हिन्दी उपन्यास की विकास यात्रा
हिन्दी उपन्यास की विकास यात्रा : इस पोस्ट के माध्यम से आप हिन्दी उपन्यास के उद्भव एवं विकास की पृष्ठभूमि समझ सकेंगे। प्रारम्भिक हिन्दी उपन्यासों के बारे में जान सकेंगे। प्रेमचन्द – युग और स्वतन्त्रता से पूर्व हिन्दी उपन्यास का विकास समझ सकेंगे।स्वातन्त्र्योत्तर युग में हिन्दी उपन्यास का विकास – क्रम समझ सकेंगे। हिन्दी उपन्यास लेखन की समकालीन प्रवृत्तियाँ समझ सकेंगे।
हिन्दी उपन्यास की विकास यात्रा
प्रारम्भिक हिन्दी उपन्यास का कालखण्ड सन् 1877 से 1918 माना जा सकता है। सन् 1877 में श्रद्धाराम फिल्लौरी ने भाग्यवती उपन्यास लिखा था। यह उपन्यास उपदेशात्मक है। यह अंग्रेजी ढंग का मौलिक उपन्यास तो नहीं था , परन्तु इसमें विषय – वस्तु की नवीनता थी। इसीलिए इसे हिन्दी का पहला उपन्यास कहा गया है। हिन्दी उपन्यासों के प्रेरणास्रोत रहे बंगला उपन्यासों की भूमि बहुत उर्वर रही है। बंगला में सन् 1877 के पहले बहुत से उपन्यास प्रकाशित हो चुके थे।
प्रेमचन्द युग की समय – सीमा सन् 1918 से सन् 1936 तक मानी जाती है। यह समय – सीमा छायावाद युग की भी है। हिन्दी उपन्यास के विकास में प्रेमचन्द और उनके युग का बहुत महत्व है। प्रेमचन्द पहले ऐसे उपन्यासकार हैं , जिन्होंने भारतीय जन – जीवन की समस्याओं को गहराई से समझा। उनके उपन्यास आम आदमी के दुख – दर्द की दास्तान हैं। समकालीन हिन्दी उपन्यास साहित्य आदिवासी विमर्श को भी अपने केन्द्र में रखता है। इन उपन्यासों में आदिवासियों का जंगल – जमीन से जुड़ाव , उन्हें जंगल – जमीन से दूर करने के सरकारी पैतरों और उनकी अस्मिता से जुड़े प्रश्न उठाए गए हैं।
प्रस्तावना :
उपन्यास अपेक्षाकृत नई साहित्यिक विधा है। इसमें सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन को उभारने का प्रयास किया जाता है। इसमें सामान्य जीवन के द्वन्द्व , फैलाव और गति का समावेश अन्य साहित्यिक विधाओं की तुलना में अधिक होता है। इस विधा का प्रारम्भ हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल में हुआ। भारतेन्दु युग में ही ऐसी स्थिति बनने लगी थी कि लेखकों को एक नई विधा की आवश्यकता महसूस होने लगी थी। दरअसल वे अपनी पूरी – पूरी बात खुलकर नहीं कह पा रहे थे। कविता , निबन्ध , नाटक , प्रहसन आदि साहित्य की अन्यान्य विधाएँ युगीन चेतना को पूरी तरह प्रस्तुत करने में असफल साबित हो रही थीं।
ऐसी दशा में भारतेन्दु हरिश् चन्द्र का ध्यान उपन्यास विधा की तरफ गया। वे बंगला उपन्यासों से परिचित थे और उसी तर्ज़ पर हिन्दी में भी उपन्यास लेखन चाहते थे। स्वतन्त्र उपन्यासों की रचना न होने की स्थिति में कुछ बंगला उपन्यासों के अनुवाद के भी पक्षधर थे। उनके प्रयास से अनेक बंगला उपन्यासों का हिन्दी में अनुवाद हुआ और कुछ उपन्यास हिन्दी में भी लिखे गए। वे खुद भी उपन्यास लिखना चाहते थे , पर शुरुआती पृष्ठ ही लिख सके। उन्होंने अपने उपन्यास का नाम रखा था – एक कहानी कुछ आप बीती कुछ जग बीती ।
वैसे निर्विवाद तथ्य है कि हिन्दी में उपन्यास लेखन की परम्परा बंगला के प्रभाव से प्रारम्भ हुई। भारतेन्दु युग में ही उपन्यास लेखन की नींव रखी जा चुकी थी , पर उसे प्रेमचन्द युग में सही रूपाकार और व्यापकता मिली। प्रेमचन्द के लेखन के सम्बन्ध में हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है – “ अगर आप उत्तर भारत की समस्त जनता के आचार – विचार , भाषा – भाव , रहन – सहन , आशा-आकांक्षा दु : ख और सूझ – बूझ जानना चाहते हैं , तो प्रेमचन्द से उत्तम परिचायक आपको नहीं मिल सकता। ”
प्रारम्भिक हिन्दी उपन्यास
प्रारम्भिक हिन्दी उपन्यास का कालखण्ड सन् 1877 से 1918 माना जा सकता है। सन् 1877 में श्रद्धाराम फि ल्लौरी ने भाग्यवती उपन्यास लिखा था। यह उपन्यास उपदेशात्मक है। यह अंग्रेजी ढंग का मौलिक उपन्यास तो नहीं था , परन्तु इसमें विषय – वस्तु की नवीनता थी। इसीलिए इसे हिन्दी का पहला उपन्यास कहा गया है। हिन्दी उपन्यासों के प्रेरणास्रोत रहे बंगला उपन्यासों की भूमि बहुत उर्वर रही है।
बंगला में सन् 1877 के पहले बहुत से उपन्यास प्रकाशित हो चुके थे। उनमें भवानीचरण बन्द्योपाध्याय का नवबाबू विलास ( सन् 1825) और टेकचन्द ठाकुर ( पियारीचन्द्र मित्रा ) का आलालेर घरेर दुलाल ( सन् 1857) बहुत लोकप्रिय हुए। बंगला के कई उपन्यासों का प्रभाव हिन्दी उपन्यासों पर स्पष्ट दिखलाई पड़ता है। हिन्दी उपन्यासों की भूमि बंगला उपन्यासों के अनुवाद द्वारा भी समृद्ध हुई है। बंगला के अलावा अंग्रेजी उपन्यासों का भी अप्रत्यक्ष प्रभाव हिन्दी उपन्यासों पर पड़ा है। परीक्षागुरू ( सन् 1882) पर तो अंग्रेजी का सीधा प्रभाव स्वीकार किया जाता है।
इस युग के पं . श्रद्धाराम फि ल्लौरी ( सन् 1837-1881), लाला श्रीनिवास दास ( सन् 1851-1857), बालकृष्ण भट्ट , ठाकुर जगमोहन सिंह , राधकृष्ण दास , लज्जाराम मेहता , किशोरीलाल गोस्वामी , अयोध्यासिंह उपाध्याय , ब्रजनन्दन सहाय और मन् नन द्विवेदी प्रमुख सामाजिक उपन्यासकार हैं। पं . श्रद्धाराम फि ल्लौरी ने भाग्यवती ( सन् 1877) लिखकर स् त्रि यों को गृहस्थ धर्म की शिक्षा दी थी।लाला श्रीनिवास दास ने परीक्षागुरु ( सन् 1882) में यह सन्देश दिया कि जो बात सौ बार समझाने से समझ में नहीं आती , वह एक बार की परीक्षा से मन में बैठ जाती है।
जासूसी उपन्यासकारों में गोपालराम गहमरी ने सर्वाधिक प्रसिद्धि प्राप् त की। उन पर अंग्रेजी के सर आर्थर कानन डायल का स्पष्ट प्रभाव दिखलाई पड़ता है। उन्होंने सन् 1900 में जासूस नामक मासिक पत्र निकाला। उन्होंने इस पत्र के लिए कई उपन्यास लिखे। अद्भुत लाश ( सन् 1896), गुप्तचर ( सन् 1899), बेकसूर की फाँसी ( सन् 1900), सरकटी लाश ( सन् 1900) आदि उनके कुछ प्रमुख उपन्यास हैं। उन्हें हिन्दी का ‘ आर्थर कानन डायल ’ कहा गया है। उनके अलावा रामलाल वर्मा , किशोरीलाल गोस्वामी , जयरामदास गुप् त , रामप्रसाद लाल आदि ने भी ऐसे कुछेक उपन्यास लिखे हैं।
प्रेमचन्दयुगीन हिन्दी उपन्यास
प्रेमचन्द युग की समय – सीमा सन् 1918 से सन् 1936 तक मानी जाती है। यह समय – सीमा छायावाद युग की भी है। हिन्दी उपन्यास के विकास में प्रेमचन्द और उनके युग का बहुत महत्व है। सेवासदन ( 1918 ई .) , प्रेमाश्रम ( 1921 ई .) , रंगभूमि ( 1925 ई .) , कायाकल्प ( 1926 ई .) , निर्मला ( 1927 ई .) , गबन ( 1931 ई .) , कर्मभूमि ( 1932 ई .) , गोदान ( 1936 ई .) और मंगलसूत्र ( 1936 ई .- अधूरा ) आदि प्रेमचन्द के प्रसिद्ध उपन्यास हैं। प्रेमचन्द ने सीधी – सरल भाषा में लिखा है। उनका मानना है की उन्होंने आलोचकों के लिए नहीं बल्कि पाठकों के लिए लिखा है।
प्रेमचन्द से प्रभावित होकर उपन्यास लेखन में प्रवृत्त होने वाले रचनाकारों में विश् वम्भरनाथ शर्मा कौशिक , श्रीनाथ सिंह , शिवपूजन सहाय , भगवतीप्रसाद वाजपेयी , चंडीप्रसाद ‘ हृदयेश ’ राजाराधिकारमणप्रसाद सिंह , सियारामशरण गुप् त आदि प्रमुख हैं। विश् वम्भरनाथ शर्मा कौशिक (1891-1945 ई .) के दो उपन्यास माँ और भिखारिणी को पर्याप् त प्रसिद्धि मिली है। प्रेमचन्द युगीन उपन्यासकारों में शिवपूजन सहाय का एक मात्र उपन्यास देहाती दुनिया (1926 ई .) प्रसिद्ध है। चंडीप्रसाद ‘ हृदयेश ’ के उपन्यासों में भावपूर्ण आदर्शवादी शैली में मनुष्य की सद्वृत्तियों की महिमा अंकित की गई है। प्रेमचन्द की तरह ही राजा राधिकारमणप्रसाद सिंह (1890 ई .-1971 ई .) और सियारामशरण गुप् त ने भी गांधीवादी दर्शन से प्रभावित होकर उपन्यासों की रचना की है।
प्रेमचन्द युग की समय – सीमा सन् 1918 से सन् 1936 तक मानी जाती है। यह समय – सीमा छायावाद युग की भी है। हिन्दी उपन्यास के विकास में प्रेमचन्द और उनके युग का बहुत महत्व है। प्रेमचन्द पहले ऐसे उपन्यासकार हैं , जिन्होंने भारतीय जन – जीवन की समस्याओं को गहराई से समझा। उनके उपन्यास आम आदमी के दुख – दर्द की दास्तान हैं।
प्रेमचन्द से प्रभावित होकर उपन्यास लेखन में प्रवृत्त होने वाले रचनाकारों में विश् वम्भरनाथ शर्मा कौशिक , श्रीनाथ सिंह , शिवपूजन सहाय , भगवतीप्रसाद वाजपेयी , चंडीप्रसाद ‘ हृदयेश ’ राजाराधिकारमणप्रसाद सिंह , सियारामशरण गुप्त आदि प्रमुख हैं। विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक (1891-1945 ई .) के दो उपन्यास माँ और भिखारिणी को पर्याप् त प्रसिद्धि मिली है। प्रेमचन्द युगीन उपन्यासकारों में शिवपूजन सहाय का एक मात्र उपन्यास देहाती दुनिया (1926 ई .) प्रसिद्ध है। चंडीप्रसाद ‘ हृदयेश ’ के उपन्यासों में भावपूर्ण आदर्शवादी शैली में मनुष्य की सद्वृत्तियों की महिमा अंकित की गई है। प्रेमचन्द की तरह ही राजा राधिकारमणप्रसाद सिंह (1890 ई .-1971 ई .) और सियारामशरण गुप्त ने भी गांधीवादी दर्शन से प्रभावित होकर उपन्यासों की रचना की है।
प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी उपन्यास
प्रेमचन्दोत्तर युग में दो पीढियाँ उपन्यास लेखन में सक्रिय रही हैं। एक पीढ़ी उन उपन्यासकारों की है , जिनका मानस संस्कार प्रेमचन्द युग में बना लेकिन उन्होंने बाद में अपनी नई राह बना ली। दूसरी पीढ़ी उन उपन्यासकारों की है जो स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद इस क्षेत्र में आई। उन उपन्यासकारों ने उपन्यास लेखन में नई सम्भावनाओं की ओर संकेत किया। रामचन्द्र तिवारी का मानना है कि पिछले कुछ वर्षों में उपन्यास लेखकों की एक तीसरी पीढ़ी भी तैयार हो गई। ये पीढियाँ मूल्य और मान्यता के स्तर पर एक – दूसरे से जुडी हुई हैं।
अगर वर्गीकरण की बात की जाए तो सामान्यत : इन उपन्यासों को सामाजिक , मानवतावादी , स्वच्छन्दतावादी , प्रकृतवादी , व्यक्तिवादी , मनोविश्लेषणवादी , सामाजिक यथार्थवादी , ऐतिहासिक और आंचलिक वर्गों में रखा जा सकता है। वैसे इस वर्गीकरण के बावजूद कई ऐसे उपन्यास हैं जिनमें कई वर्गों की प्रवृत्तियाँ घुल – मिल गई हैं। इस वर्गीकरण के अलावा कई उपन्यासों में आधुनिकता और जनवाद को केन्द्र में रखा गया है।
इस युग में अमृतलाल नागर ने अपने उपन्यासों में विविध विषयों को सफलतापूर्वक कथानक का रूप दिया। बूँद और समुद्र में नागर की औपन्यासिक शक्ति पूरी तरह उभर कर सामने आई है। बूँद और समुद्र के माध्यम से उन्होंने व्यक्ति और समाज की बात की है। उन्होंने शतरंज और खिलाड़ी जैसा ऐतिहासिक उपन्यास लिखा तो सुहाग के नुपूर , नाच्यौ बहुत गोपाल और अग्निगर्भा जैसे सामाजिक समस्याओं पर केन्द्रित उपन्यास भी लिखे।
समकालीन उपन्यास लेखन की प्रवृत्तियाँ
सन् 1990 के आस – पास भारतीय समाज में नवीन हलचलें प्रारम्भ हुईं। सन् 1992 में मन्दिर – मस्जिद का विवाद उठा और बाबरी मस्जिद तोड़ी गई। समाज में एक तरफ साम्प्रदायिक शक्तियाँ सक्रिय थीं , तो दूसरी तरफ लोग जातियों में भी लामबंद होने लगे थे। मण्डल – कमण्डल और मन्दिर – मस्जिद विवाद ने ऐसी सामाजिक हलचल को जन्म दिया जहाँ से उपन्यासकारों को उपन्यास लेखन की नई खुराक मिली। दूधनाथ सिंह ( आखिरी कलाम ), संजीव ( त्रिशूल ), अब्दुल बिस्मिल्लाह ( मुखड़ा क्या देखे ), असग़र वजाहत ( सात आसमान , कैसी आगि लगाई ), मैत्रेयी पुष्पा ( अल्मा कबूतरी ), चित्रा मुद्गल ( आंवा ), मृदुला गर्ग ( इदन् नम ), गीतांजलि श्री ( माई ), नासिरा शर्मा ( जिन्दा मुहावरे ), गोविन् द मिश्र आदि इस काल खण्ड के प्रमुख हस्ताक्षर हैं।
इसी समय दलित , स्त्री , आदिवासी और थर्ड जेण्डर (third gender) विमर्श साहित्य में अपनी जगह बनाने लगे। कहा जाता है कि सन् 1970 में महाराष्ट्र के दलित पैन्थर ने ‘ दलित ’ शब्द का प्रचार किया। सबसे पहले सन् 1960 के आस – पास मराठी भाषा में दलित लेखन शुरू हुआ। मराठी दलित साहित्य आम्बेडकर की विचारधारा पर आधारित है। हिन्दी में दलित लेखन की शुरुआत सन् 1980 के आस – पास हुई। दलित साहित्य में आत्मकथाएँ , कहानियाँ और कविताएँ अधिक लिखी जा रही हैं।
निष्कर्ष
हिन्दी उपन्यास साहित्य आधुनिक युग की देन है। आधुनिक युग में ही शुरू होकर उपन्यास साहित्य ने जिस ऊँचाई को प्राप् त किया है , अन्य गद्य विधाओं ने नहीं। इसका सीधा – सा कारण है कि उपन्यास में रचनाकार को अपनी बात कहने का अवकाश मिलता है। सामाजिक हलचलों के साथ चलने वाली गद्य की यह अनोखी विधा है। आज यह नए – नए रूपों में पुष्पित – पल्लवित हो रही है। इस क्षेत्र में कई उपन्यास पौराणिक विषय को आधुनिक सन्दर्भ देते हुए लिखे गए तो कई आधुनिक विषय को भिन् न – भिन् न स्वरूप देते हुए।
समकालीन समय में काशीनाथ सिंह , मंजूर एहतेशाम , असगर वजाहत , अब्दुल बिस्मिल्लाह , विनोदकुमार शुक्ल , मनोहरश्याम जोशी , संजीव , चित्रा मुद्गल , मैत्रेयी पुष्पा , नासिरा शर्मा , अलका सरावगी , जया जादवानी , मधु कांकरिया आदि उपन्यास लेखन में सक्रिय हैं। समकालीन हिन्दी उपन्यास साहित्य आदिवासी विमर्श को भी अपने केन्द्र में रखता है। इन उपन्यासों में आदिवासियों का जंगल – जमीन से जुड़ाव , उन्हें जंगल – जमीन से दूर करने के सरकारी पैतरों और उनकी अस्मिता से जुड़े प्रश् न उठाए गए हैं।
इसे भी पढ़ें : निर्मल वर्मा का यात्रा वृत्त : “चीड़ों पर चाँदनी”