मानो कह रही हों भय नहीं, मैं जो हूँ! प्रत्येक शाखा की झबरीली टहनियाँ कंटीले पत्तों के ऐसे लहरदार छंदों का वितान ( शामियाना ) तानती हैं कि छाया चेरी-सी ( सेविका के समान ) अनुगमन करती है। जिस आचार्य ने परिपाटीविहित ( प्रथा या ढंग के अनुसार ) शिष्टजनानुमोदित ( शिष्ट जनों द्वारा स्वीकृत ) ‘सज्जा’ को ‘छाया’ नाम दिया था वह जरूर इस पेड़ की शोभा से प्रभावित हुआ था।

देवदारु-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

पेड़ क्या है, किसी सुलझे हुए कवि के चित्त का मूर्तिमान छंद है – धरती के आकर्षण को अभिभूत करके लहरदार वितानों की श्रृंखला को सावधानी से संभालता हुआ, विपुल व्योम की ओर एकाग्रीभूत ( एकाग्रतायुक्त ) मनोहर छंद ।

कैसी शान है, गुरुत्वाकर्षण के जड़-वेग को अभिभूत करने की कैसी स्पर्द्धा है – प्राण के आवेश की कैसी उल्लासकर अभिव्यक्ति है । देवताओं का दुलारा पेड़ नहीं तो यह क्या है? क्या यों ही समाधि लगाने के लिए महादेव ने ‘देवदारु-द्रुम-वेदिका’ ( देवदार वृक्षों से आच्छादित भूमि ) को ही पसंद किया था? कुछ बात होनी चाहिए । कोई नहीं बता सकता कि महादेव समाधि लगाकर क्या पाना चाहते थे । उन्हें कमी किस बात की थी? कालिदास ने बताया कि उन्होंने इस प्रयोजनातीत (निष्प्रयोजन तो कैसे कहें!) समाधि के लिए देवदारू द्रुम के नीचे वेदिका (किसी शुभ कार्य के लिए तैयार की गई भूमि) बनाई थी। शायद इसलिए कि देवदारू भी अर्थातीत ( अर्थ से परे ) छंद है – प्राणों का उल्लासनर्तन, जड़-शक्ति के दुर्वार ( जिसका निर्वारण कठिन हो ) आकर्षण को पराभूत ( पराजित ) करके विपुल ( विस्तृत ) व्योम-मंडल ( आकाश ) में विहार करने का अर्थातीत आनंद ।

कहते हैं, शिव ने जब उल्लासातिरेक में उद्दाम ( स्वतंत्र / उग्र / प्रचंड ) नर्तन किया था तो उनके शिष्य तण्डु मुनि ने उसे याद कर लिया था । उन्होंने जिस नृत्य का प्रवर्तन किया उसे ‘तांडव’ कहा जाता है । ‘तांडव’ अर्थात ‘तण्डु’ मुनि द्वारा प्रवर्तित ‘रस-भाव-विवर्जित’ ( रस और भाव से उपेक्षित या अलग ) नृत्य । रस भी अर्थ है, भाव भी अर्थ है, परंतु तांडव ऐसा नाच है जिसमें रस भी नहीं, भाव भी नहीं । नाचने वाले का कोई उद्देश्य नहीं, मतलब ‘अर्थ’ नहीं । केवल जड़ता के दुर्वार आकर्षण को छिन्न करके एकमात्र चैतन्य की अनुभूति का उल्लास! यह ‘एकमात्र’ लक्ष्य ही छंद भरता है, इसी से उसमें ताल पर नियंत्रण बना रहता है । एकाग्रीभाव छंद की आत्मा है । अगर यह न होता तो शिव का तांडव बेमेल धमाचौकड़ी और लस्टम-पस्टम ( व्यर्थ ) उछल-कूद के सिवा और कुछ न होता । तांडव की महिमा आनंददोन्मुखी एकाग्रता में है । समाधि भी एकाग्रता चाहती है । ध्यान, धारणा और समाधि की एकाग्रता से ही योग सिद्ध होता है । बाह्य प्रकृति के दुर्वार आकर्षण छिन्न करने का उल्लास तांडव है । अन्त:प्रकृति के असंयत फिंकाव को नियंत्रित करने का नाम समाधि है ।

देवदारु वृक्ष पहले प्रकार के उल्लास को सूचित करता है, शिव का ‘निर्वात निष्कम्प प्रदीप:’ रूप दूसरे प्रकार के । दोनों में एक ही छंद है । शिव ने समझ-बूझकर ही देवदारूद्रुम की वेदिका को पसंद किया होगा । देवदारु के नीचे समाधिस्थ महादेव! तुक मिल रहा है, शानदार तुक! कौन कहता है कि कालिदास ने तुक मिलाने की परवा नहीं की । मेरा मन कहता है कि कालिदास भी तुकाराम थे, तुक मिलाने के मौजी वाग्विलासी! मगर ये तुक भोंडे किस्म के नहीं होते थे ; यह तो निश्चित है । ‘झगरे रगरे बगरे डगरे’ ये भी कोई तुक है । मगर सारी दुनिया इसी को तुक कहती आ रही है । कुछ-न-कुछ तो होगा ही, सारी दुनिया पागल नहीं हो सकती । लेकिन यह भी सही है कि बात-बात में तुक मिला करता है । अगर ऐसा न होता तो ‘बेतुकी’ हांकने वालों को बुरा न माना जाता । जो लोग ‘तुक’ की बात करते हैं, वे शब्द की ध्वनियों का तुक तो नहीं मिलाते । फिर तुक है क्या?

तुक वह है जो देवदारू की गगनचुंबी शिखा और समाधिस्थ महादेव की निर्वात-निष्कम्प प्रदीप की ऊर्ध्वगामिनी ज्योति में है! अर्थात तुक अर्थ में रहता है । ध्वनि-साम्य के तुक में कुछ-न-कुछ अर्थचारुता होनी चाहिए । ध्वनि-साम्य साधन है, तुक अर्थ का धर्म होना चाहिए । मगर ऐसा कहना खतरे से खाली नहीं है । किसी नये आलोचक ने अर्थ की लय की वकालत की है । मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि सारी पंडित-मंडली उस गरीब पर बरस पड़ी है । अगर तुक अर्थ में मिल सकता है तो लय क्यों नहीं मिल सकता । मेरे अंतर्यामी कहते हैं कि तुक तो अर्थ में रहता है, लय नहीं रहता । बहुत से लोग अंतर की आवाज को आँख मूँदकर मान लेते हैं, मैं नहीं मान पाता! आँख खोलने पर भी यदि अंतर की आवाज ठीक जँचे तो मान लेना चाहिए । क्योंकि उस अवस्था में भीतर और बाहर का तुक मिल जाता है । शिव जी ने अंतर और बाहर का तुक मिलाने के लिए ही देवदारु को चुना था ।

अंतर्यामी भी बहिर्यामी के साथ ताल मिलाते रहें यही उचित है । महादेव ने आंखें मूंद ली थी, देवदारु ने खोल रखी थी । महादेव ने भी जब आंख खोल दी तो तुक बिगड़ गया, छंदोंभंग हो गया, त्रैलोक्य को मदविह्वल ( नशे में चूर ) करने वाला देवता भस्म हो गया । उसका फूलों का तूणीर ( तरकस ) जल गया, रत्नजटित धनुष टूट गया । सब गड़बड़ हो गया । सोचता हूँ उस समय देवदारु की क्या हालत हुई होगी । क्या इतनी ही फक्कड़ाना मस्ती से झूम रहा होगा? क्या ऐसा ही बेलौस ( बेपरवाह या बेमुरव्वत ) खड़ा होगा? शायद हाँ, क्योंकि शिव की समाधि टूटी थी, देवदारू का तांडव – रस-भावरविवर्जित महानृत – नहीं टूटा था । देवता की तुलना में वह निर्विकार रहा – काठ बना हुआ । कौन जाने इसी कहानी को सुनकर किसी ने इसे देवता का काठ ( देवदारू ) नाम दे दिया हो : फक्कड़ हो तो अपने लिए हो बाबा, मनुष्य के लिए तो निरे काठ हो ; दया नहीं, माया नहीं, मोह नहीं, आसक्ति नहीं ; निरे काठ! ऐसों से तो देवता ही भला! कहीं न कहीं उसमें दिल तो है । मगर यह भी कैसे कहा जाए! देवता के दिल होता तो लाज-शर्म भी होती, लाज-शर्म होती तो आंखों की पलकें भी झँपती! लेकिन देवता है कि ताकता रहता है ; पलकें उसकी झँपती नहीं! एक क्षण के लिए उसने आँखें मूँदी कि अनर्थ हुआ! बहुत सावधान, सदा जाग्रत ।

अलबत्ता, महादेव इन देवताओं से भिन्न थे । जहाँ आँखें झुकनी चाहिए, वहाँ उनकी आँखें झुकती थी, जहाँ टकटकी बंधनी चाहिए वहाँ बँध जाती थी । पार्वती जब वसंतपुष्पों के आभरण से सजी हुई सच्चारिणी पल्लविनी लता की भांति उनके सामने आई, तो उनके ( पार्वती ) बिम्ब फल के समान अधरोष्ठ वाले मोहक मुख पर उनकी टकटकी बँध गई । फिर उनकी ऑंखें झुकी थी । वे मनुष्य के समान विकारग्रस्त हुए । वे देवताओं में मनुष्य थे – महादेव! उस दिन देवदारु चूक गया । वह सब देखता रहा । इतना अनर्थ हो गया और अपने अवधूतपन का बाना नहीं छोड़ा । वह महावृक्ष नहीं बन सका ‘देवदारु’ बन गया । आंखें खोले रहना भी कोई तुक की बात है! महावृक्ष वनस्पति होते हैं, जिनमें भावुकता तो नहीं पर सार्थकता होती है, जो फूल तो नहीं देते पर फल देते हैं ।- ‘अपुष्पा फलवंतो ये’ । देवदारु चूक गया, ‘वनस्पति’ की मर्यादा से वंचित रह गया ।

तो क्या हुआ? यह सब मनुष्य की आत्मकेंद्रित दृष्टि का प्रसाद है । देवदारु को इससे क्या लेना-देना । वह तो जैसा है वैसा बना हुआ । तुम उसे वनस्पति कहो या देवता का काठ कहो । तुम्हें अच्छा लगता है तो अच्छा नाम देते हो, बुरा लगता है तो बुरा नाम देते हो । नाम में क्या धरा है । मुमकिन है, इसका पुराना नाम देव-तरु हो । देवता का तरु नहीं, देवता भी और तरु भी । देव होकर वह छंद है, तरु होकर अर्थ है । छंद, समष्टिव्यापिनी जीवनगति के समानांतर चलने वाले व्यष्टिगत प्राणवेग का नाम है ; अर्थ, समाज स्वीकृति-प्राप्त संकेत हुआ करता है ।

जहां बैठ कर लिख रहा हूँ वहां से ऊपर और नीचे पर्वतपृष्ठ पर देवदारु वृक्षों की सोपान-परंपरा सी दीख रही है । कैसी मोहक शोभा है । वृक्ष और भी हैं, लोगों ने नाम भी बताए हैं, पर सब छिप गए हैं दिखते हैं, आकाशचुंबी देवदारु ; ऐसा लगता है कि ऊपर वाले देवदारू वृक्ष की फुनगों पर से लुढ़का दिया जाऊं, तो फनगियों पर ही लोटता हुआ हजारों फीट नीचे तक जा सकता हूँ अनायास! पर ऐसा लगता ही भर है । भगवान न करे कोई सचमुच लुढ़का दे । हड्डी-पसली चूर हो जाएगी । जो कुछ लगता है वह सचमुच हो जाए तो अनर्थ हो जाए । लगने में बहुत-सी बातें गलत लगती हैं । इसीलिए कहता हूँ लगना अर्थ नहीं होता, कई बार अनर्थ होता है । अर्थ वास्तविकता है, वास्तविक जगत की सच्चाई है, लगता है सो मन का विकल्प है – अंतर्जगत की स्पृहा मात्र है, छंद है । दोनों में कहीं ताल-तुक मिल जाता तो काम की बात होती । नहीं मिलता, यह खेद की बात है । ताल-तुक मिलना अर्थ है, न मिलना अनर्थ है ।

प्रत्येक व्यक्ति के मन में कुछ-न-कुछ लगता रहता है । मजेदार बात यह है कि व्यक्ति का लगना अलग-अलग होता है । ‘अ-लग’ अर्थात जो न लगे । लगता है पर नहीं लगता, यह भी कोई तुक की बात हुई? तुक की बात तब होती जब लगता ‘अलग’ लगना न होता । इसीलिए कहता हूँ कि तुक अर्थ में होता है । जिसने इस पेड़ का नाम देवदारु दिया था उसे क्या लगा था, कह नहीं सकता । बात औरों को भी कामोवेश लगी होगी, तभी सबने मान लिया । जो सबको लगे सो अर्थ ; एक को लगे, बाकी को न लगे तो अनर्थ! अलगाव को ही पुराने आचार्यों ने पृथकत्व बुद्धि का नाम दिया है । और भी समझा कर कहा है कि यह अलगाव ‘मैं पन’ है, ‘अहंकार’ है । इधर कवि लोग हैं कि उन्हें हमेशा कुछ देख कर कुछ न कुछ लगता ही रहता है । खुलेआम कहते हैं कि मुझे ऐसा लग रहा है । क्यों कहते हो बाबा कि ‘मुझे’ ऐसा लग रहा है । दुनिया की ओर भी देखो । वह तुम्हें पागल कहेगी । पागल को भी तो कुछ-न-कुछ लगा ही रहता है मगर दुनिया को देखता हूँ तो हैरत में पड़ जाता हूँ । कवि को जो कुछ लगता है, उसके लिए वाह वाह कहके उसे सिर पर उठा लेती है । कुछ समझ में नहीं आता – ‘हो ही बौरी बिरह बस, के बौरो सब गाँव ।’

बिहारी अच्छे खासे कवि माने जाते हैं । उन्हीं की बात याद आ गई थी । बात इतनी ही सी थी कि कोई बिरह की मारी स्त्री कह रही है कि मैं ही पागल हो गई हूँ या सारा गाँव पागल हो गया है? क्या समझकर ये लोग चांद को ठंडी किरन वाला कहते हैं – ‘कहा जाने ये कहत हैं ससिहिं सीतकर गांव ।’ बिरह की मारी महिला का दिमाग बिगड़ गया है ; जो सबको ठंडा लग रहा है, उसे वह दाहक मान रही है । पागलपन ही तो है । मगर जब बिहारी ने उसे दोहा छंद में बांध दिया तो बात बिल्कुल बदल गई । हाय-हाय कैसी विरह-वेदना है कि उस सुकुमार बालिका को चाँद भी गरम मालूम पड़ता है । हृदय के भीतर जलने वाली विरहाग्नि ने उसे किसी काम का नहीं छोड़ा । हे भगवान तुम ऐसा कुछ नहीं कर सकते कि सारे गाँव के समान इस बालिका को भी चंद्रमा उतना ही शीतल लगे जितना औरों को लगता है । अर्थात विरहिण की दारूण व्यथा अब सबके चित्त की — अनुभूति के साथ ताल मिलाकर चलने लगी । पागल का ‘लगना’ एक का लगना होता है , कवि का ‘लगना’ सबको लगने लगता है । बात उलटकर कही जाए तो इस प्रकार होगी – जिसका लगना सबको लगे वह कवि है , जिसका लगना उसे ही लगे ; औरों को नहीं , वह पागल है । लगने-लगने में भी भेद है । जो सबको लगे वह अर्थ है , जो एक को लगे वह अनर्थ है । अर्थ सामाजिक होता है ।

मगर देवदारु नाम केवल नाम ही नहीं है । मैंने अपने गाँव के एक महान भूत-भगवान ओझा को भूत भगाते देखा है । आजकल के शिक्षित लोग भूत में विश्वास नहीं करते । वे भूत को मन का वहम मानते हैं । पर गाँव में भूत लगते मैंने देखा है । भूत भागते भी देखा है । भूत भी ‘लगता’ है । सब लगालगी वहम ही होती है । आँखों को भी । बिहारी जानते थे । कह गए हैं – ‘लगालगी लोयन करें ; नाहक मन बंधि जाय ।’ नाहक अर्थात बतलब , निरर्थक ।

हमारे गाँव में एक पंडित जी थे । अपने को महाविद्वान मानते थे । विद्या उनके मुँह से फचाफच निकला करती थी । शास्त्रार्थ में वे बड़े- बड़े दिग्गजों को हरा देते थे । विद्या के जोर से नहीं फचफचाहट के आघात से । प्रतिपक्षी मुँह पोंछता हुआ भागता था . अगर कुछ कैंड़ें का हुआ तो दैहिक बल से जय- पराजय का निश्चय होता था । मेरे सामने ही एक बार खासी गुत्थमगुथी हो गई । गाँव-जवार लोगों को पंडित जी की विद्या पर भरोसा नहीं था , पर उनकी फचाफच वाणी और भीमकाया पर विश्वास अवश्य था । शास्त्रार्थ में पंडित जी कभी हारे नहीं । कम लोग जानते हैं कि शास्त्रार्थ में कोई हारता नहीं , हराया जाता है । पंडित जी के यजमान जम उनके पीछे लाठी लेकर खड़े हो जाते थे तो उनकी विजय निश्चित हो जाती थी । पंडित जी केवल बड़े दिग्गज विद्वानों को नहीं , आसपास के भूतों को भी पराजित करने में अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं जानते थे । गायत्री का मंत्र ( जो उनके मुँह से आल्हा जैसा सुनाई देता था ) और देवदारु की लकड़ी – इनके अस्त्र थे । एक बार वे बग़ीचे से गुज़र रहे थे , घोर अंधकार , भयंकर सुनसान ! क्या देखते हैं कि आगे दनादन ढेले गिर रहे हैं । पंडित जी का अनुभवी मन तुरंत ताड़ गया कि कुछ दाल में काला है । मनुष्य इतनी टेजी से ढेले नहीं फेंक सकता ।

पंडित जी डरने वाले नहीं थे । पीछे मुड़कर ललकारा – अरे केवन है ! केवन अर्थात कौन । पीछे मुँडकट्टा , घोड़े पर चला आ रहा था , टप्प-टप्प-टप्प ! ( यहाँ पाठकों की जानकारी के लिए बता दूँ कि एक बार मैंने अपने गाँव में भूतों के जाति-भेद की जाँच की थी । कुल तेईस क़िस्म के हैं । मुँडकट्टा एक भूत ही है । मूँड़ नहीं है । छाती पर दो आँखें मशाल की तरह जलती रहती हैं । घोड़े पर चढ़कर चलता है । ) सो , पंडित जी से उलझने की हिमाक़त की इस दुरन्त मुँडकट्टे ने । डरनेवाला कोई और होता है । पंडित जी ने जूता उतार दिया , वह गायत्री मंत्र के पाठ में बाधक था । झमाझम गायत्री पढ़ने लगे । देवदारु की लकड़ी मुट्ठी में थी । दे रद्दे पर रद्दा । बेचारा मुँडकट्टा त्राहि-त्राहि कर उठा । अबकी बार छोड़ दो पंडित जी , पहचान नहीं सका था । पंडित जी का ब्राह्मण मन पसीज गया । नहीं तो तह सारे गाँव-जवार का कंटक समाप्त हो गया होता । मैंने यह कहानी स्वयं पंडित जी के मुँह से सुनी थी । अविश्वास करने का कोई उपाय नहीं था – फ़र्स्टहैंड इनफ़र्मेंशन था । उस दिन मेरे बालचित्त पर देवदारु की धाक जम गई थी । अब भी क्या दूर हुई है ?

आज देवदारु के जंगल में बैठा हूँ । लाख- लाख मुँडकट्टों को ग़ुलाम बना सकता हूँ । भूतों में जैसे मुँडकट्टे होते हैं , आदमियों में भी कुछ होते हैं । मस्तक नाम की कोई चीज उनके पास होती ही नहीं , मस्तक ही नहीं तो मस्तिष्क कहाँ , लता ही कट गई तो फूल की सम्भावना ही कहाँ रही – ‘लताया पूर्वलूनायां प्रसूनस्योद्भव: कुत: ?’ क्या इन मुँडकट्टों को देवदारु की लकड़ी से पराभूत ( पराजित ) किया जा सकता है ? करने का प्रयत्न ही तो कर रहा हूँ । परंतु पंडित जी के पास तो फचफची गायत्री थी वह कहाँ पाऊँ ?

मन की सारी भ्रांति को दूर करने वाले देवदारु , तुम्हें देखकर मन श्रद्धा से भर जाता है , वह अकारण नहीं है । तुम भूत-भगावन हो , तुम वहम-मिटावन हो ; तुम भ्रांति-नसावन हो । तुम दीर्घकाल से जानता था , पर पहचानता नहीं था । अब पहचान भी रहा हूँ । तुम देवता के दुलारे हो , महादेव के प्यारे हो , तुम धन्य हो ।

जानता हूँ कि बुद्धिमान लोग कहेंगे कि यह महज गप्प है । आज भी जानता हूं कि कदाचित अंतिम विश्लेषण पर पंडित जी की कहानी ‘पत्ता खड़का, बंदा भड़का’ से अधिक वजनदार न साबित हो । संभावना तो यहाँ तक है कि पत्ता भी ना खड़का हो और पंडित जी ने आद्योपांत पूरी कहानी बना ली हो । मगर बलिहारी है इस सर्जन शक्ति की । क्या शानदार कहानी रची पंडित जी ने! आदिकाल से मनुष्य गप्प रचता आ रहा है, अब भी रचे जा रहा है । आजकल हम लोग ऐतिहासिक युग में जीने का दावा करते हैं । पुराना मनुष्य ‘मिथकीय युग’ में रहता था, जहां वह भाषा माध्यम को अपूर्ण समझता था, वह मिथकीय तत्त्वों से काम लेता था । मिथक-गप्पे – भाषा की अपूर्णता को भरने का प्रयास है । आज भी क्या हम मिथकीय तत्वों से प्रभावित नहीं है? भाषा बुरी तरह अर्थ से बंधी हुई है । उनमें स्वच्छंद संचार की शक्ति क्षीण से क्षीणतर होती जा रही है । मिथक स्वच्छंद विचरण करता है । आश्रय लेता है भाषा का, अभिव्यक्त करता है भाषातीत को । मिथकीय आवरणों को हटाकर उसे तथ्यानुयायी अर्थ देने वाले लोग मनोवैज्ञानिक कहलाते हैं, आवरणों की सार्वभौम रचनात्मकता को पहचानने वाले कला-समीक्षक कहलाते हैं । दोनों को भाषा का सहारा लेना पड़ता है, दोनों धोखा खाते हैं । भूत तो सरसों में है । जो सत्य है, वह सर्जनाशक्ति के सुनहरे पत्र में मुंह बंद किए ढका ही रह जाता है । एक-पर-एक गप्पो की परतें जमती जा रही हैं । सारी चमक सीपी की चमक में चांदी देखने की तरह मन का अभ्यास मात्र है । गप्प कहाँ नहीं है, क्या नहीं है? मगर छोड़िये भी ।

देवदारू भी सब एक से नहीं होते । मेरे बिल्कुल पास में जो है, वह जरठ भी है, खूँसट भी । जरा उसके नीचे की ओर जो है, वह सनकी-सा लगता है । एक मोटे राम खड्ड के एक प्रांत पर उगे हैं, आधे जमीन में,आधे अधर में, आधा हिस्सा ठूँठ, आधा जगर-मगर ; सारे कुनबे के पाधा जान पड़ते हैं । एक अल्हड़ किशोर है, सदा हंसता सा ; कवि जैसा लगता है । जी करता है इसे प्यार किया जाए । सदा से ऐसा होता आया है । हर देवदारु का अपना व्यक्तित्व होता है । एक इतना कमनीय था कि बैल की ध्वजावाले महादेव ने उसे अपना बेटा बना लिया था । पार्वती माता की छाती से दूध ढरक पड़ा था । कालिदास खुद कह गए हैं । मगर कुछ लोग ऐसे होते हैं कि उन्हें ‘सबै धान बाईस पसेरी’ दिखते हैं ।

वे लोग सब को एक ही जैसा देखते हैं । उनके लिए वह खूँसट, वह पाधा, वह सूम, वह सनकी, वह झिझोटा, वह झबरैला, वह चपरगेंगा, वह गदरौना, वह खिटखिटा, वह झक्की, वह झुमरैना, वह धोकरा, वह नटखटा, वह चुन-मुन, वह बाँकुरा, वहां चौरंगी, सब समान है । महादेव जी के प्यारे बेटे के कमनीय व्यक्तित्व को भी सब नहीं पहचान सकते थे । एक मदमत्त गजराज आये और अपने गण्डस्थल की खाज मिटाने के लिए उसी पर पिल पड़े । जडें हिल गई, पत्ते झड़ गए, खाल छूट गई और आप खाज मिटाते रहे । महादेव जी को बड़ा क्रोध आया । आना ही था । उन्होंने उसकी रक्षा के लिए एक सिंह तैनात कर दिया । पर मेरे सामने जो अल्हड़ कवि हैं, उनका क्या होगा? वह तो कहिए कि इधर आते ही नहीं ।

फिर भी डर तो लगता ही है । हाथी ने सही गधों और खच्चरों से तो शहर भरा पड़ा है । लेकिन मैं जिधर हूँ, उधर वे भी कम ही आते हैं । गाहे-बगाहे आ भी जाते हैं पर उन्हें देवदारु की तरफ देखने की फुर्सत नहीं होती । उन्हें देखने को और बहुत-सी चीजें मिल जाती हैं । बाहरहाल कोई खास चिंता की बात नहीं है । इस देश के लोग पीढ़ियों से सिर्फ जाति देखते आ रहे हैं व्यक्तित्व देखने की उन्हें न आदत है, न परवाह है । संत लोग चिल्लाकर थक गए कि ‘मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान’ मगर तलवार बंद ही रह गए, म्यान के मोल-भाव से बाजार गर्म है । व्यक्तित्व को यहाँ पूछता ही कौन है! अर्थमात्र, जाति है, छंदमात्र, व्यक्तित्व है । अर्थ आसानी से पहचाना जा सकता है, क्योंकि वह धरती पर चलता है ; छन्द आसानी से पकड़ में नहीं आता, वह आसमान में उड़ा करता है ।

बात यह है कि जब मैं कहता हूं कि देवदारु सुंदर है तो सुनने वाले सुंदर का एक सामान्य अर्थ ही लेते हैं । हजार तरह के सुंदर पदार्थों में रहने वाला एक सामान्य सौंदर्य धर्म । सौंदर्य का कौन-सा विशिष्ट रूप मेरे हृदय में उल्लास तरंगित कर रहा है, यह बात बस मैं ही जानता हूँ । अगर मुझमें इस बात की कहने की शक्ति नहीं हुई तो यह गूंगे का गुड़ बनी रह जाएगी । जिसमें शक्ति होती है वह कवि कहलाता है । अनेक प्रकार के कौशल से वह इस बात को कहने का प्रयत्न करता है, फिर भी शब्दों का सहारा तो उसे लेना ही पड़ता है । शब्द सदा सामान्य अर्थ को प्रकट करते हैं । कवि विशिष्ट अर्थ देना चाहता है । वह छंदों के सहारे, उपमान-योजना के बल पर, ध्वनिसाम्य के द्वारा विशिष्ट अर्थ का साधारणीकरण करता है । तो भी क्या सब उसके विशिष्ट अर्थ को समझ पाते हैं? बिल्कुल नहीं ।

कोई बड़भागी होता है जिसके दिल की धड़कन कवि के दिल की धड़कन के साथ ताल मिला जाती है । कवि के हृदय के साथ जिसका हृदय मिल जाए उसे ‘सहृदय’ कहा जाता है । देवदारु की ऊर्ध्वशिखा-शोभा मेरे हृदय में एक विशेष उल्लास पैदा करती है । मेरे पास कवि-कौशल नाम की चीज नहीं है । मैं अपने विशिष्ट अनुभवों का साधारणीकरण नहीं कर पा रहा हूँ । कवि होता तो कर लेता । उपमानों की छटा खड़ी कर देता, सहृदय चित्त को अपने चित्त के ताल पर नृत्य कराने योग्य छंद ढूँढ लेता, ध्वनियों की नियतसंचारी समता का ऐसा समां बांधा कि सुनने वाले का मन मयूर की भांति नाच उठता ; पर मेरे भाग्य में यह कुछ भी नहीं है । केवल आँख फाड़कर देखता हूँ, पाषाण की कठोर छाती भेदकर यह देवदारु न जाने किस पाताल से अपना रस खींच रहा है और क्रम-ह्रस्व छाया का वितान तानता हुआ और धवल ऊर्ध्वलोक की ओर किसी अज्ञात निर्देशक के तर्जनी-संकेत की भांति कुछ दिखा रहा है । यह इतनी उँगलियाँ क्या यों ही उठी हुई हैं? कुछ बात है, अवश्य कुछ रहस्य है ।

भीतर ही भीतर अनुभव कर रहा हूँ पर बता सकूं ऐसी भाषा कहाँ है? हाय मैं असमर्थ हूँ, मूक हूँ! मीमांसकों का एक संप्रदाय मानता था कि शब्द का अर्थ वहां तक जाता है जहां तक वक्ता ले जाना चाहता है । वक्ता की इच्छा को विवक्षा कहते हैं । यह लोग कहते हैं कि जब जैमिनी मुनि ने कहा था कि ‘यत्पर: शब्द: स शब्दार्थ:’ तो उनका यही मतलब था । मेरा रोम-रोम अनुभव कर रहा है कि मुनि की बात का ऐसा अर्थ नहीं होना चाहिए । कहाँ विवक्षा इतनी दूर तक ले जाती है? ‘सुंदर’ शब्द का प्रयोग करके मैं जो कहना चाहता हूँ, वह कहाँ प्रकट हो पा रहा है? कहना तो बहुत चाहता हूँ, कोई समझे भी तो । नहीं, शब्द उतना ही बता पाता है, जितना लोग समझते हैं, वक्ता जो कहना चाहता है, उतना कहाँ बता पाता है वह? दुनिया में कवियों की जो कदर है वह इसलिए है कि वे जो अनुभव करते हैं उसे श्रोता के चित्त में प्रविष्ट भी करा सकते हैं । प्रेषणधर्मिता उनके कहे का एक प्रधान गुण है । मैं नहीं पहुंचा पाता हूँ उस अर्थ को, जिसे मेरा मन अनुभव कर रहा है । क्योंकि मैं शब्दों और छंदों का ऐसा अस्त्र नहीं पाता हूँ, जो मेरी अनुभूतियों को लेकर तीर की तरह श्रोता के हृदय में चुभ जाए । अर्थ निश्चय ही वक्ता की इच्छा के अधीन है । वह सामाजिक स्वीकृति चाहता है । उसमें लय नहीं, संगीत नहीं, नाद नहीं, गति नहीं । वह स्थिर है । शब्दों के गतिशील आवेश से वह हिलता है, भरभराता है, नये-नये परिवेश में सजता है और तब कहीं नया अर्थ पैदा करता है । अर्थ में लय नहीं होता, वह लय के सहारे नया अर्थ देता है ।

लेकिन देवदारु है शानदार वृक्ष । हवा के झोंकों से जब हिलता है तो उसका आभिजात्य ( ) झूम उठता है । कालिदास ने इसी हिमालय के उस भाग की , जहाँ से भागीरथी के निर्झर झरते रहते हैं , शीतलमंद-सुगंध पवन की चर्चा की थी , उन्होंने शीतलता को भागीरथी के निर्झर सीकरों ( ) की देन कहा , सुगन्धि को आसपास के वृक्षों के पुष्पों के सम्पर्क की बदौलत घोषित किया ; लेकिन मन्दी के लिए मुहु:कन्दित ( ) देवदारु को उत्तरदायी ठहराया । देवदारु के बार बार कम्पित होते रहने में एक प्रकार की मस्ती अवश्य है । युग-युगांतर की संचित अनुभूति ने ही मानो यह मस्ती प्रदान की है । ज़माना बदलता रहा है , अनेक वृक्षों और लताओं ने वातावरण से समझौता किया है , कितने ही मैदान में जा बसे हैं और खासी प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली है , लेकिन देवदारु है कि नीचे नहीं उतरा , समझौते के रास्ते नहीं गया और उसने अपनी ख़ानदानी चाल नहीं छोड़ी । झूमता है तो ऐसा मुसकराता हुआ , मानो कह रहा हो , मैं सब जनता हूँ , सब समझता हूँ । तुम्हारे करिश्मे मुझे मालूम हैं , मुझसे तुम क्या छिपा सकते हो – ‘मो ते दुरैहौ कहा सजनी निहुरे-निहुरे कहुँ ऊँट की चोरी’ हज़ारों वर्ष के उतार-चढ़ाव का ऐसा निर्मम साथी दुर्लभ है ।

‘देवदारु’ निबंध का मूल भाव / सन्देश या उद्देश्य ( Devdaru Nibandh Ka Mool Bhav / Sandesh Ya Uddeshya )

‘देवदारु’ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित एक ललित निबंध है जिसमें लेखक ने महादेव के प्रिय वृक्ष देवदारू की विभिन्न विशेषताओं का वर्णन किया है । लेखक के मतानुसार देवदारु वृक्ष मानव जाति को गुणवत्ता का संदेश देता है । वस्तुत: ‘देवदारु’ निबंध का मुख्य उद्देश्य या मूल भाव देवदारु वृक्ष की उन विशेषताओं का वर्णन करना है जो मानव जाति के लिए उपयोगी हैं ।

लेखक के मतानुसार मनुष्य को देवदारु वृक्ष की भांति अपने स्थान पर अचल-अटल खड़े रहना चाहिए । कठिन परिस्थितियों के कारण घुटने नहीं टेकने चाहिए । अपने मार्ग से विचलित नहीं होना चाहिए । परिस्थितियों से समझौता करके झुकना या दबना नहीं चाहिए ।

मनुष्य को समाज के साथ आत्मसात करके चलना चाहिए । लेखक के अनुसार अलग प्रतीक है अ-लग का, अर्थात जो न लगे । ”जो सबको लगे सो अर्थ, एक को लगे, बाकी को न लगे वह अनर्थ । अलगाव पृथकत्व बुद्धि का नाम है, जिसमें मैं-पन है, अहंकार है ।”

देवदारु संदेश देता है कि हमें काल्पनिक बातों से डरना नहीं चाहिए । लेखक भूत के विषय में लिखता है – “मस्तक ही नहीं तो मस्तिष्क कहाँ, लता ही कट गई तो फूल की संभावना कहाँ रही ।”……. “मन में आत्मविश्वास जागृत करो, करो भूत की पिटाई करो, वह कह उठेगा – अब फिर वह गलती नहीं होगी आज से मैं तुम्हारा गुलाम हुआ ।”

‘देवदारु’ निबंध के माध्यम से लेखक ने एक महत्वपूर्ण संदेश यह दिया है कि मनुष्य को जाति या वंश से नहीं बल्कि उसके व्यक्तित्व से पहचानना चाहिए । लेखक इंदिरा जी का उदाहरण देते हुए कहता है कि उनका महत्व नेहरु की पुत्री होने के कारण नहीं बल्कि उनकी सफल कूटनीति और राजनीति के कारण है ।

इसके अतिरिक्त देवदारु वृक्ष की भांति इस मृत्युलोक से जीवन-शक्ति ग्रहण करो, रस प्राप्त करो और चेष्टा करो ऊपर की ओर चढ़ने की । ऊंचे उठने का मार्ग है – ध्यान, धारण और समाधि । साथ ही पृथ्वी पर रहकर दूसरों को अभयदान दो, जियो और जीने दो ।

इस प्रकार देवदारु वृक्ष कठिनाइयों का सामना करने, अपने सिद्धांतों पर अटल रहने, निरंतर गतिमान रहने, जमीन से जुड़े रहने, ऊँचे उठने, सबका कल्याण करने, पर्यावरण की सुरक्षा करने तथा मानवता का कल्याण के लिए सदा तत्पर रहना सिखाता है ।

‘देवदारु’ निबंध की तात्विक समीक्षा ( ‘Devdaru’ Nibandh Ki Tatvik Samiksha )

‘देवदारु’ आचार्य हजारी प्रसाद द्वारा रचित एक ललित निबंध है । जिसका मुख्य उद्देश्य मानवता को गुणवत्ता का संदेश देना है । निबंध कला की दृष्टि से ‘देवदारु’ निबंध की समीक्षा निम्नलिखित है : —

व्यक्तित्व की छाप — ललित निबंधों पर लेखक के व्यक्तित्व की छाप सर्वत्र दिखाई देती है । देवदारु निबंध में भी द्विवेदी जी का व्यक्तित्व मुखरित हो उठा है । अपने गांव के पंडित जी का वर्णन करने के उपरांत वे कहते हैं – “आज देवदारु के जंगल में बैठा हूँ । लाख-लाख मुँडकट्टों को गुलाम बना सकता हूँ ।” अन्य कई स्थानों पर भी लेखक का व्यक्तित्व उभर आया है, जैसे – “जहाँ बैठकर लिख रहा हूँ वहाँ ऊपर और नीचे पर्वत पृष्ठ पर देवदारु वृक्षों की सोपान-परंपरा सी दीख रही है । कैसी मोहक शोभा है ।”

भावात्मकता – भावात्मकता ललित निबंधों की एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता है । ललित निबंधों में गूढ़ तथा गंभीर विचारों की अभिव्यक्ति भी सरस ढंग से की जाती है । यही कारण है कि ललित निबंध में पाठक पूरी तरह से रम जाते हैं ।

भारतीय संस्कृति में आस्था – आचार्य द्विवेदी जी की भारतीय संस्कृति में पूर्ण आस्था है । इसलिए उनके निबंधों में भारतीय संस्कृति की स्पष्ट झलक दिखाई देती है । ‘देवदारु’ निबंध में लेखक बताता है कि समाधि लगाने के लिए महादेव ने देवदारु-द्रुम-वेदिका को ही पसंद किया था । इसलिए लेखक देवदारु को महादेव का प्रिय वृक्ष कहता है । भारतीय संस्कृति में आस्था होने के बावजूद आचार्य द्विवेदी जी भारतीय संस्कृति में व्याप्त अंधविश्वासों व बुराइयों को भी उजागर करते हैं । प्रस्तुत निबंध में वे अपने गांव के पंडित जी का उदाहरण देते हैं जो लोगों को भूत के नाम पर डराकर ठगने का काम करता है । इसी वे प्रकार भारतीय समाज में व्याप्त जाति-प्रथा पर भी अंगुली उठाते हैं ।

प्रवाहमयता – प्रवाहमयता ललित निबंधों की एक महत्वपूर्ण विशेषता है । ललित निबंधों में काव्य-सा प्रभाव देखने को मिलता है जिससे ये निबंध सरस तथा रोचक बन जाते हैं । ‘देवदारु’ में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जिनमें लेखक की भाषा काव्यात्मक लगती है, जैसे – “देवदारु एक शानदार वृक्ष । हवा के झोंकों से जब हिलता है तो उसका आभिजात्य झूम उठता है ।” प्रस्तुत निबंध में भाषा एवं शब्द-चयन सरस एवं आकर्षक है ।

चित्रात्मकता – ललित निबंधों में लेखक विषय वस्तु को सजीव रूप प्रदान करने के लिए चित्रात्मक भाषा का प्रयोग करते हैं । ‘देवदारु’ निबंध में आचार्य द्विवेदी जी ने भी अनेक स्थितियों को शब्दों के माध्यम से सजीव बना दिया है । शब्दों के माध्यम से उन्होंने देश, काल व वातावरण को पाठकों के समक्ष सजीव बना दिया है । जैसे – देवदारु भी सब एक से नहीं होते । मेरे बिल्कुल पास जो है, वह जरठ भी है, खूँसट भी । जरा उसके नीचे की ओर जो है, वह सनकी-सा लगता है ।……. एक अल्हड़ किशोर है, सदा हँसता-सा ; कवि जैसा लगता है ।”

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि ‘देवदारु’ निबंध में ललित निबंध के सभी अनिवार्य तत्त्व देखे जा सकते हैं । लेखक के व्यक्तित्व की छाप, भावात्मकता, काव्यात्मकता, चित्रात्मकता आदि सभी गुण प्रस्तुत निबंध में परिपक्वता से देखे जा सकते हैं । इसमें कोमलकांत पदावली युक्त प्रांजल भाषा का प्रयोग किया गया है जो ललित निबंधों के सर्वथा अनुकूल है । अत: ‘देवदारु’ निबंध को एक उत्कृष्ट ललित निबंध कहा जा सकता है ।

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