फीचर लेखन क्या है?

फीचर लेखन क्या है?

फीचर लेखन क्या है? : समकालीन घटना या किसी भी क्षेत्र विशेष की विशिष्ट जानकारी के सचित्र तथा मोहक विवरण को फ़ीचर कहा जाता है। इसमें तथ्यों को मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। इसके संवादों में गहराई होती है। यह सुव्यवस्थित, सृजनात्मक रचना है जिसका उद्देश्य पाठकों को जानकारी देने के साथ साथ उनका मनोरंजन करना होता है।

फीचर लेखन क्या है?

फ़ीचर में विस्तार की अपेक्षा होती है। इसकी अपनी एक अलग शैली होती है। एक विषय पर लिखा गया फ़ीचर प्रस्तुति विविधता के कारण अलग अंदाज प्रस्तुत करता है। इसमें भूत, वर्तमान तथा भविष्य का समावेश हो सकता है। इसमें तथ्य, कथन व कल्पना का उपयोग किया जा सकता है। फ़ीचर में आँकड़े, फोटो, कार्टून, चार्ट, नक्शे आदि का उपयोग उसे रोचक बना देता है।

फीचर व समाचार में अंतर

  1. फ़ीचर में लेखक के पास अपनी राय या दृष्टिकोण और भावनाएँ जाहिर करने का अवसर होता है। जबकि समाचार-लेखन में वस्तुनिष्ठता और तथ्यों की शुद्धता पर जोर दिया जाता है।
  2. फ़ीचर-लेखन में उलटा पिरामिड शैली का प्रयोग नहीं होता। इसकी शैली कथात्मक होती है।
  3. फ़ीचर-लेखन की भाषा सरल, रूपात्मक व आकर्षक होती है, परंतु समाचार की भाषा में सपाटबयानी होती है।
  4. फ़ीचर में शब्दों की अधिकतम सीमा नहीं होती। ये आमतौर पर 200 शब्दों से लेकर 250 शब्दों तक के होते हैं, जबकि समाचारों पर शब्द-सीमा लागू होती है।
  5. फ़ीचर का विषय कुछ भी हो सकता है, समाचार का नहीं।

फ़ीचर के प्रकार

फ़ीचर के प्रकार निम्नलिखित हैं

  1. समाचार फीचर
  2. घटनापरक फीचर
  3. व्यक्तिपरक फीचर
  4. लोकाभिरुचि फ़ीचर
  5. सांस्कृतिक फ़ीचर
  6. साहित्यिक प्रफीचर
  7. विश्लेषण प्रफीचर
  8. विज्ञान फ़ीचर।

फीचर-लेखन संबंधी मुख्य बातें

  1. फ़ीचर को सजीव बनाने के लिए उसमें उस विषय से जुड़े लोगों की मौजूदगी जरूरी होती है।
  2. फ़ीचर के कथ्य को पात्रों के माध्यम से बताना चाहिए।
  3. कहानी को बताने का अंदाज ऐसा हो कि पाठक यह महसूस करें कि वे घटनाओं को खुद देख और सुन रहे हैं।
  4. फ़ीचर मनोरंजक व सूचनात्मक होना चाहिए।
  5. फ़ीचर शोध रिपोर्ट नहीं है।
  6. इसे किसी बैठक या सभा के कार्यवाही विवरण की तरह नहीं लिखा जाना चाहिए।
  7. फ़ीचर का कोई-न-कोई उद्देश्य होना चाहिए। उस उद्देश्य के इर्द-गिर्द सभी प्रासंगिक सूचनाएँ तथ्य और विचार गुंथे होने चाहिए।
  8. फ़ीचर तथ्यों, सूचनाओं और विचारों पर आधारित कथात्मक विवरण और विश्लेषण होता है।
  9. फ़ीचर-लेखन का कोई निश्चित ढाँचा या फ़ॉर्मूला नहीं होता। इसे कहीं से भी अर्थात प्रारंभ, मध्य या अंत से शुरू किया जा सकता है।
  10. फ़ीचर का हर पैराग्राफ अपने पहले के पैराग्राफ से सहज तरीके से जुड़ा होना चाहिए तथा उनमें प्रारंभ से अंत तक प्रवाह व गति रहनी चाहिए।
  11. पैराग्राफ छोटे होने चाहिए तथा एक पैराग्राफ में एक पहलू पर ही फोकस करना चाहिए।

उदाहरण

कुछ महत्वपूर्ण विषयों पर फीचर दिए जा रहे हैं, इन्हें पढ़कर समझिए।

1. आदत, जो छूटती नहीं ….

बार-बार एक ही शब्द दोहराने की आदत आपको मुश्किल में भी डाल सकती है। खुद पर विश्वास और दृढ़ निश्चय हो तो आप इससे छुटकारा पाने में सफल हो सकते हैं। तकिया कलाम यानी सखुन तकिया। सोते समय सिर को आराम देने के लिए जैसे तकिया का सहारा लिया जाता है, उसी प्रकार अपने कथन या उक्ति को जोर देने के लिए ‘आपकी कृपा …….आपकी कृपा’, ‘यानी कि ………..यानी कि’, ‘है ना ’ है ना’ शब्द विशेष का सहारा लिया जाता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि तकिया कलाम हकलाने या तुतलाने जैसा ही एक रोग है। कुछ लोग निश्चित अवस्था तक सुधर जाते हैं और जो नहीं सुधरते, वे उसके रोगी हो जाते हैं। लंदन के मनोवैज्ञानिक डॉ० बुच मानते हैं कि तकिया कलाम एक प्रकार का इ०सी०ए० है, यानी एक्स्ट्रा केरिक्यूलर एक्शन है। इस इस कुक करता होता हैऔ वाक्टुता बात है तिकया कहामक बेल प्रयोग सायक बाद व बारता करना भी है।

दृढ़ निश्चय से निजात

इस आदत को खुद से दूर करने के लिए आप में दृढ़ निश्चय का भाव होना बेहद जरूरी है। सबसे पहले अपने संवाद को तौलें कि आप कब-कब और किन परिस्थितियों में तकिया कलाम का प्रयोग करते हैं। स्थितियाँ चिहनित कर लेने के बाद आपको तकिया कलाम से बचना है। साथ ही ‘कम बोलो-सार्थक बोली’ के नियम का अनुसरण भी करना होगा। धीरे-धीरे जब आम बोलचाल में आप तकिया कलाम के इस्तेमाल में कोताही बरतेंगे, तो खुद-ब-खुद आपकी आदत बदल जाएगी। लेकिन सकारात्मक परिणामों के लिए आपका दृढ़-निश्चयी होना बेहद जरूरी है। कोशिश करें, यह इतना मुश्किल भी नहीं, जितना आप समझ रहे हैं।

तकिया कलाम के इस्तेमाल से आपको कई बार विपरीत और हास्यास्पद परिस्थितियों का भी सामना करना पड़ सकता है, इसलिए बेहतर होगा कि दूसरों के टोकने या खुद मजाक बनने से पहले आप खुद अपने स्वभाव को बदल लें।

2. बिना प्यास के भी पिएँ पानी

सर्दी के मौसम में वैसे तो सब कुछ हजम हो जाता है, इसलिए जो मर्जी खाएँ। इसके अलावा सर्दी के मौसम में पानी पीना शरीर के लिए बहुत जरूरी होता है। गर्मी के दिनों में तो बार-बार प्यास लगने पर व्यक्ति पर्याप्त मात्रा में पानी पी लेता है, लेकिन सर्दी के मौसम में वह इस चीज को नजरअंदाज कर देता है। ऐसा नहीं होना चाहिए क्योंकि मौसम चाहे सर्दी का हो या फिर गर्मी का, शरीर को पानी की जरूरत होती है। जब तक शरीर को पानी पर्याप्त मात्रा में नहीं मिलेगा, तब तक शरीर का विकास भी सही तरीके से नहीं हो पाएगा।

माना कि सर्दी में प्यास नहीं लगती, लेकिन हमें बिना प्यास के भी पानी पीना चाहिए। पानी पीने से एक तो शरीर की अंदर से सफ़ाई होती रहती है। इसके अलावा पथरी की शिकायत भी अधिक पानी पीने से दूर हो जाती है। पानी पीने से शरीर की पाचन-शक्ति भी सही बनी रहती है तथा पाचन-रसों का स्राव भी जरूरत के अनुसार होता रहता है। बिना पानी के शरीर अंदर से सूखा हो जाता है, जिससे शारीरिक क्रियाओं में व्यवधान उत्पन्न हो जाता है। विज्ञान में पानी को हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन का मिश्रण माना गया है और अॉक्सीजन हमारे जीवन के लिए सबसे जरूरी गैस है। इसी वजह से पानी को भी शरीर के लिए जरूरी माना गया है, चाहे सर्दी हो या फिर गर्मी।

3. अच्छे काम पर बच्चों को करें एप्रिशिएट

हर कोई गलतियों से सबक लेता है। जब गलती ही अच्छे कार्य के लिए प्रेरित करती है तो बच्चों को भी गलती करने पर दुबारा अच्छे कार्य के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। अच्छा काम करने पर बच्चों को यानी प्रोत्साहित करना जरूरी है, जब हम बच्चों को प्रोत्साहित करेंगे तो वे आगे भी बेहतर करने को उत्सुक होंगे।

लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल के चाइल्ड स्पेशलिस्ट डॉ० तनुज के मुताबिक आम तौर पर दो वर्ष के बच्चे का 90 प्रतिशत दिमाग सीखने-समझने के लिए तैयार हो जाता है और पाँच वर्ष तक वह पूर्ण रूप से सीखने, बोलने लायक हो जाता है। यही वह उम्र होती है, जब बच्चा तेजी से सीखता है। ऐसे में माहौल भी इस तरह का हो कि बच्चा अच्छा सीखे। गलती करने पर यदि प्यार से समझाया जाए तो वह उसे समझेगा। उसे गलत करने पर टोकना जरूरी हो जाता है। वरना वह गलती को दोहराता रहेगा। बच्चों को बेहतर करने के लिए प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।

डॉ० तनुज कहते हैं कि बच्चों को यह नहीं पता होता कि वे जो कर रहे हैं, वह सही है या गलत। उसे बताया जाए कि जो उसने किया है, वह गलत है, क्योंकि जब तक बच्चों को बताया नहीं जाएगा, उन्हें गलती के बारे में पता नहीं चलेगा। यदि एक बार उसकी गलती के विषय में उसे बताते हैं तो वह दुबारा वही गलती नहीं करेगा। बच्चों के साथ हमारा व्यवहार वैसा ही हो, जैसा हम खुद के लिए अपेक्षा करते हैं। बच्चों को प्यार-दुलार की ज्यादा जरूरत होती है।

4. बच्चों में आत्मविश्वास

सफलता के लिए आत्मविश्वास बहुत जरूरी है। आत्मविश्वास से भरपूर बच्चे किसी भी मुश्किल का सामना बड़ी आसानी से कर लेते हैं, लेकिन ज्यादातर बच्चों में आत्मविश्वास की कमी होती है। ऐसे बच्चे अपने कामों के लिए अपने मम्मी-पापा पर ही निर्भर रहते हैं। हर कदम बढ़ाने के लिए उन्हें मम्मी-पापा के सहारे की जरूरत होती है। बड़े होने पर ऐसे बच्चों को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता है। लेकिन अगर शुरुआत से ही ध्यान दिया जाए तो बच्चों को आत्मविश्वासी बनाया जा सकता है।

छोटे-छोटे फैसले खुद करने दें

आत्मविश्वास कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे किसी परीक्षा में पास करके हासिल कर लिया जाए। आत्मविश्वास खुद फैसले लेने से आता है। अगर हम बच्चों को खुद कोई फैसला लेने ही नहीं देंगे तो उनमें आत्मविश्वास कभी नहीं आ पाएगा। हमें चाहिए कि बच्चों को छोटे-छोटे फैसले खुद लेने दें, लेकिन साथ ही उन पर नजर भी रखें। जहाँ उनसे गलती हो, वहाँ उन्हें सही मार्ग दिखाएँ। ऐसा करने से बच्चों में अपने फैसले खुद लेने की क्षमता तो आएगी ही, साथ ही उनमें आत्मविश्वास भी पैदा होगा।

विकसित करें आत्मविश्वास की भावना

बच्चों का मन बहुत कोमल होता है। अगर शुरुआत से ही उनमें आत्मविश्वास की भावना विकसित की जाए तो वे हर काम को बड़ी आसानी से कर सकते हैं। आत्मविश्वास से भरपूर बच्चों का बौद्धक और शारीरिक विकास भी अच्छा होता है।

दें खुलकर जीने की आजादी

बच्चों को खुलकर जीने दें। जब कोई पूरी स्वतंत्रता और अपनी मर्जी से जीता है और हालातों का सामना करता है तो उसमें आत्मविश्वास खुद-ब-खुद आ जाता है। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि बच्चों को मनमुताबिक कुछ भी करने दें। उनकी हरकतों पर पूरी नजर रखें और गलती करने पर उन्हें गलती का अहसास भी कराएँ।

5. बस्ते का बढ़ता बोझ

आज जिस किसी भी गली, मोहल्ले या चौराहे पर सुबह के समय देखिए, हर जगह छोटे-छोटे बच्चों के कंधों पर भारी बस्ते लदे हुए दिखाई देते हैं। कुछ बच्चों से बड़ा तो उनका बस्ता ही होता है। यह दृश्य देखकर आज की शिक्षा-व्यवस्था की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिहन लग जाता है। क्या शिक्षा-नीति के सूत्रधार बच्चों को किताबों के बोझ से लाद देना चाहते हैं।

वस्तुत: इस मामले पर खोजबीन की जाए तो इसके लिए समाज अधिक जिम्मेदार है। सरकारी स्कूलों में छोटी कक्षाओं में बहुत कम पुस्तकें होती हैं, परंतु निजी स्कूलों में बच्चों के सर्वागीण विकास के नाम पर बच्चों व उनके माता-पिता का शोषण किया जाता है। स्कूल गैर-जरूरी विषयों की पुस्तकें भी लगा देते हैं, ताकि वे अभिभावकों को यह बता सकें कि वे बच्चे को हर विषय में पारंगत कर रहे हैं, जिससे भविष्य में वह हर क्षेत्र में कमाल दिखाने में समर्थ होगा।

अभिभावक भी सुपरिणाम की चाह में यह बोझ झेल लेते हैं, परंतु इसके कारण बच्चे का बचपन समाप्त हो जाता है। वह हर समय पुस्तकों के ढेर में दबा रहता है। खेलने का समय उसे नहीं दिया जाता। अधिक बोझ के कारण उसका शारीरिक विकास भी कम होता है। छोटे-छोटे बच्चों के नाजुक कंधों पर लदे भारी-भारी बस्ते उनकी बेबसी को ही प्रकट करते हैं। इस अनचाहे बोझ का वजन विद्यार्थियों पर दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।

6. महानगर की ओर पलायन की समस्या

महानगर सपनों की तरह है। मनुष्य को ऐसा लगता है मानो स्वर्ग वहीं है। हर व्यक्ति ऐसे स्वर्ग की ओर खिचा चला आता है। चमक-दमक, आकाश छूती इमारतें, मनोरंजन आदि सब कुछ पा लेने की चाह में गाँव का सुदामा भी लालायित होकर चल पड़ता है, महानगर की ओर। आज महानगरों में भीड़ बढ़ रही है। हर ट्रेन, बस में आप यह देख सकते हैं। गाँव यहाँ तक कि कस्बे का व्यक्ति भी अपनी दरिद्रता समाप्त करने के ख्वाब लिए महानगरों की तरफ चल पड़ता है।

शिक्षा प्राप्त करने के बाद रोजगार के अधिकांश अवसर महानगरों में ही मिलते हैं। इस कारण गाँव व कस्बे से शिक्षित व्यक्ति शहरों की तरफ भाग रहा है। इस भाग-दौड़ में वह अपनों का साथ भी छोड़ने को तैयार हो जाता है। दूसरे, अच्छी चिकित्सा सुविधा, परिवहन के साधन, मनोरंजन के अनेक तरीके, बिजली-पानी की कमी न होना आदि अनेक आकर्षण महानगर की ओर पलायन को बढ़ा रहे हैं, जिससे महानगरों की व्यवस्था चरमराने लगी है।

यहाँ के साधन भी भीड़ के सामने बौने हो जाते हैं। महानगरों का जीवन एक ओर आकर्षित करता है तो दूसरी ओर यह अभिशाप से कम नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह कस्बों व गाँवों के विकास पर भी ध्यान दे। इन क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, रोजगार आदि की सुविधा होने पर महानगरों की ओर पलायन रुक सकता है।

7. फुटपाथ पर सोते लोग

महानगरों में सुबह सैर पर निकलिए, एक तरफ आप स्वास्थ्य-लाभ करेंगे तो दूसरी तरफ आपको फुटपाथ पर सोते हुए लोग नजर आएँगे। महानगर को विकास का आधार-स्तंभ माना जाता है, लेकिन वहीं पर मानव-मानव के बीच इतना अंतर है। यहाँ पर दो तरह के लोग हैं-एक उच्च वर्ग, जिसके पास उद्योग, सत्ता, धन है, जिससे वह हर सुख भोगता है। उसके पास बड़े-बड़े भवन हैं और यह वर्ग महानगर के जीवन-चक्र पर प्रभावी है।

दूसरा वर्ग वह है जो अमीर बनने की चाह में गाँव छोड़कर आता है तथा यहाँ आकर फुटपाथ पर सोने के लिए मजबूर हो जाता है। इसका कारण उसकी सीमित आर्थिक क्षमता है। महँगाई, गरीबी आदि के कारण इन लोगों को भोजन भी मुश्किल से नसीब होता है। घर इनके लिए एक सपना होता है। इस सपने को पूरा करने के चक्कर में यह वर्ग अकसर छला जाता है। सरकारी नीतियाँ भी इस विषमता के लिए दोषी हैं।

सरकार की तमाम योजनाएँ भ्रष्टाचार के मुँह में चली जाती हैं और गरीब सुविधाओं की बाट जोहता रहता है। वह गरीबी में पैदा होता है, गरीबी में पलता-बढ़ता है और गरीबी में ही मर जाता है। वह जीते-जी रूखी-सूखी खाकर पेट की आग जैसे-तैसे बुझा लेता है और फटे-पुराने कपड़ों से तन ढँक लेता है, पर उसके सिर पर छत नसीब नहीं हो पाती और वह फुटपाथ, पार्क या अन्य खुली जगहों पर सोने को विवश रहता है।

8. ‘आतंकवाद की समस्या’ या ‘आतंकवाद का धिनौना चेहरा’

सुबह अखबार खोलिए-कश्मीर में चार मरे, मुंबई में बम फटा-दो मरे, ट्रेन में विस्फोट। इन खबरों से भारत का आदमी सुबह-सुबह साक्षात्कार करता है। उसे लगता है कि देश में कहीं शांति नहीं है। न चाहते हुए भी वह आतंक के फ़ोबिया से ग्रस्त हो जाता है। आतंकवाद एक विश्वव्यापी समस्या बन गया है। यह क्रूरतापूर्ण नरसंहार का एक रूप है। आतंकवाद मुख्यत: 20वीं सदी की देन है तथा इसके उदय के अनेक कारण हैं।

कहीं यह एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के शोषण का परिणाम है तो कहीं यह विदेशी राष्ट्रों की करतूत है। कुछ विकसित देश धर्म के नाम पर अविकसित देशों में लड़ाई करवाते हैं। आतंकवाद की जड़ में अशिक्षा, बेरोजगारी, पिछड़ापन है। सरकार का ध्यान ऐसे क्षेत्रों की तरफ तभी जाता है, जब वहाँ हिंसक घटनाएँ शुरू हो जाती हैं। देश के कुछ राजनीतिक दल भी अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए आतंक के नाम पर दंगे करवाते रहते हैं। इस समस्या को सामूहिक प्रयासों से ही समाप्त किया जा सकता है।

आतंकवादी भय का माहौल पैदा करके अपने उद्देश्यों में सफल होते हैं। जनता को चाहिए कि वह ऐसे तत्वों का डटकर मुकाबला करे। आतंक से जुड़े व्यक्तियों के खिलाफ़ सख्त कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए। सरकार को भी आतंक-प्रभावित क्षेत्रों में विकास-योजनाएँ शुरू करनी चाहिए ताकि इन क्षेत्रों के युवक गरीबी के कारण गलत हाथों का खिलौना न बनें।

9. चुनावी वायदे

“अगर हम जीते तो बेरोजगारी भत्ता दो हजार रुपये होगा।”
“किसानों को बिजली मुफ़्त, पानी मुफ़्त।”
“बूढ़ों की पेंशन डबल।”

जब भी चुनाव आते हैं तो ऐसे नारों से दीवारें रैंग दी जाती हैं। अखबार हो, टी०वी० हो, रेडियो हो या अन्य कोई साधन, हर जगह मतदाताओं को अपनी तरफ खींचने के लिए चुनावी वायदे किए जाते हैं। भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहाँ हर पाँच वर्ष बाद चुनाव होते हैं तथा सरकार चुनने का कार्य संपन्न किया जाता है। चुनावी बिगुल बजते ही हर राजनीतिक दल अपनी नीतियों की घोषणा करता है। वह जनता को अनेक लोकलुभावने नारे देता है।

जगह-जगह रैलियाँ की जाती हैं। भाड़े की भीड़ से जनता को दिखाया जाता है कि उनके साथ जनसमर्थन बहुत ज्यादा है। उन्हें अपने-अपने क्षेत्र की समस्याओं का पता होता है। चुनाव-प्रचार के दौरान वे इन्हीं समस्याओं को मुद्दा बनाते हैं तथा सत्ता में आने के बाद इन्हें सुलझाने का वायदा करते हैं। चुनाव होने के बाद नेताओं को न जनता की याद आती है और न ही अपने वायदे की। फिर वे अपने कल्याण में जुट जाते हैं।

वस्तुत: चुनावी वायदे कागज के फूलों के समान हैं जो कभी खुशबू नहीं देते। ये केवल चुनाव जीतने के लिए किए जाते हैं। इनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता। अत: जनता को नेताओं के वायदों पर यकीन नहीं करना चाहिए और विवेक तथा देशहित के मद्देनजर अपने मत का प्रयोग करना चाहिए।

10. वैलेंटाइन डे : शहरी युवाओं का त्योहार

फरवरी माह की शुरुआत में ही मीडिया एक नए त्योहार को मनाने की तैयारी शुरू कर देता है। कंपनियाँ अपने उत्पादों में इस त्योहार के नाम पर छूट देनी शुरू कर देती हैं। यह सब प्रेम के नाम पर होता है। जी हाँ, यह त्योहार है-वैलेंटाइन डे। यह 14 फरवरी को मनाया जाता है। वैसे तो भारत में अनेक त्योहार मनाए जाते हैं; जैसे-होली, दीवाली, दशहरा, वैशाखी आदि।

इन सबके पीछे पौराणिक, धार्मिक व आर्थिक आधार होते हैं, परंतु वैलेंटाइन डे पूर्णत: विदेशी है। इसका भारतीय मिट्टी से कोई लेना-देना नहीं है। मीडिया के प्रचार-प्रसार से यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि यह भारत के गाँव-गाँव में मनाया जाने वाला त्योहार है। वस्तुत: यह शहरी त्योहार है। यहाँ के युवा इस दिन अपने प्यार का इजहार करते हैं। इस दिन युवा लड़के-लड़कियाँ अपने दोस्तों तथा प्रेमियों को कुछ-न-कुछ उपहार देकर अपने प्रेम का इजहार करते हैं। इस दिन के लिए बाजारों में तरह-तरह के उपहार व ग्रीटिंग कार्डस की भरमार देखी जा सकती है।

कुछ लोग इसे ‘फ्रेंडशिप डे’ भी कहते हैं। इस दिन युवा अपने मन की इच्छाएँ व्यक्त करने के लिए आतुर होता है। वैसे इस दिन अनेक आपराधिक घटनाएँ भी घटती हैं। अपने प्रेमी से उचित जवाब न मिलने पर तेजाब डालने या आत्महत्या करने जैसी खबरें अकसर सुनाई देती हैं। वैसे समाज में उन्हीं त्योहारों को मनाना चाहिए जो देश की मिट्टी तथा संस्कृति से जुड़े हों।

11. जंक फूड की समस्या

भोजन का स्वाद और स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। स्वादिष्ट भोजन देखते ही हमारी लार टपकने लगती है और हम अपने आपको रोक नहीं पाते। कई बार तो हम बिना भूख के भी खाने के लिए उतावले ही बैठते हैं। ऐसी स्थिति आने पर यह समझना चाहिए कि हम जाने-अनजाने व्यसन या भोजन के लालच का शिकार हो रहे हैं। आज इस उपभोक्तावादी युग में चारों ओर वातावरण ऐसा बना दिया गया है कि हम ललचाए बिना रह ही नहीं सकते। दुकानों पर टैंगे स्वादिष्ट चटपटे और कुरकुरे व्यंजन तथा खाद्य वस्तुएँ देखकर हमारे मुँह में पानी आना स्वाभाविक ही है।

हमारी भूख-प्यास को बढ़ाने में अभिनेत्रियों का योगदान भी कम नहीं है, जब वे यह कहती हुई ‘टेढ़ा है पर मेरा है’-कुरकुरे हमारी ओर बढ़ाती प्रतीत होती हैं; इसके अलावा सेवन अप, लिम्का, कोकाकोला आदि विज्ञापन हमें घर के भोजन से दूर करके अपनी ओर आकर्षित करते हैं; पिज्जा, बर्गर, नूडल, चाउमीन आदि के विज्ञापन हमारी भूख बढ़ा देते हैं तो हम उन्हें खरीदने के लिए बाध्य हो जाते हैं। अब तो विज्ञापन में बच्चे भी कहते दिखते हैं-‘खाने से डरता है क्या?”

यह सुनकर जंक फूड के प्रति हमारी झिझक दूर होती है और हम उनके नफ़े-नुकसान पर विचार किए बिना उनको अपने नाश्ते और भोजन के अलावा समय-असमय खाना शुरू कर देते हैं। जंक फूड के प्रति बच्चों और युवाओं की दीवानगी देखने लायक होती है। आप कहीं भी चले जाइए, चप्पे-चप्पे पर बर्गर, हॉट डॉग, सैंडविच, पैटीज, नूडल्स, कोल्ड ड्रिक, समोसे, चाउमीन, ढोकले आदि मिल जाएँगे।

इनमें छिपी उच्च कैलोरी की मात्रा बच्चों में मोटापा और आलस्य बढ़ाते हैं। डॉक्टर इन्हें स्वास्थ्य के लिए विष बताते हैं। योगगुरु रामदेव जैसे लोग इनका विरोध करते हैं, पर लोगों की समझ में यह बात आए तब न। मोटापा, मधुमेह, रक्तचाप हृदयाघात जैसी बीमारियों से यदि बचना है तो जंक फूड से तौबा करना ही पड़ेगा।

12. घरों में बढ़ती चोरी, हत्या आदि की घटनाओं पर फीचर

निरंतर बढ़ती जनसंख्या ने अनेक समस्याओं को जन्म दिया है। इनमें से एक है-समाज में अवांछित घटनाओं में वृद्ध। खाली-ठाली बैठे लोग अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए अनैतिक कार्यों में संलिप्त हो जाते हैं। इसी का परिणाम है-गाँव, शहर और महानगरों में चोरी, हत्या की घटनाओं में अप्रत्याशित वृद्ध।

महानगरों में ये घटनाएँ होनी आम बात हो गई हैं। शहरों में लोगों का एकल परिवार और वृद्धावस्था में अपनों से अलग रहने को विवश वृद्ध दंपति प्राय: इन घटनाओं का शिकार बनते रहते हैं। शहरों की बढ़ती जनसंख्या के कारण कानून-व्यवस्था उतनी चुस्त-दुरुस्त नहीं रह पाती, जितनी होनी चाहिए। इसका अनुचित फ़ायदा चोर-उचक्के, डकैत आदि उठाते हैं और चोरी-डकैती की घटनाओं को अंजाम देते हैं। इन घटनाओं का विरोध करने वालों को ये मार-पीटकर घायल कर देते हैं और हत्या तक कर देते हैं। इनके शिकार शहर के बड़े-बड़े व्यापारी और धनाढ्य लोग बनते हैं।

उनके बच्चों का अपहरण करके फिरौती राशि की माँग करना तथा उसकी पूर्ति न होने पर हत्या कर देना आम बात है। यद्यपि यहाँ पुलिस की तैनाती गाँवों की अपेक्षा अधिक होती है, पर पुलिस की निष्क्रियता देखकर लगता है कि अपराधियों और पुलिस में कोई साठ-गाँठ हो क्योंकि डकैत और हत्यारे अपना काम करके आसानी से चले जाते हैं। यद्यपि कुछ घटनाओं में पुलिस सफलता प्राप्त करती है, पर उनका प्रतिशत ‘न’ के बराबर है। इसके लिए सख्त कानून बनाकर उन्हें दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ लागू करवाकर पूरी निष्ठा और ईमानदारी से पालन करवाया जाना चाहिए।

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