डॉ० धर्मवीर भारती का जीवन परिचय, रचनाएँ, साहित्यिक, तथा भाषा-शैली
डॉ० धर्मवीर भारती का जीवन परिचय, रचनाएँ, साहित्यिक, तथा भाषा-शैली
डॉ० धर्मवीर भारती का जीवन परिचय
डॉ० धर्मवीर भारती आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रमुख लेखक, कवि, नाटककार और सामाजिक विचारक थे। वे एक समय की प्रख्यात साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्मयुग’ के प्रधान संपादक भी थे।
डॉ० धर्मवीर भारती को 1972 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। उनका उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ सदाबहार रचना मानी जाती है। ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ उनका दूसरा अनुपम उपन्यास है, जिस पर श्याम बेनेगल ने इसी नाम की फिल्म बनाई।
जीवन परिचय
डा० धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसंबर 1926 को इलाहाबाद के अतर सुइया मुहल्ले में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री चिरंजीव लाल वर्मा और माँ का श्रीमती चंदादेवी था। इनकी स्कूली शिक्षा डी०ए०वी० हाईस्कूल में हुई और उच्च शिक्षा प्रयाग विश्वविद्यालय में। प्रथम श्रेणी में एम०ए० करने के बाद डॉ० धीरेंद्र वर्मा के निर्देशन में सिद्ध साहित्य पर शोध-प्रबंध लिखकर उन्होंने पी-एच०डी० प्राप्त की।
घर और स्कूल से प्राप्त आर्यसमाजी संस्कार, इलाहाबाद और विश्वविद्यालय का साहित्यिक वातावरण, देश भर में होने वाली राजनैतिक हलचलें, बाल्यावस्था में ही पिता की मृत्यु और उससे उत्पन्न आर्थिक संकट इन सबने उन्हें अतिसंवेदनशील, तर्कशील बना दिया। उन्हें जीवन में दो ही शौक थे – अध्ययन और यात्रा। भारती जी के साहित्य में उनके विशद अध्ययन और यात्रा-अनुभवों का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है।
जानने की प्रक्रिया में होने और जीने की प्रक्रिया में जानने वाला मिजाज जिन लोगों का है उनमें मैं अपने को पाता हूँ। आलोचकों में भारती जी को प्रेम और रोमांस का रचनाकार माना जाता है। उनकी कविताओं, कहानियों और उपन्यासों में प्रेम और रोमांस का तत्व स्पष्ट रूप से मौजूद है। परंतु उसके साथ-साथ इतिहास और समकालीन स्थितियों पर भी उनकी पैनी दृष्टि रही है, जिसके संकेत उनकी कविताओं, कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, आलोचना तथा संपादकियों में स्पष्ट देखे जा सकते हैं उनकी कहानियों व उपन्यासों में मध्यवर्गीय जीवन के यथार्थ के चित्र हैं।
‘अंधा युग’ में स्वातंत्र्योत्तर भारत में आई मूल्यहीनता के प्रति चिता है। उनका बल पूर्व और पश्चिम के मूल्यों, जीवन-शैली और मानसिकता के संतुलन पर है, वे न तो किसी एक का अंधा विरोध करते हैं न अंधा समर्थन। परंतु क्या स्वीकार करना और क्या त्यागना है, इसके लिए व्यक्ति और समाज की प्रगति को ही आधार बनाना होगा-
पश्चिम का अंधानुकरण करने की कोई जरूरत नहीं है, पर पश्चिम के विरोध के नाम पर मध्यकाल में तिरस्कृत मूल्यों को भी अपनाने की जरूरत नहीं है। 1997 ई० में धर्मवीर भारती जी का देहावसान हो गया।
रचनाएँ
कहानी, निबंध, एकांकी, उपन्यास, नाटक, आलोचना, संपादन व काव्य सृजन के क्षेत्र में इन्होंने अपनी विलक्षण सृजन-प्रतिभा का परिचय दिया। वस्तुतः साहित्य की जिस विधा का भी इन्होंने स्पर्श किया, वही विधा इनका स्पर्श पाकर धन्य हो गई। ‘गुनाहों का देवता’ जैसा सशक्त उपन्यास लिखकर ये अमर हो गए। डॉ० धर्मवीर भारती ने विविध विधाओं में साहित्य रचना की है, उनकी कृतियाँ इस प्रकार हैं-
(अ) उपन्यास – सूरज का सातवाँ घोड़ा, गुनाहों का देवता
(ब) काव्य – कनुप्रिया, सात गीत-वर्ष, अंधा युग, ठंडा लोहा
(स) कहानी संग्रह – मुर्दो का गाँव, स्वर्ग और पृथ्वी, चाँद और टूटे हुए लोग
(द) नाटक और एकांकी – ‘नदी प्यासी थी’ इनका प्रसिद्ध नाटक है। “नीली झील’ संग्रह में इनके एकांकी संकलित हैं।
(य) निबंध-संग्रह – कही-अनकही, ठेले पर हिमालय, पश्यंती
(र) आलोचना – मानव-मूल्य, साहित्य इन रचनाओं के अतिरिक्त इन्होंने विश्व की कुछ प्रसिद्ध भाषाओं की कविताओं के अनुवाद भी किए हैं। यह संग्रह ‘देशांतर’ नाम से प्रकाशित हुआ है।
साहित्यिक – परिचय
भारती जी की दृष्टि में वर्तमान को सुधारने और भविष्य को सुखमय बनाने के लिए आम जनता के दुख दर्द को समझने और उसे दूर करने की आवश्यकता है। दुःख तो उन्हें इस बात का है कि आज ‘जनतंत्र’ में ‘तंत्र’ शक्तिशाली लोगों के हाथों में चला गया है और ‘जन’ की और किसी का ध्यान ही नहीं है। अपनी रचनाओं के माध्यम से इसी जन की आशाओं, आकांक्षाओं, विवशताओं, कष्टों को अभिव्यक्ति देने का प्रयास उन्होंने किया है।
भारती जी ने सामाजिक विषमताओं पर अपनी लेखनी से तीखे प्रहार किए और आधुनिक भारतीय समाज के यथार्थ रूप को अनावृत करके रख दिया। इनका एक कवि, नाटककार, कथाकार, निबंधकार और पत्रकार के रूप में हिंदी-गद्य साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान है। गद्य साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों के साथ ही नई कविता क्षेत्र को भी समृद्ध करने वाले डॉ. धर्मवीर भारती का साहित्य जगत सदैव ऋणी रहेगा।
भाषा-शैली
भारती जी की भाषा प्रवाहपूर्ण, सशक्त और प्रौढ़ है। इनकी रचनाओं में परिष्कृत और परिमार्जित भाषा का प्रयोग मिलता है। इनकी भाषा में सरलता, सहजता, सजीवता और आत्मीयता का पुट है तथा देशज, तत्सम और तद्भव सभी प्रकार के शब्दों के प्रयोग हुए हैं। मुहावरों तथा कहावतों के प्रयोग से भाषा में गति और बोधगम्यता आ गई है। विषय और विचार के अनुकूल भारती जी की रचनाओं में भिन्न-भिन्न प्रकार की शैलियों का प्रयोग हुआ है।
(अ) भावात्मक शैली – भारती जी मूलतः कवि थे। अत: इनका कवि-हृदय इनकी गद्य रचनाओं में भी मुखर हुआ है। ऐसे स्थलों पर इनकी शैली भावात्मक हो गई है।
(ब) समीक्षात्मक शैली – अपनी आलोचनात्मक रचनाओं में भारती जी ने समीक्षात्मक शैली का प्रयोग किया है। इस शैली में गंभीरता है और भाषा तत्समप्रधान है।
(स) चित्रात्मक शैली – भारती जी शब्दचित्र अंकित करने में विशेष दक्ष हैं। जहाँ इन्होंने घटनाओं और व्यक्तियों के शब्दचित्र अंकित किए हैं, वहाँ इनकी शैली चित्रात्मक हो गई है।
(द) वर्णनात्मक शैली – जहाँ घटनाओं, वस्तुओं या स्थानों का वर्णन हुआ है, वहाँ इनकी वर्णनात्मक शैली के दर्शन होते हैं।
(य) व्यंग्यपूर्ण प्रतीकात्मक शैली – भारती जी ने अपनी रचनाओं में यथास्थान हास्य और व्यंग्य का भी प्रयोग किया है। ऐसे स्थलों पर इनकी शैली में प्रतीकात्मकता आ गई है। लिरिता पालरा’त का मार्गाने
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