गुप्त साम्राज्य – GUPTA EMPIRE के प्रमुख शासक

गुप्त साम्राज्य – GUPTA EMPIRE के प्रमुख शासक

गुप्त साम्राज्य – GUPTA EMPIRE के प्रमुख शासक : चौथी शताब्दी में उत्तर भारत में एक नए राजवंश का उदय हुआ। इस वंश का नाम गुप्तवंश था। इस वंश ने लगभग 300 वर्ष तक शासन किया। इस वंश के शासनकाल में अनेक क्षेत्रों का विकास हुआ। इस वंश के संस्थापक श्रीगुप्त थे। गुप्त वंशावली में श्रीगुप्त, घटोत्कच, चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, रामगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय, स्कन्दगुप्त जैसे शासक हुए। इस वंश में तीन प्रमुख शासक थे – चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य)। चलिए जानते हैं गुप्त साम्राज्य (Gupta Empire/Period) के विषय में।

GUPTA EMPIRE के प्रमुख शासक

प्रशस्ति और चरित

गुप्तकाल में प्रशस्ति लेखन का विकास हुआ। प्रशस्ति लेख एक विशेष रूप का अभिलेख होता था, जिसमें राजा की प्रसंशा की जाती थी। इन प्रशस्तियों में राजा की उपलब्धियों के साथ-साथ उनकी महानता के विषय में भी लिखा जाता था। हरिसेन, वत्सभट्टि, वासुल आदि प्रमुख प्रशस्ति लेखक थे। इनकी प्रशस्तियाँ गुप्तकाल के इतिहास की जानकारी के प्रमुख स्रोत हैं। इसी प्रकार बाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरित और कादम्बरी हर्षवर्धन काल के इतिहास की जानकारी मिलती है। रामपालचरित पाल शासक रामपाल के क्रियाकलापों का वर्णन करता है और तत्कालीन बंगाल की जानकारी देता है। चालुक्य राजा विक्रमादित्य पर विक्रमांकदेवचरित लिखा गया।

गुप्तकालीन भारत
गुप्तकालीन भारत

चन्द्रगुप्त प्रथम

कुषाणकाल में मगध की शक्ति और महत्ता समाप्त हो गई थी। चन्द्रगुप्त प्रथम ने इसको पुनः स्थापित किया। उसने साकेत (अयोध्या) और प्रयाग (इलाहाबाद) तक मगध का विस्तार किया। वह पाटलिपुत्र से शासन करता था। उसने लिच्छवी वंश की राजकुमारी से विवाह किया था। इस सम्बन्ध से मगध तथा लिच्छवियों के बीच सम्बन्ध अच्छे हुए और गुप्तवंश की प्रतिष्ठा बढ़ी। चन्द्रगुप्त ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी।

समुद्रगुप्त

समुद्रगुप्त चन्द्रगुप्त प्रथम का पुत्र था। सभी गुप्त शासकों में वह सबसे महान था। वह एक कुशल योद्धा, विद्वान, संगीतग्य और कवि था। इसके साथ ही वह एक कुशल शासक भी था। उसने खुद हिन्दू धर्म का अनुयायी होते हुए भी बौद्ध और जैन धर्मों का सम्मान किया। उन धर्मों के प्रति सहिष्णुता की नीति उसने अपनाई।

इतिहास में समुद्रगुप्त का नाम एक विजेता और साम्राज्य निर्माता के रूप में लिया जाता है। उसके विजय अभियान के विषय में हमें इलाहाबाद की प्रशस्ति से पता चलता है।एरण अभिलेख और सिक्कों से भी समुद्रगुप्त के समय की जानकारी मिलती है। उस समय की अधिकांश प्रशस्तियाँ राजाओं के पूर्वजों के सम्बन्ध में जानकारी देती हैं। इलाहाबाद प्रशस्ति के अलावा समुद्रगुप्त के बारे में चन्द्रगुप्त द्वितीय की “वंशावली” (पूर्वजों की सूची) से भी जानकारी मिलती है। ये स्रोत हमें बताते हैं कि समुद्रगुप्त ने भी महाराजधिराज की उपाधि धारण की थी।

समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिसेण ने संस्कृत में प्रशस्ति लिखी है और बताया है कि समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत के 9 राज्यों को हराया था। ये राज्य थे – दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र आदि, जिनको उसने अपने साम्राज्य में मिलाया था। समुद्रगुप्त ने दक्षिण के 12 राज्यों को भी जीता था। ये राज्य थे – उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, पल्लव आदि। अभिलेख (edicts) बताते हैं कि इन राज्यों के समर्पण के बाद समुद्रगुप्त ने इनका राज्य वापस कर दिया, परन्तु इस शर्त पर कि ये उसको नियमित कर और नजराना देते रहेंगे। समुद्रगुप्त ने मध्य भारत की जंगली जातियों को भी अपने अधीन किया।

चन्द्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य)

समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी उसका पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय हुआ। इसका दूसरा नाम देवराज या देवगुप्त भी था। यह चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नाम से भी जाना जाता था। महरौली लौह स्तम्भ से इसके बारे में जानकारी मिलती है। माना जाता है कि जब राज्गुप्त अपनी पत्नी ध्रुवदेवी को शक शासक को सौंपने के लिए तैयार हुआ तब चन्द्रगुप्त ने शक खेमे घुसकर शक शासक को मार डाला। बाद में उसने रामगुप्त को मार डाला और ध्रुवदेवी से शादी करके खुद राजा बन गया। उदयगिरि, साँची, मथुरा के अभिलेख, महरौली (दिल्ली) के लौह-स्तम्भ अभिलेख और सिक्के चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय की जानकारी के स्रोत हैं। इन स्रोतों से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय ने गुजरात, मालवा और सौराष्ट्र के शकों को हराकर उनके क्षेत्रों को अधीन कर लिया। इस सफलता से चन्द्रगुप्त द्वितीय को पश्चिमी समुद्रगुप्त प्राप्त हुआ। भड़ौंच, कैम्बे और सोपारा के बंदरगाह पर उसका नियंत्रण हो गया। इस कारण वह अपने राज्य के वाणिज्य-व्यापार को बढ़ा सका। उसने उज्जयिनी को अपनी दूसरी राजधानी बनाई।

कुमारगुप्त प्रथम

चन्द्रगुप्त प्रथम और द्वितीय और समुद्रगुप्त के समान कुमारगुप्त प्रथम भी गुप्त साम्राज्य का एक महान शासक था। उसने शासनकाल की जानकारी भितरी अभिलेख, भिल्साद स्तम्भ अभिलेख, गढ़वा अभिलेख और मनकुवार मूर्ति अभिलेख से मिलती है। अनेक गुप्त राजाओं की तरह कुमारगुप्त प्रथम ने भी सिक्के (coins) निकाले। इन सिक्कों से उसके शासनकाल के विषय में जरुरी जानकारी मिलती है। उसने 40 वर्षों तक शासन किया था। इन अभलेखों में कुमारगुप्त के अनेक नाम मिलते हैं – श्रीमहेन्द्र, अजितमहेंद्र, महेंद्रात्य, महेंद्रकुमार आदि।

स्कन्दगुप्त

कुमारगुप्त के पुत्र स्कन्दगुप्त ने शकों तथा हूणों को हराया था। उसने शकरादित्य की उपाधि धारण की थी। इस समय हूणों ने उत्तर पश्चिम से कई बार आक्रमण किया था। गुप्त शासकों ने साम्राज्य की उत्तर-पश्चिमी सीमा की सुरक्षा की व्यवस्था नहीं की थी। इसका लाभ उठाकर हूणों ने भारत पर आक्रमण किया जिससे गुप्त साम्राज्य कमजोर हो गया और उसका पतन होने लगा। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद कई राज्यों का उदय हुआ जिनमें प्रमुख थे – उत्तर भारत में कन्नौज के हर्षवर्धन का राज्य और दक्षिण भारत में वातापी के चालुक्य और काँचीपुरम के पल्लवों का राज्य।

गुप्त साम्राज्य का उदय और विकास

मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद दीर्घकाल तक भारत एक शासन सूत्र के अन्तर्गत नहीं आ सका। मौर्य साम्राज्य के विधटन के बाद उत्तरी भारत की डावांडोल राजनीतिक स्थिति का लाभ भारतीय-यूनानी, शक, पाथियायी तथा कुषाणों ने उठाया। इन विदेशी आक्रमणकारियों में स्वयं को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कुषाण साबित कर सके।

उधर दक्‍कन और दक्षिणी भारत में सातवाहन वंश ने स्थिरता लाने का कार्य किया। लेकिन ये दोनों साम्राज्य (कुषाण तथा सातवाहन) तीसरी शताब्दी ई० तक समाप्त हो गए। देश की रही-सही राजनैतिक एकता भी अब छिन्न-भिन्‍न हो गई। सौभाग्यवश इस राजनीतिक विघटन का सामना करने के लिए भारत के तीन भागों में तीन नए राजवंशों का उदय हुआ। मध्य देश के पश्चिमी भाग में नाग वंश, दक्कन में वाकाटक तथा पूर्वी भारत में गुप्तवंश

इन तीनों में गुप्त के शासकों को सर्वाधिक सफलता मिली। सम्भवतः 275 ई० के आसपास गुप्त साम्राज्य सत्तारूढ़ हुआ। उन्होंने सर्वप्रथम अपना शासन सम्भवत: प्रयाग, अयोध्या, मगध तथा मध्य गंगाघाटी में शुरू किया।

धीरे-धीरे उनका प्रभाव लगभग सारे भारत में फ़ैल गया। इतिहासकार गुप्त साम्राज्य की सफलता एवं उदय के अनेक कारण बताते हैं।

  • उन्होंने जीन, लगामों, बटन लगे कोटों, जूतों, पतलूनों आदि का प्रयोगकुषाणों से सीखा था। इन सब से उनकी सैनिक गतिशीलता बढ़ी और वे उत्कृष्ट घुड़वार बन गये। कुषाणों की सेना में हाथियों एवं रथों के स्थान पर घोड़ों का अधिक प्रयोग किया जाता था। गुप्त लोगों ने भी घोड़ों को अपनी सेना में प्रमुख स्थान दिया। नि:सन्देह इसका लाभ गुप्तों को अपने प्रतिद्वंदियों के विरुद्ध प्राप्त हुआ।
  • गुप्त शासकों ने अपने राजनीतिक प्रतिस्पर्धी नाग, वाकाटक तथा गणराज्यों के शासकों से कूटनीति एवंवैवाहिक सम्बन्धों द्वारा अपनी शक्ति को सुदृढ़ किया
  • ग्रुप्त लोगों को अनेक भौतिक एवं प्राकृतिक श्रेष्ठताएं प्राप्त थीं। उनकी राजनैतिक गतिविधि का केन्द्र मध्य देश था। यहाँ की भूमि बहुत उपजाऊ थी। उनके प्रारम्भिक प्रभाव क्षेत्र विशेषकर दक्षिण बिहार एवं मध्य भारत में लौह उपकरण का प्रयोग अधिक प्रचलित था जिससे उन्हें कृषि, सैनिक उपकरण तथा उद्योगों की उन्नति में योगदान मिला।
  • उन्होंने पूर्वी रोमन साम्राज्य (बाइजेंटाइन साम्राज्य) से व्यापारिक सम्पर्क बनाकर अपनी आर्थिक स्थिति को प्रारम्भ से ही सुदृढ़ किया।

गुप्त साम्राज्य का वंश परिचय

गुप्त सम्राटों ने अपने प्रसिद्ध उत्कीर्ण लेखों में अपने वंश, सामाजिक पद, वर्ण अथवा जाति इत्यादि का कोई उल्लेख नहीं किया है इसलिए उनकी उत्पत्ति का इतिहास बहुत कुछ अन्धकारमय है।

काशी प्रसाद जायसवाल का मत है कि गुप्त सम्राट शूद्र और मूलतः पंजाब के निवासी थे। उनका मत कौमुदी महोत्सव नाटक के नायक चण्डसेन (जिनकी वह चन्द्रगुप्त प्रथम के रूप में कल्पना करते हैं) को ‘कारस्कार’ कहे जाने पर आधारित है।

बौधयान कामसूत्र के आधार पर डा० जायसवाल ‘कारस्कर’ जाति को शुद्र मानते हैं। कुछ विद्वान गुप्त साम्राज्य के शासकों को उनके नामान्त “गुप्त” के आधार पर वैश्य वर्ण का मानते हैं क्योंकि स्मृतियों के अनुसार ब्राह्मण की उपाधि शर्मा, क्षत्रिय अथवा भूति की वर्मा और वैश्य की गुप्त तथा शुद्र की दास होनी चाहिए। लेकिन इस मत को कुछ लोग दो कारणों से नहीं मानते। एक तो गुप्त उपाधि नहीं नामांत है और प्रायः सभी नामों के अन्त में गुप्त आने से इसे सुविधा के लिए गुप्त वंश मान लिया गया है।

दूसरा, इतिहास में बहुत से ब्राह्मणों के नाम के साथ भी “गुप्त” या “भूति” उपाधियों का प्रयोग हमें मिलता है जैसे ब्रह्मगुप्त, विष्णुगुप्त, भवभूति, देवभूति आदि। गौरीशंकर ओझा गुप्त शासकों को क्षत्रिय मानते हैं। उनके विचार का प्रमुख आधार मध्य प्रदेश के गुप्त वंशीय नरेश महाशिव गुप्त से सम्बन्धित सिरपुर की प्रशस्ति है जिसमें उसे चन्द्रवंशीय क्षत्रीय कहा गया है। इस प्रकार एक ऐसा प्रश्न है जो निश्चित प्रमाण के अभाव में अभी भी एक विवादस्पद बना हुआ है।

गुप्त युग में जीवन (LIFE IN THE GUPTA AGE)

गुप्त साम्राज्य की शासन प्रणाली

चीनी पर्यटक फाहियान ने गुप्त शासन प्रणाली की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। विभिन्न ऐतिहासिक स्रोतों के आधार पर गुप्त काल की शासन प्रणाली का विवरण सुविधापूर्ण अध्ययन के लिए निम्नलिखित शीर्षकों में किया जा सकता है।

केन्द्रीय शासक राजा

केन्द्र में शासक सबसे बड़ा अधिकारी था। मौर्यों के विपरीत गुप्त वंश के राजाओं ने परमेश्वर, महाराजधिराज जैसी शानदार पदवियाँ ग्रहण कीं। इससे पता चलता है कि उनका साम्राज्य बढ़ गया था तथा आसपास के छोटे-छोटे राजा उनके अधीन थे। राज्य के पास एक स्थायी सेना होती थी। सामंत समय-समय पर राज्य को सैनिक सहायता देते थे। राजा सेना, न्याय और कानून के लिए अन्तिम अधिकारी था।

चीनी पर्यटक फाहियान के अनुसार गुप्त शासक बहुत योग्य थे। सारी जनता में पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी। देश में सुख-शान्ति थी। राज्य कर्मचारी भ्रष्ट नहीं थे। राज्य के संरक्षकों और सभी सेवकों को नकद वेतन मिलता था। फाहियान के विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि गुप्त सम्राटों की राजधानी पाटलिपुत्र एक भव्य नगर था। वह इस नगर में अशोक के महल को देखकर बहुत हैरान हुआ। उसने इसमें 67 महलों को देवताओं द्वारा बनाया हुआ बताया है। राज्य हमेशा बड़े बेटे को नहीं मिलता था। राजा मंत्रिमण्डल की राय मानने को बाध्य नहीं था। दण्ड विधान बहुत कठोर नहीं था। उन्होने गुप्तचर विभाग को भी समाप्त कर दिया था।

मन्त्रिमण्डल

केन्द्र में एक मन्त्रिमण्डल था। मंत्रियों का पद प्राय: वंश परम्परागत होता था। सभी महत्त्वपूर्ण विषयों में राजा मन्त्रियों से सलाह लेता था। सभी विभाग किसी न किसी मंत्री के पास होते थे। जिसके लिए मंत्री ही उत्तरदायी होता था।

प्रांतीय शासन

गुप्त राजाओं ने शासन सुचारु रूप से चलाने के लिए उसे कई प्रांतों में बांट रखा था। प्रान्तों को मुक्ति कहा जाता था। प्रांतीय शासक (गवर्नर या प्रतिनिधि शासक ) मौर्य काल की तुलना में अधिक आजाद थे। उदाहरण के लिए उन्हें हर काम के लिए राजा की आज्ञा की जरूरत नहीं। प्रांतीय शासकों की नियुक्ति स्वयं सम्राट करता था। प्रांतीय शासकों का सम्बन्ध ज्यादातर राजकुल से ही होता था। प्रांतीय शासन लगभग केन्द्रीय शासन के अनुरूप ही था। जितने विभाग केन्द्र में थे उतने ही प्रांतों में थे।

जिले का प्रबंध

प्रांत (मुक्ति) जिलों (विषयों ) में बंटे थे। जिले के लोग वहां के शासन प्रबन्ध में मदद करते थे। विषयपति की नियुक्ति प्रान्तीय शासक करता था। उसे सलाह देने के लिए जिला समितियां होती थीं जिनमें न केवल सरकारी अधिकारी ही होते थे वरन नागरिक भी शामिल किए जाते थे।

नगरों का शासन

गुप्तकाल से भी आज की तरह नगरों का प्रबन्ध म्युनिसिपिल कमेटी (नगरपालिका) ही करती थी। नगर का मुखिया नगरपति कहलाता था। नगर में रहने वाले लोग कुछ कर देते थे। करों की रकम को नगरपालिका उनकी भलाई में ही (जैसे सफाई, रोशनी आदि के प्रबन्ध पर ही) खर्च कर देती थी।

गाँव का शासन

गुप्त काल में भी आज की तरह शासन की सबसे छोटी इकाई गांव थी। ग्रामाध्यक्ष गांव का मुखिया था। गांव का प्रबन्ध एवं न्याय कार्य पंचायत करती थी।

सेना

गुप्त शासकों की सेना कितनी बड़ी थी इसके बारे में हमें जानकारी नहीं है। राज्य एक स्थायी सेना रखता था तथा जरूरत पड़ने पर अपने सामंतों से भी सैनिक सहायता लेता था। सेना में घोड़े अधिक महत्त्वपूर्ण होते थे, यद्यपि रथों तथा हाथियों का भी प्रयोग होता था। घुड़सवार अब तीरन्दाजी ही ज्यादा करते थे।

आय के साधन

गुप्तकाल में भूमिकरों की संख्या ज्यादा हो गई। फाहियान के अनुसार, राज्य की आमदनी का मुख्य साधन भूमिकर था जो उपज का 1/6 भाग होता था। इस भू-कर के अतिरिक्त किसानों को आती-जाती सेना को “राशन” तथा पशुओं को चारा भी देना पड़ता था। गांव में जो भी सरकारी अधिकारी रहता था उसे पशु अनाज आदि गांव के लोगों को ही देना पड़ता था। इस प्रकार की बेगार को विष्टि कहा जाता था। किसान पशुओं को चराने के लिए भी कर देते थे। व्यापार और वाणिज्य कर भी राज्य की आमदनी के साधन थे लेकिन इन करों की संख्या में कमी आ गई। चूँकि जुर्माने के रूप में अपराधियों को बड़ी-बड़ी रकमें देनी पड़ती थीं, इससे भी राज्य को बड़ी आय प्राप्त होती थी। चुंगी भी आय का महत्वपूर्ण साधन था।

न्याय व्यवस्था

मौर्य काल की अपेक्षा गुप्तकाल में न्याय व्यवस्था अधिक विकसित तथा उन्नत थी। इस काल में अनेक कानून की पुस्तकों को संकलित किया गया। कानूनों को सरल बना दिया था। गुप्त शासकों ने भय उत्पन्न करने वाले साधन नहीं अपनाये। फाहियान के अनुसार, अपराधियों को प्राय: मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था। यदि कोई व्यक्ति बार-बार अपराध या राज विद्रोह करता था तो उसका दाहिना हाथ काट दिया जाता था। प्रायः जुर्माने देने की ही सजा सुनाई जाती थी। जनता नियमों का स्वेच्छा से पालन करती थी। कानून की मर्यादा बनाये रखना राज्य का काम था। राजा मुकदमे का फैसला पुरोहितों की मदद से करता था।

गुप्त साम्राज्य की आर्थिक दशा (ECONOMIC CONDITION)

कृषि

चीनी यात्री फाहियान से पता चलता है कि गुप्तकाल में भारतीय आर्थिक जीवन उन्नत था। लोगों में परस्पर दान देने की होड़ लगी होती थी। कृषि बहुत उन्नत स्थिति में थी। अनेक प्रकार के अनाजों के अलावा फल तथा तिलहन आदि की खेती की जाती थी। सरकार किसानों से भू-कर के रूप में उपज का 1/6 भाग लेती थी। परन्तु कुछ ब्राह्मणों तथा अधिकारियों को कर-मुक्त भूमि दी गई थी। इनमें से कई अधिकारियों को किसानों से कर वसूल करने का अधिकार भी था। यह घटना गुप्तकाल की एक महत्वपूर्ण आर्थिक घटना थी। किसानों को बेगार करने के लिए मजबूर किया था। गुप्तकालीन भारतीय उद्योग धन्धों की स्थिति बहुत समृद्ध थी। लौह इस्पात उद्योग के साथ-साथ समुद्री-पोत निर्माण का उद्योग भी देश में उन्नत था। फाहियान लिखता है कि देश में सोने, चांदी आदि धातुओं की मूर्तियां बनाई जाती थीं। हाथी दांत से भी अनेक प्रकार की वस्तुएं तैयार की जाती थीं। विभिन्‍न प्रकार के शिल्पकारों के संघ बने हुए थे जिन्हें गिल्ड या श्रेणी’ कहा जाता था। इस शिल्पकारों की संस्थाओं के पास काफी धन हुआ करता था जो वे जनता की भलाई के कार्यो पर व्यय किया करती थीं।

व्यापार तथा नगर

फाहियान हमें जतलाता है कि मगध राज्य में अनेक नगर थे तथा वहां धनी व्यापारी रहते थे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि व्यापार बहुत विस्तृत था। व्यापार देश के एक कोने से दूसरे कोने तक होता था। सभी मार्ग सुरक्षित थे। जनता का नैतिक स्तर ऊंचा था। इसलिए लूटमार कम होती थी। शान्ति एवं सुरक्षा को व्यवस्था ने व्यापार को खूब बढ़ाया। गंगा, ब्रह्मपुत्र आदि नदियों में बड़-बड़े नावों द्वारा माल लाया ले जाया जाता था। व्यापारी वर्ग के लोग केवल धन कमाने में ही न लगे रहते थे बल्कि उनमें दान देने के लिए आपस में होड़ लगी रहती थी। मगर गुप्तकाल में विदेशी व्यापार का पतन होने लग गया था। सन्‌ 550 ई० तक भारत का पूर्वी रोमन साम्राज्य के साथ थोड़ा बहुत रेशम का व्यापार होता था। सन्‌ 550 ई० के आसपास पूर्वी रोमन साम्राज्य के लोगों ने चीनियों से रेशम पैदा करने की कला सीख ली। इससे भारत के निर्यात व्यापार पर कुप्रभाव पड़ा।

छठी शताब्दी ई० के मध्य के पहले ही विदेशों में भारतीय रेशम के लिए मांग कमजोर पड़ गई थी। ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर कहा जाता है पांचवीं शताब्दी के मध्य में रेशम बुनकरों की श्रेणी (गिल्ड) पश्चिम भारत स्थित अपने मूल निवास स्थान लौट देश को छोड़कर मंदसौर चली गई। उन्होंने अपना मूल व्यवसाय छोड़कर अन्य पेशे अपनाए। गुप्तकाल में सारी गंगा घाटी के अधिकांश शहरों का जो पहले (विशेषकर कुषाण काल में) बहुत ज्यादा समृद्ध थे, विघटन शुरू हो गया। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि पाटलिपुत्र जैसा महत्वपूर्ण राजधानी नगर भी ह्वेनसांग के काल तक गाँव बन गया था। मथुरा जैसा महत्वपूर्ण व्यापार-केन्द्र भी विधटन के चिन्ह प्रस्तुत करता है। कुम्रहार, सोनपुर, सोहगौरा और उत्तर प्रदेश में गंगा घाटी के कई महत्त्वपूर्ण केन्द्र हूण के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। सम्भव है कुछ, शिल्पी गंगा घाटी छोड़कर मध्य भारत चले गये हों और वहां अधिक आसानी से अपना जीवन गुजारते हों। थोड़ा-बहुत व्यापार चीन, लंका, जावा सुमात्रा और तिब्बत आदि से भी होता था। भड़ोंच, सुपारा आदि बन्दगाहों से विदेशी व्यपार होता था। लेन-देन के लिए कई प्रकार के सिक्‍के चलते थे। मोती, बहुमूल्य पत्थर, कपड़े, मसाले, नील, दवाइयां आदि पदार्थ दूसरे देशों को भेजे जाते थे।

भूमि अनुदान

स्मृतिकारों के अनुसार भारत में राजा भूमि का मालिक माना गया है। मनु और गौतम जैसे स्मृतिकारों ने राजा को भूमि का अधिपति बताया है। गुप्त काल में राजाओं को जो भूमिदान या कभी-कभी सारा गाँव दान करते हुए देखा जा सकता है। उससे यही धारणा मजबूत होती है कि गुप्तकाल में शासक भूमि को ब्राह्मण, किसी गृहस्थ अथवा किसी राज्याधिकारी को दान देने का अधिकारी था। भूमिदान जोतने वाले का कहां तक अधिकार होता था, यह प्रश्न अस्पष्ट है। हाँ, बृहस्पति तथा नारद स्मृतियों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति के जमीन पर मालिकाना अधिकार तभी माना जा सकता है, जब उसके पास कानूनी दस्तावेज हो। अगर कोई साधारण व्यक्ति भूमि खरीदता था तो उसे राज्य से अनुमति लेनी पड़ती थी। जमीन को साधारणतया दान में देने के उद्देश्य से खरीदा जाता था। सबसे पहले खरीदने वाला व्यक्ति स्थानीय शासन को सूचित करता था कि वह कौन-सी जमीन किस उद्देश्य से खरीदना चाहता है तथा उस जमीन का जो भी मूल्य होगा, उसे वह देने को तैयार है।

अब जब कोई भूमि खरीदता था या दान में देता था तो उस भूमि की नाप-जोख, सीमा रेखा बहुत स्पष्ट शब्दों में व्यक्त की जाती थी। गुप्त युग और उसके पश्चात् जैसे-जैसे भूमि मंदिरों और मठों को दान में दी जाने लगीं वैसे-वैसे कृषि मजदूरों की स्थिति गिरती चली गई और वे अर्धदास जैसे हो गये।

गुप्त साम्राज्य के दौरान सामाजिक परिवर्तन

जीवन के प्रति कई तरह से आदर्श दृष्टिकोण

उस काल के लोग सादा जीवन व्यतीत करने के साथ-साथ उच्च विचार रखते थे। उनका चरित्र एवं नैतिक स्तर बहुत उच्च था। फाह्यान लिखता है, “चाण्डालों को छोड़कर देश भर में कहीं भी लोग किसी जीवित प्राणी को नहीं मारते हैं और न शराब और न नशीले पदार्थों का प्रयोग करते हैं, न प्याज-लहसुन खाते हैं। अन्तर्जातीय विवाहों के प्रमाण भी मिलते हैं।” संयुक्त परिवार समाज का आधार था। लोग बहुत दानी थे। लोगों के प्रयत्नों से सराएं और अस्पताल चलते थे। अस्पतालों में मुफ्त दवाइयां और चिकित्सा का प्रबन्ध था। कई दृष्टियों से इस काल में शूद्रों और औरतों की स्थिति सुधरी। उन्हें अब महाकाव्यों और पुराणों को सुनने की आज्ञा मिल गई।

वर्ण व्यवस्था

ब्राह्मणों का समाज में बहुत आदर था। उन्हें बड़े पैमाने पर भूमि अनुदानों से मिलती थी। गुप्तकाल में भी भारतीय समाज परम्परागत चार वर्णों के साथ-साथ अनेक जातियों तथा उपजातियों में विभक्त था। दो कारणों से जातियाँ कई उपजातियों में बंट गईं। एक ओर बड़ी संख्या में विदेशियों को भारतीय समाज में आत्मसात्‌ कर लिया गया, और विदेशियों के प्रत्येक समूह की एक प्रकार की हिन्दू जाति मान लिया गया। चूंकि विदेशी मुख्य रूप से विजेताओं के रूप में आये थे, इसलिए उन्हें समाज में क्षत्रियों का दर्जा दिया गया। उदाहरण के लिए हूण लोगों को जो भारत में पांचवी शताब्दी के अन्त में आए, उन्हें आाखिरकार राजपूतों के छत्तीस कुलों में से एक के रूप में शामिल कर लिया गया। आज भी कई राजपूत अपने नाम के साथ हूण लिखते हैं। जातियों की संख्या बढ़ने ने का एक अन्य कारण अनेक कबीलाई जनगणों को भूमि अनुदानों द्वारा हिन्दू समाज में मिला लिया जाना था।

कबीलों के प्रधानों को प्रतिष्ठा योग्य मूल का कहा गया जबकि शेष कबीलाई जनता को निम्न मूल का बतलाया गया। इस तरह प्रत्येक कबीला हिन्दू समाज की एक जाति बन गया। परन्तु इस काल में अछूतों विशेषकर चण्डालों की संख्या वृद्धि हुई। चण्डाल भारतीय समाज में पांचवी शताब्दी ई।पू। में प्रकट हुए थे। पांचवीं शताब्दी ई।पू। उनकी संख्या इतनी बढ़ गई तथा इनकी निर्योग्यता इतनी स्पष्ट हो गई कि उन्होंने चीनी पर्यटक फाहियान का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। वह चण्डालों का वर्णन करते हुए लिखता है कि वे गांव के बाहर रहते थे तथा मांस का धंधा करते थे। जब भी चण्डाल नगर में आते थे तो वे एक विशेष प्रकार की आवाज करते हुए आते थे ताकि तथाकथित उच्च जाति के लोग स्वयं को उनसे दूर रख सकें क्योंकि उन दिनों में ऐसा माना जाता था कि वे सड़क को अपवित्र कर देते हैं।

उच्च वर्णों के लोग यद्यपि सामान्यतया वर्ण-व्यवस्था द्वारा निर्धारित कार्य ही करते थे लेकिन वर्गों के आधार पर निर्धारित व्यवसाय के इस बन्धन में शिथिलता आने लग गयी थी। उदाहरणार्थ इस काल में ब्राह्मण राजवंशों के प्रमाण मिलते हैं जैसे “वाकाटक तथा कुटुम्ब”। ब्राह्मण राजा तथा योद्धा हो सकते थे। कहा जाता है कि स्वयं गुप्त वंश के शासक वैश्य जाति के थे। लेकिन ब्राह्मण उन्हें क्षत्रिय मानने लगे। ब्राह्मणों ने गुप्त राजाओं को दैवी गुणों से युक्त बतलाया और गुप्त राजा ब्राह्मण व्यवस्था के महान समर्थक बन गये। ब्राह्मणों ने अनगिनत भूमि अनुदानों को प्राप्त कर बहुत ज्यादा सम्पत्ति इकट्ठी कर ली थी। अब भी वर्ण भेद समाज में चल रहा था। तत्कालीन विद्वान वराहमिहिर ने वृहत्संहिता में चारों वर्णों के लिए विभिन्‍न बस्तियों की व्यवस्था का समर्थन किया है। उसके अनुसार ब्राह्मण के घर में पांच, क्षत्रिय के घर में चार, वैश्य के घर भें तीन तथा शुद्र के घर में दो कमरे होने चाहिए। न्याय-व्यवस्था तथा दण्ड-विधान में भी वर्ण भेद पूर्णत: बना हुआ था। न्याय संहिताओं में कहा गया है कि ब्राह्मण की परीक्षा तुला से, क्षत्रिय की भग्नि से, वैश्य की जल से ओर शूद्र की विष से की जानी चाहिए।

दास प्रथा

निस्सन्देह इस काल में दास प्रथा प्रचलित थी लेकिन इस बात के कई प्रमाण मिलते हैं कि गुप्त काल में यह कुप्रथा कमजोर हो गई थी। दास-मुक्ति के अनुष्ठान का विधान सबसे पहले नारद ने किया है। इस काल में दासों के साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाता था इसीलिए विदेशी यात्री इसके अस्तित्व का पता नहीं लगा सके।

स्त्रियों की स्थिति

गुप्तकालीन साहित्य और कला में नारी का आदर्शमय चित्रण किया गया है परन्तु व्यवहारिक रूप में उनकी स्थिति पहले की अपेक्षा अधिक दयनीय हो गई। इसी काल में कन्याओं का अल्पायु में विवाह तथा (कुछ कुलीन लोगों में) सती प्रथा जैसी बुराइयां पुनः प्रचलित होने लगी। नारी को जन्म से मृत्यु तक पुरुष के नियन्त्रण में रहने के निर्देश दिये गये। केवल उच्च वर्ग की स्त्रियों को प्राथमिक शिक्षा दी जाती थी। प्राय: वे सार्वजनिक जीवन में भाग नहीं लेती थीं। जो थोड़े-बहुत उदाहरण विदुषी तथा कलाकार महिलाओं को प्राप्त होते हैं उन्हें हमें केवल अपवाद मानना याहिए।

लेकिन गुप्त साम्राज्य में पर्दा प्रथा का अधिक विकास नहीं हुआ था। विधवाओं को सामान्यतया पुनर्विवाह की अनुमति नहीं थी। उनके लिए श्वेत वस्त्र धारण करना जरूरी था। इस काल में वेश्या वृत्ति का भी उल्लेख मिलता है। देवदासियों का भी एक वर्ग था जो मन्दिरों के साथ सम्बद्ध था। लेकिन स्त्रियों को सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार प्राप्त थे। उनका पत्नी तथा विशेष परिस्थितियों में पिता की सम्पत्ति पुत्रविहीन पुरुष की कन्याओं के रूप में पाने का अधिकार होता था।

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