भारतीय संविधान की प्रकृति की विवेचना कीजिए

भारतीय संविधान की प्रकृति की विवेचना कीजिए | Discuss the nature of Indian Constitution

भारतीय संविधान की प्रकृति की विवेचना कीजिए | Discuss the nature of Indian Constitution : भारतीय संविधान की प्रकृति और मुख्य विशेषताएं, भारतीय संविधान की क्या विशेषताएं हैं?, भारतीय संविधान की सबसे बड़ी विशेषता क्या है?, निम्नलिखित में से कौन हमारे संविधान की विशेषता नहींहै?, संविधान की प्रकृति क्या है?, भारतीय संविधान के लेखक कौन है?, संविधान में कितने आर्टिकल हैं?, भारतीय संविधान का स्वरूप क्या है?, परिसंघीय संविधान क्या है?, एक संघीय राजव्यवस्था की मुख्य विशेषतायें क्या हैं?, भारत की संविधान सभा के अध्यक्ष कौन थे?

भारतीय संविधान की प्रकृति की विवेचना कीजिए | Discuss the nature of Indian Constitution

संविधान की प्रकृति

संविधान की प्रकृति के संबंध् में विधिशास्त्रियों के मतों में परस्पर विभेद रहा है। डॉ अम्बेडकर का कथन है कि ‘‘यद्यपि संविधान में ऐसे प्रावधन शामिल है जो केंद्र को ऐसी शक्ति प्रदान करते हैं, जिससे राज्यों की स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है, फिर भी वह संघात्मक संविधन है।’’

प्रोफेसर ह्नियर एवं प्रोफेसर जेनिंग्स भारतीय संविधन को संघीय संविधन नहीं मानते हैं। किसी भी संविधन के दो रूप होते हैं- संघात्मक संविधन तथा एकात्मक संविधन।

संघात्मक संविधन वह संविधन होता है, जिसमें शक्तियां केंद्र और राज्यों के मध्य बंटी हुई होती है। केंद्र और राज्य दोनों स्वतंत्र इकाईयों के रूप में कार्य करते हैं, जबकि एकात्मक संविधन में सारी शक्तियां केंद्रीय सरकार में ही निहित होती हैं।

भारतीय संविधान में संघात्मक शासन प्रणाली को अपनाया गया है, जिसमें केंद्र और राज्यों के मध्य शक्तियों का विभाजन रहता है, परंतु कुछ विधिवेत्ता भारतीय संविधान को एकात्मक संविधान मानते हैं। संविधान संघात्मक है या एकात्मक इसके लिए दोनों के आवश्यक तत्वों को जानना जरूरी है।

संघात्मक संविधान के आवश्यक तत्व

संघात्मक संविधान के निम्नलिखित आवश्यक तत्व होते हैं-

  1. संविधान की सर्वोच्चता
  2. शक्तियों का विभाजन
  3. लिखित संविधान
  4. संविधान का अपरिवर्तनशील होना
  5. स्वतंत्र न्यायपालिका
  6. संविधन की सर्वोच्चता-

संघात्मक संविधान में संविधान को सर्वोच्च विधि् माना जाता है, क्योंकि संविधान ही कार्यपालिका न्यायपालिका और विधयिका का स्रोत है। भारतीय संविधान में संघात्मक संविधान का तत्व विद्यमान है।

  1. शक्तियों का विभाजन-

प्रो. ह्नियर के संघीय सिद्धांत के अनुसार संघ और राज्यों के मध्य शक्तियों का विभाजन होता है तथा वह इस प्रकार से किया जाता है कि उनमें से प्रत्येक अपने अपने क्षेत्र में स्वतंत्रता पूर्वक कार्य कर सके तथा वे एक दूसरे के सहयोगी हो न कि एक दूसरे के अधीन।

भारत का संविधन केंद्र और राज्यों की शक्तियों को विभाजित करता है तथा विभाजन इस प्रकार होता है कि प्रत्येक स्वतंत्र रूप से एक दूसरे के सहयोगी के रूप में कार्य करती है। इसलिए संविधन में 3 सूचियां है।

  1. संघ सूची– इस बार विधि् बनाने का कार्य केंद्र सरकार विधि बना सकती है।
  2. समवर्ती सूची– इसमें वर्णित विषयों पर केंद्र और राज्य दोनों विधि् बना सकते हैं।
  3. लिखित संविधन-

संघात्मक संविधन लिखित होता है, क्योंकि केंद्र और राज्यों के मध्य शक्तियों का जो विभाजन होता है, उसे स्पष्ट होना चाहिए तथा यह स्पष्ट रूप से लिखित संविधान द्वारा ही संभव है। भारतीय संविधन में संघात्मक संविधान का यह तत्व भी पाया जाता है।

  1. संविधान का अपरिवर्तनशील होना-

संघात्मक संविधान अपरिवर्तनशील होता है तथा उसमें संशोध्न की प्रक्रिया कठिन होती है। परंतु अपरिवर्तनशीलता का अर्थ यह नहीं है कि उसमें समय एवं परिस्थितियों के अनुसार संशोधन न किया जा सके।

अपरिवर्तनशीलता या अनम्यता का तात्पर्य है कि ऐसा संविधान जिसमें समय एवं परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन किया जा सके। भारतीय संविधान में संघात्मक संविधान का यह तत्व भी शामिल है, क्योंकि भारतीय संविधान संशोधन की दृष्टि से न ज्यादा नम्य है और न ही ज्यादा अनम्य। ए. डी. एम. जबलपुर वाद में ;1969 सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था, कि संविधान एक गतिशील दस्तावेज है जिसमें समय, देशकाल, जरूरत के हिसाब से आवश्यक परिवर्तन किये जा सकते हैं।

  1. स्वतंत्र न्यायपालिका-

संघात्मक संविधान में संविधन सर्वोच्च होता है तथा केंद्र और राज्यों के मध्य शक्तियों का विभाजन होता है। केंद्र और राज्य एक दूसरे के अध्किर क्षेत्र की सीमा का उल्लंघन न करे इसके लिए स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता होती है। संविधन इस उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था करता है।

एकात्मक संविधान के आवश्यक तत्व

एकात्मक संविधान के निम्नलिखित आवश्यक तत्व है-

  1. राष्ट्र हित में राज्य सूची में वर्णित विषयों पर संसद की विधि् बनाने की शक्ति
  2. नवीन राज्यों के निर्माण तथा वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं एवं नामों में परिवर्तन की संसद की शक्ति
  3. आपात कालीन उपबंध्
  4. राज्यपाल की नियुक्ति
  5. राष्ट्रहित में राज्यसूची में वर्णित विषयों पर संसद की विधि् बनाने की शक्ति- अनुच्छेद249 के अनुसार यदि राज्यसभा अपने सदस्यों के दो तिहाई बहुमत द्वारा यह घोषित कर दे कि राष्ट्रहित में यह आवश्यक है कि संसद राज्यसूची में वर्णित किसी विषय पर विधि् बनाये तो संसद उस विषय पर विधि् बना सकती है। यदि समवर्ती सूची में वर्णित किसी विषय पर केंद्र और राज्य दोनों विधि् बनाते हैं तो केंद्र द्वारा बनायी गयी विधि् मान्य होगी। यह भारतीय संविधन का एकात्मक तत्व है।
  6. नये राज्यों के निर्माण तथा वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं एवं नामों में परिवर्तन की संसद की शक्ति- संविधन का अनुच्छेद3 संसद को नये राज्यों के निर्माण तथा वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं एवं नामों में परिवर्तन की शक्ति देता है। इस उपबंध् से यह प्रतीत होता है कि राज्यों का अस्तित्व ही केंद्र की इच्छा पर निर्भर है। यह संविधान का एकात्मक तत्व है।
  7. आपात कालीन उपबंध्- संविधान के अनुच्छेद352, 356 और 360 निम्न परिस्थितियों में आपात कालीन घोषणा की शक्ति प्रदान करता है।
  8. युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्रा विद्रोह के कारण देश की सुरक्षा को खतरा होने पर अनुच्छेद352
  9. किसी राज्य में संवैधानिक तंत्र के विफल होने पर; अनुच्छेद356
  10. देश या इसका कोई भाग वित्तीय संकट में हो; अनुच्छेद360 यह संविधान का एकात्मक तत्व है।
  11. राज्यपाल की नियुक्ति– अनुच्छेद155 के अधीन राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है तथा वह राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यंत ही अपने पद पर बना रह सकता है। वह राज्य विधायिका के प्रति नहीं बल्कि राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होता है। संविधन की यह व्यवस्था संघीय व्यवस्था के विरूद्ध है। यह संविधान का एकात्मक तत्व है। अतः यह कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान एकात्मक एवं संघात्मक संविधानों का अनोखा मिश्रण है।

भारतीय संविधान की विशेषताएं

भारत का संविधान आंशिक रूप से 26 नवंबर 1949 और पूर्ण् रूप से 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। विश्व के अन्य संविधानों की तरह भारतीय संविधान की भी अपनी विशेषताएं हैं, जो निम्नलिखित हैं-

  1. विशालतम संविधान
  2. संसदीय शासन प्रणाली
  3. प्रभुत्व संपन्न, लोकतंत्रात्मक पंथ निरपेक्ष, समाजवादी गणराज्य की स्थापना
  4. कठोरता एवं लचीलेपन का समन्वय
  5. मूल अधिकार
  6. राज्य के नीति निदेशक तत्व
  7. मूल कर्तव्य
  8. स्वतंत्र न्याय पालिका
  9. वयस्क मताधिकार
  10. पंथ निरपेक्ष राज्य की घोषणा
  11. एकल नागरिकता
  12. आपात काल में संविधान का एकात्मक रूप
  13. न्यायिक पुनर्विलोकन

 

  1. विशालतम संविधान-

भारतीय संविधान विश्व का सर्वाध्कि विस्तृत संविधान है। मूल संविधान 22 भागों में विभाजित तथा 395 अनुच्छेद एवं 9 अनुसूचियां थी। वर्तमान संविधान में 446 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियां हैं, जो 26 भागों में विभाजित है, संविधान के अध्कितर उपबंधें को भारत शासन अध्नियम 1935 से स्वीकार करने के कारण संविधान के आकार में वृदधि हो गयी है। इसी कारण सर आइवर जेनिंग्स ने भारतीय संविधान को विश्व का सबसे बड़ा और विस्तृत संविधान कहा है।

  1. संसदीय शासन प्रणाली-

संसदीय शासन प्रणाली संविधान की एक प्रमुख विशेषता है। भारत में ब्रिटिश संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है। संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है। संसदीय शासन प्रणाली में यद्यपि राष्ट्रपति कार्यपालिका का प्रधन होता है। परंतु वास्तविक सत्ता मंत्रिपरिषद के हाथ में रहती है, जिसका प्रधन प्रधनमंत्री होता है। मंत्रिपरिषद के सदस्य जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि् होते हैं और सामूहिक रूप से संसद के प्रति उत्तरदायी होता है।

  1. प्रभुत्व संपन्नलोकतंत्रात्मक पंथनिरपेक्ष समाजवादी गणराज्य की स्थापना-

प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक पंथ निरपेक्ष समाजवादी गणराज्य शब्द का वर्णन उद्देशिका में किया गया है, जिसका तात्पर्य है भारत पूर्ण रूप से स्वतंत्र एवं वाह्य नीतियों को स्वयं निर्धरित करता है। प्रभुता भारत की जनता में निहित है।

लोकतंत्र का अर्थ है जनता का शासन अर्थात ऐसी सरकार जो जनता के लिए हो तथा जनता द्वारा चुनी गयी हो। पंथ निरपेक्ष का आशय किसी विशेष धर्म को बढ़ावा न देकर सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करना।

42वें संशोधन द्वारा उद्देशिका में जोड़ा गया।

समाजवाद शब्द को 42वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया।

गणराज्य का तात्पर्य ऐसे राज्य से है, जहां राष्ट्राध्यक्ष वंशानुगत न होकर जनता द्वारा एक निश्चित अवधि् के लिए चुना जाता है।

  1. कठोरता एवं लचीलेपन का समन्वय-

संशोधन की सरल या कठिन प्रक्रिया के कारण संविधान को कठोर अथवा लचीला कहा जा सकता है। संघीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया कठिन होती है। एक अच्छे संविधान के लिए यह आवश्यक है कि वह संशोधन की दृष्टि से न तो बहुत अध्कि कठोर हो और न ही बहुत अध्कि लचीला।

भारतीय संविधन कठोरता एवं लचीलेपन का एक अच्छा उदाहरण है। अधिकतर अनुच्छेद ऐसे है जिनमें साधरण बहुमत से परिवर्तन किया जा सकता है। केवल कुछ ही अनुच्छेद ऐसे है, जिसमें संशोधन के लिए विशेष बहुमत एवं राज्यों की सहमति की आवश्यकता होती है।

  1. मूल अध्किर-

संविधन के भाग 3 में मूल अधिकारों का वर्णन है। संविधन राज्य को ऐसी विधियां के निर्माण का निषेध् करता है जो नागरिकों के मूल अधिकारों को कम करती हैं। मूल अधिकारों की सुरक्षा की जिम्मेदारी उच्चतम न्यायालय की है। इन अध्किरों के अतिक्रमण पर वह बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध्, उत्प्रेषण, अध्किर पृच्छा आदि रिटें जारी कर सकता है। मूल अधिकार आत्यंतिक नहीं है। सार्वजनिक हित में इस पर निर्बंधन लगाये जा सकते हैं।

  1. नीति निदेशक तत्व-

भारतीय संविधन में कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए नीति निदेशक तत्वों का उपबंध् किया गया है, जो संविधन के भाग 4 में वर्णित है। 26वें और 42वें संविधन संशोध्न द्वारा राज्य के नीति निदेशक तत्वों के महत्व को बढ़ाया गया है। नीति निदेशक तत्वों को लागू करने वाली विधि् को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती, चाहे भले ही ऐसी विधि् अनुच्छेद 14 और 19 में वर्णित मूल अधिकारों का अतिक्रमण करती है।

  1. मूल कर्तव्य-

संविधान में नागरिकों के 10 मूल कर्तव्यों की घोषणा की गयी है। ये मूल संविधान में नहीं थे। इन्हें 42वें संविधान संशोधन द्वारा एक नया भाग 4क जोड़ कर स्थापित किया गया है। वर्तमान में मूल कर्तव्यों की संख्या 11 है।

  1. स्वतंत्र न्यायपालिका-

भारतीय संविधान स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था करता है। यह कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका से अलग है। अन्य देशों के संघात्मक संविधान की तरह भारतीय संविधान में दोहरी राज्य प्रणाली की व्यवस्था नहीं है। भारत का सबसे बड़ा न्यायालय उच्चतम न्यायालय है, जिसके निर्णय समस्त न्यायालयों पर बाध्यकारी हैं यह संविधान की व्याख्या करती है। केंद्र और राज्यों के बीच विवादों का निपटारा करती है तथा यह मूल अध्किरों की संरक्षक है।

  1. वयस्क मताधिकार-

भारतीय संविधन में 18 वर्ष से उपर की आयु के प्रत्येक व्यक्ति को मत देने का अध्किर प्रदान किया गया है।

  1. पंथ निरपेक्ष राज्य की घोषणा-

भारतीय संविधन में भारत को पंथनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है। पंथनिरपेक्ष का अर्थ है राज्य का कोई विशेष धर्म नहीं होगा। सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार किया जायेगा। राज्य किसी धर्म को न तो प्रोत्साहन देगा तथा न ही हतोत्साहित करेगा। सार्वजनिक हित में इस पर निर्बन्धन लगाया जा सकता है।

  1. एकल नागरिकता-

प्रायः संघात्मक संविधनों में दोहरी नागरिकता की व्यवस्था होती है। किंतु भारतीय संविधान एकल नागरिकता की व्यवस्था करता है।

  1. आपातकाल में संविधान का एकात्मक स्वरूप-

संविधन केंद्र और राज्यों में अलग-अलग सरकारों का उपबंध् करता है। परंतु जब आपात उद्घोषणा की जाती है तब राज्य का शासन केंद्रीय सरकार के अधीन हो जाता है। तब केंद्र को राज्यसूची के विषय पर विधि् बनाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।

  1. न्यायिक पुनर्विलोकन-

संविधान में न्यायिक पुनर्विलोकन संविधान का आधरभूत ढांचा है। न्यायिक पुनर्विलोकन द्वारा न्यायालय किसी भी ऐसी विधि् को लागू करने से इंकार कर सकते हैं, जो संविधन के उपबंधें के विरूद्ध हो। विधयी कार्यों के न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति का उपबंध् अनुच्छेद 13, 32, 131, 136, 226, 246 में किया गया है। न्यायिक पुनर्विलोकन का सिद्धांत सर्वप्रथम अमेरिका के उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित किया गया।

दोस्तों हमें कमेन्ट के ज़रिए बतायें कि आपको भारतीय संविधान की प्रकृति की विवेचना कीजिए आर्टिकल कैसा लगायदि अच्छा लगा हो तो आप इसे सोशल मीडिया पर अवश्य शेयर करेंयदि इससे सम्बंधित कोई प्रश्न हो तो नीचे कमेन्ट करके हमसे पूछ सकते है धन्यबाद !

इसे भी पढ़ें : बच्चों के लिए नए देशभक्ति गीत

Leave a Comment

close