जेंडर समानता में जाति की भूमिका Gender samanta mein jati ki bhumika
जेंडर समानता में जाति की भूमिका : जाति को एक अर्तविवाह वाले समूह अथवा ऐसे समूह के संकलन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसका एक सामान्य नाम तथा समाज परंपरागत व्यवसाय होता है। जो एक ही स्रोत से उत्पन्न होने का दावा करते हैं और सजातीय समुदाय का निर्माण करने वाले समझे जाते हैं।
लैंगिकता हेतु शिक्षा में जाति की भूमिका
जिस समाज में व्यक्ति का जन्म हुआ हो उसे ही चाहती कहते हैं। जैसे भारतीय समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तेली, लोहार, कुर्मी, धोबी आदि सभी जातियां कहलाती है।
जाति का अर्थ और परिभाषा
जाति क्या है इसके अर्थ को समझने के लिए दो बिंदुओं से समझा जा सकता है
१. शाब्दिक अर्थ
२. परिभाषा द्वारा
1. शाब्दिक अर्थ:-
जाति को आंग्ल भाषा में कास्ट(caste) कहा जाता है जिसका अर्थ होता है जाति जन्म या नस्ल।
इस प्रकार जाति से तात्पर्य है वंशानुक्रम पर आधारित एक विशेष सामाजिक समूह।
2. परिभाषा के द्वारा:-
परिभाषा के द्वारा विभिन्न विद्वानों ने जाति की परिभाषा दी है:-
सी.एच. फुले के अनुसार:- जब कोई वर्ग पूर्णता वंशानुगत हो जाता है तो उसे जाति कहते हैं।
ई.ए. ग्रेट के अनुसार:-
जाति को एक अर्तविवाह वाले समूह अथवा ऐसे समूह के संकलन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसका एक सामान्य नाम तथा समाज परंपरागत व्यवसाय होता है जो एक ही स्रोत से उत्पन्न होने का दावा करते हैं और सजातीय समुदाय का निर्माण करने वाले समझे जाते हैं।
उपर्युक्त परिभाषाओं द्वारा हम कह सकते हैं कि जाति व्यक्तियों का ऐसा समूह है जिस की सदस्यता जन्मजात और स्थायी होती है। समाज में जाति के आधार पर परंपराओं तथा व्यवसायियों का अनुसरण किया जाता है जिसके द्वारा समाज को विभिन्न स्तरों में बांटा जाता है।
जाति की विशेषता characteristics of caste
जाति की विभिन्न विशेषताएं हैं जो निम्नलिखित है-
1. सामाजिक स्तरीकरण
जाति की प्रमुख विशेषता है कि वह समाज को स्तरीकृत करने का कार्य करता है जिससे समास विभिन्न इकाइयों में बांट जाता है। शहर की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में ये स्तरीकरण देखने को मिलती है। शहर में कोई जाति पूछ कर बैठने या पानी पीने के लिए नहीं पहुंचता है परंतु गांव में इस प्रकार के भेदभाव देखने को ज्यादा मिलती है इस प्रकार जाति कथानीय के भेदभाव कर समाज का स्थानीयकरण करता है।
2. व्यवसायिक प्रतिबंध:-
जिस प्रकार जाति समाज को स्तरीकृत करने का कार्य करता है उसी प्रकार विभिन्न जातियां के व्यवसायियों को स्तरीयकृत किया जाता है किसी जाति विशेष के व्यवसाय भी सुनिश्चित होते हैं। वर्तमान समय में व्यवसायिक प्रतिबंध कम देखने को मिलते हैं परंतु ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी जाति विशेष अपने व्यवसाय को ही करते हैं।
3. नगरीकरण का प्रभाव:-
भारत की लगभग 70% जनता गांव में रहती है परंतु नगरीकरण के कारण गांव में रहने वाले शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं जिसके परिणाम स्वरूप विभिन्न जातियां के लोग साथ साथ कार्य कर रहे हैं तथा साथ साथ एक स्थान में निवास कर रहे हैं इससे जातिय व्यवस्था में कमी आई है। सभी जाति के लोग एक दूसरे के त्योहारों को मिलजुल कर मना रहे हैं। जिससे भी जातीय भेदभाव में कमी आई है।
4. यातायात एवं संचार के साधनों का प्रभाव:
वर्तमान समय में यातायात के साधनों का विकास हुआ है। जिससे सभी जातियों को लाभ हो रहा है। तथा जिसका प्रयोग सभी जाति के लोग कर रहे हैं जिससे जातीय भेदभाव में कमी आई है।
5. नवीन व्यवसायियों का जन्म:
अंग्रेजी सरकार ने अपने व्यापारिक चीजों को पूरा करने के लिए कारखाने लगाए थे जिससे नवीन उद्योग धंधों का विकास हुआ। इस प्रकार जाति के अंतर्गत जो व्यवसायिक प्रतिबंध था उनमें कमी आई। वर्तमान समय में शिक्षा का योग्यता के आधार पर कोई भी व्यक्ति किसी भी व्यवसाय को अपना सकता है। परंतु इससे परंपरागत व्यवसायियों को बहुत हानि पहुंच रही है। इस प्रकार जातीय ऊंच-नीच की भावना में कमी आई है।
6. जीवन व्यतीत करने का नियम:-
प्रत्येक जाति के जीवन व्यतीत करने के अपने कुछ नियम होते हैं जिसके द्वारा वह अपने सभी कार्यों को पूरा करते हैं। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में निम्न जातियों के हाथ से पानी ना पीना तथा भोज करना इत्यादि बहुत सी छुआछूत की भावना व्यक्त है तथा विवाह आदि में भी अभी भी शहरी तथा ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में अपनी सी जाति में विवाह किया जाए ऐसी भावना व्याप्त है।
7. नवीन अर्थव्यवस्था तथा औद्योगिकरण:-
ब्रिटिश काल से ही भारत में नवीन अर्थव्यवस्था का जन्म हो चुका था। जिसके परिणाम स्वरूप विभिन्न उद्योगों का भी विकास हुआ। जिससे गांव में जाति की परंपरा के आधार पर व्यवसाय करने की परंपरा की समाप्ति हुए। लोग दूसरे कार्यों को भी जीविका का साधन बनाने को जिससे पूंजीवादी समाज की स्थापना हुई। जिससे सामाजिक सम्मान तथा प्रतिष्ठा जाति ना होकर पद प्रतिष्ठा हो गई।
8. सामाजिक कानूनों का प्रभाव:
भारत में पहले कानून व्यवस्था का रूप वर्तमान समय से पलक था पहले कानून व्यवस्था का संचालन उच्च जाति के लोग करते थे परंतु वर्तमान में कानून व्यवस्था उच्च जाति का ना होकर सभी के लिए समान हो गया है। समाज में समाजिक कानून तथा अधिनियम बनाकर जाति प्रथा को समाप्त करने की कोशिश की गई है।
जेंडर समानता में जाति की भूमिका
जाति को लैंगिक विभेद की समाप्ति में प्रभाव कारी कारक या अभिकरण माना जा सकता है। क्योंकि समाज जाति के आधार पर बैठा हुआ है और लोग जाति के नियमों पर चलती है। यदि जाती गत परंपराओं प्रथाओं और नियमों पर न चल कर स्त्रियों को महत्व दिया जाए तो लैंगिक विभेद में कमी लाया जा सकता है।
इससे संबंधित कुछ सुझाव है जो निम्नलिखित है
1. समानता:-
प्राचीन काल से लिंगीय विभेद होता आया है। इस विभेद में स्त्रियों के साथ भेदभाव होता है। परंतु संविधान के द्वारा सभी नागरिकों को समानता का अधिकार दिया गया है फिर भी स्त्रियों के साथ भेदभाव किया जाता है अतः प्रत्येक जाति को यह समझना होगा कि स्त्री पुरुष दोनों को समानता का अधिकार है। इससे स्त्रियों की स्थिति में सुधार आएगा। जिन जातियों में लिंग भेदभाव ना होकर समानता है वहां की स्त्रियों की स्थिति अच्छी और उत्तमशील होती है।
2. न्याय:
स्त्रियां हमेशा से ही शोषित होती आ रही है यदि इसके खिलाफ आवाज उठाती है तो उसे मान सम्मान का झूठा दिखावा कर उन्हें इन दृष्टि से देखा जाता है। इसी हीन भाव को समाप्त करने के लिए भारतीय संविधान ने नागरिकों के लिए समान न्याय की व्यवस्था की है जिससे स्त्री पुरुष के माध्य जो असमानता है उसे खत्म किया जा सके जिससे स्त्रियों की स्थिति में सुधार हो।
3. स्वतंत्रता:
स्त्रियों को आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक राजनैतिक सभी क्षेत्रों में पुरुषों की भांति स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है अगर स्त्रियां कोई भी बड़ा फैसला अपनी इच्छा से लेती है जैसे विवाह आदि तो उन्हें झूठी मान मर्यादा का सामना करना पड़ता है। अपनी इच्छा से कहीं भी आ जा नहीं सकती है तथा पैतृक संपत्ति इत्यादि में भी अधिकार नहीं दिया जाता है। जिससे स्त्रियां बंध जाती है परंतु किसी किसी जातियों में ये आज समानताएं देखने को नहीं मिलती है। वहां के स्तरीय उत्तम सिल रहती है अतः सभी जातियों को स्वतंत्रता के अधिकार का पालन करना चाहिए।
4. कर्म की महत्ता:
स्त्री तथा पुरुष के मध्य किसी की श्रेष्ठता पर निर्भर न हो कर उनकी योग्यता तथा कर्म की श्रेष्ठता होना चाहिए। कर्म का महत्व होने से स्त्रियों का घर तथा बाहर पुरुषों की भांति ही समाज में अपनी प्रतिभा तथा कौशल दिखाने का मौका मिलता है जिससे वे प्रगतिशील बनती है और स्त्रियों में सुधार होता है।
5. कुप्रथाओं का अंत:-
प्रत्येक जातियों में अपनी कुछ प्रथाएं तथा परंपराएं होती है जो कुछ समय के बाद रूढ़ीवादी सोच को धारण कर लेती है जिससे स्त्रियों को पुरुषों से निम्न समझ कर उन पर कुप्रथाओं का बोझ लाद दिया जाता है जैसे बाल विवाह सती प्रथा पर्दा प्रथा तथा दहेज प्रथा। अतः समय-समय पर इन कुप्रथाओं का अंत कर स्वस्थ समाज की स्थापना की जा सकती है। जिससे स्त्रियों की स्थिति में सुधार होगा और स्त्रियां उत्तमशील हो जाएगी।
6. स्त्रियों के महत्व से परिचय करना:-
प्रत्येक जाति को अपनी समाज की स्त्रियों के महत्व से अवगत होना चाहिए। उन्हें यह समझना चाहिए कि स्त्रियां कितनी परोपकारी स्नेहशील, सहनशील मातृत्व भाव से परिपूर्ण होती है अतः इसी आधार पर स्त्रियों के महत्व को समझना चाहिए। जिन जातियों में स्त्रियों के महत्व का सम्मान और आदर किया जाता है उस समाज की स्थिति बहुत अच्छी होती हैं। इसलिए प्रत्येक जातियों को अपनी जाति की स्त्रियों का आदर और सम्मान करना चाहिए।
7. जातिगत उन्नति:-
कोई भी जाति स्त्रियों को दबाकर अपने को श्रेष्ठ मानता है तो वह बहुत बड़ी भूल करता है क्योंकि अगर स्त्रियां की उपेक्षा की जाएगी तो स्त्रियों की स्थिति अच्छी नहीं होगी जिससे मानसिक तथा शारीरिक रूप से कमजोर हो जाएगी। जिससे वह स्वस्थ संतान देने तथा उन का भरण पोषण अच्छी तरह से नहीं कर पाएगी। इसलिए प्रत्येक जाति का कर्तव्य है कि वह स्त्रियों का सम्मान तथा आदर करें क्योंकि स्त्रियों के सहयोग से ही एक खुशहाल परिवार का निर्माण होता है।
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