जातीयता के गुण का प्रतिपाध लिखिए ?
जातीयता के गुण का प्रतिपाध लिखिए ?
जातीयता के गुण : जाति व्यवस्था का इतिहास हजारों वर्ष का है। वास्तव में भारतीय समाज में जाति प्रथा द्वारा कई कार्य संपन्न होते आए है तथा आज भी हो रहे हैं। कई दूसरों के होते हुए भी आज भी जाति प्रथा का महत्व किसी ना किसी रूप में बना हुआ है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि जाति प्राचीन काल से अब तक भारतीय सामाजिक व्यवस्था में विशेष भूमिका निभाती रही है। हमारे सामाजिक जीवन में जाति प्रथा का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति का निर्धारण करना।
जाति प्रथा के गुण (जातीयता के गुण) अथवा कार्य निम्न प्रकार से है-
मानसिक सुरक्षा
जाति व्यवस्था अपने सदस्यों को मानसिक सुरक्षा प्रदान करती है। यह एक ऐसा मनोवैज्ञानिक वातावरण पेश करती है जिसमें सभी को पता है कि उनकी स्थिति क्या है और उन्हें क्या करना है इस तरह यह मानसिक संघर्ष से बचाती है।
सामाजिक सुरक्षा
जाति प्रथा अपने सदस्यों को हर तरह की सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है। जब व्यक्ति असहाय होता है अथवा किसी कठिनाई में फंस जाता है तो जाति के सभी सदस्य किसी ना किसी रूप में उसकी मदद करते हैं। व्यक्ति सोचता है कि वह अकेला नहीं है उसकी जाति के अन्य लोग भी उसके साथ हैं।
व्यवहारों पर नियंत्रण
जातीय नियमों का उल्लंघन करने पर सदस्यों को प्रताड़ित किया जाता है निंदा की जाती है तथा रोटी-बेटी का संबंध भी तोड़ दिया जाता है। इस तरह जाति व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक स्थाई वातावरण बनाए रखती है। जिसमें जातीय सदस्यों को व्यवहार का एक निश्चित मापदंड बनाए रखने में मदद मिलती है।
सामाजिक परिस्थिति का निर्धारण
जाति व्यवस्था द्वारा हर व्यक्ति को जन्म से ही एक विशेष सामाजिक स्थिति प्रदान की जाती है। व्यक्ति की समृद्धि तथा निर्धनता उसकी सफलताओं और असफलताओं पर कोई ध्यान दिए बगैर जाति हर व्यक्ति को एक ऐसी सामाजिक स्थिति प्रदान करती है जिससे व्यक्ति का जीवन पूर्णतया संगठित रह सके।
व्यवसायों का निर्धारण
जाति व्यवस्था का एक अन्य कार्य व्यक्ति के व्यवहार को निर्धारित करना है। बच्चे अपने पिता के व्यवसाय को करना सीख जाते हैं। अतः जाति तकनीकी प्रशिक्षण देने का भी कार्य करती है। हर जाति का एक निश्चित व्यवसाय है जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता है।
जीवन साथी चुनाव मे सहायक
जाति व्यवस्था व्यक्ति को जीवन साथी का चयन करने में भी मदद प्रदान करती है। जाति सदस्यों पर वैवाहिक प्रतिबंध लगाती है एवं उनको इन नियमों के अंतर्गत ही विवाह करना होता है। अतः जीवनसाथी का चयन अपनी ही जाति से करना पडता है।
धार्मिक सुरक्षा
श्री देसाई के अनुसार,” यह जाति ही है जो जनता के धार्मिक जीवन में अपनी स्थिति को निश्चित करती है।” हर जाति के देवता तथा धार्मिक कृत्य एवं संस्कार होते हैं। उसने जाति के सदस्य विशेष श्रद्धा तथा प्रेम की दृष्टि से देखते हैं एवं उनकी प्राण-प्रण से रक्षा करते हैं।
समाज मे स्थिरता
हमारे समाज में आज जो स्थिरता दिखाई देती है उसका मूल कारण जाति व्यवस्था है। जाति प्रथा के कारण भारतीय सामाजिक ढांचा अपरिवर्तनशील है तथा जब सामाजिक ढांचा अपरिवर्तनशील होता है तो उस में स्थिरता होती है।
संस्कृति का हस्तांतरण
सभी जाति की अपनी एक विशेष संस्कृति होती है इसका तात्पर्य है कि हर जाति में बच्चों को शिक्षा देने, व्यवहार करने, सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्र में कुशलता प्राप्त करने एवं व्यक्तित्व का विकास करने से संबंधित कुछ विशेषता अवश्य पाई जाती है। जाति व्यवस्था के कारण यह सभी विशेषताएं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती रहती है।
रक्त की शुद्धता
जातीयता के गुण द्वारा रक्त की शुद्धता में परम सहायता मिलती है। हर व्यक्ति अपनी जाति में विवाह करता है। अतः रक्त की शुद्धता बनी रहती है तथा रक्त का मिश्रण नहीं हो पाता।
व्यावसायिक कुशलता मे वृद्धि
जाति व्यवस्था के कारण व्यक्ति जन्म से ही अपने व्यवसाय में लग जाता है तथा निपुणता प्राप्त कर लेता है। इस विषय में एक विद्वान ने लिखा है,” कि कार्य कुशलता में वृद्धि जाति प्रथा द्वारा हुई है।
भारतवर्ष में जाति प्रथा के भले ही अपने लाभ रहे हो तथा यह व्यक्तिगत समुदायिक तथा सामाजिक दृष्टि से कितनी ही उपयोगी क्यों ना रही हो। वर्तमान भारत की बदलती हुई परिस्थितियों में जाति प्रथा देश के लिए वरदान की अपेक्षा अभिशाप बन गई है। यही कारण है कि जाति प्रथा के कारण देश को अनेक सामाजिक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
जाति प्रथा के दोष अथवा हानियां निम्न प्रकार से हैं–
अस्पृश्यता को प्रोत्साहन
जाति प्रथा के कारण अस्पृश्यता को प्रोत्साहन मिला है। हिंदू समाज के लिए अस्पृश्यता अत्यंत ही अमानुषिक है जो मानव मानव में भेद तथा शोषण पर आधारित है। अस्पृश्यता में सिर्फ छूने का ही निषेध नहीं है अपितु इसमे अप्रवेश्यता और अदर्शनीयता के नियम भी पाये जाते है। जाति प्रथा ने जिस थोड़े आदर्शों का प्रतिपादन किया है, उसने समाज के नागरिकों को अनेक अधिकारों और कर्तव्यों से वंचित कर दिया है। इसका परिणाम यह होता है कि मानव समाज मे घृणा और द्वेष का बीजारोपण होता है।
उच्च जाति की तानाशाही
जाति प्रथा भारतीय सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था है, जिसमें उच्च जाति के सदस्यों को अनेक प्रकार के विशेष अधिकार प्रदान किए गये हैं। समाज में जब किसी वर्ग विशेष को अधिकार प्रदान किए जाते हैं तो उनका परिणाम समाज के सामने निम्न वर्ग के साथ अन्याय के रूप में प्रकट होता है। जाति प्रथा ही वह कारण है जिसने निम्न जाति के सदस्यों को पशुत्व जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य किया है। समाज में देवदासी नामक प्रथा का प्रचलन उच्च जाति के सदस्यों के कर्मों का ही परिणाम है।
भाग्यवाद को प्रोत्साहन
जाति प्रथा ने भाग्यवाद और कर्म फल जैसे सिद्धांतों का प्रतिपादन करके मानव समाज के एक भाग को अकर्मण्य और निठल्ला बना दिया है। यही कारण है कि भारतीय समाजवाद, रूढ़िवाद, परंपरा और अंधविश्वास का शिकार है। जाति प्रथा में सभी व्यक्तियों के कार्य और व्यवसाय पूर्व निर्धारित होते हैं तथा उनका एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरण होता रहता है। इस व्यवस्था में व्यक्ति के प्रयासों को कोई खास महत्व नहीं दिया जाता यह व्यवस्था व्यक्ति को आलसी बनाती है तथा सारा समाज भाग्यवाद के शिकंजे में जकड़ जाता है।
अप्रजातान्त्रिक
जाति व्यवस्था अप्रजातांत्रिक है। यह व्यवस्था समानता की भावनाओं पर प्रहार करती है एवं समाज में ऊंच-नीच की भावनाओं को जन्म दिया है।
सामाजिक प्रगति मे बाधक
जाति प्रथा सामाजिक प्रगति में सदैव बाधक रही है। जाति के सदस्यों को हमेशा जाति बहिष्कार का भय लगा रहता है। अतः अपने परंपरागत दृष्टिकोण का परित्याग नहीं करते तथा ना ही किसी अन्य समाज की अच्छाई को ग्रहण करने की चेष्टा करते हैं। इसके अलावा कार्य जन्म से निश्चित हो जाने के कारण सारे समाज की क्रिया स्थिर हो जाती है।
सांस्कृतिक विकास मे बाधक
जाति सांस्कृतिक विकास में एक बाधा का कार्य करती है। इसके अंदर के विभाजन तथा ऊंच-नीच की भावना रहने से सांस्कृतिक एकता का अभाव बना रहता है।
व्यक्तित्व के विकास मे बाधक
सभी व्यक्तियों की शारीरिक मानसिक क्षमता समान नहीं होती अतः समाज का हित इसी में है कि व्यक्तिगत क्षमता के आधार पर ही कार्यों का विभाजन किया जाए। जाति व्यवस्था में इस सिद्धांत की पूर्ण अवहेलना की जाती है।
राष्ट्रीयता मे बाधक
जाति प्रथा में उच्च और नीच की भावना होती है जिससे व्यक्ति विभिन्न संस्तरणों में विभाजित हो जाता है। यह संस्तरण एक व्यक्ति को दूसरे से अलग कर देता है। जिससे सदस्यों में भेदभाव की भावना का विकास हो जाता है। इससे सदस्यों में हम के भावना का विकास नहीं हो पाता है। देश खण्डों तथा उपखण्डों में विभाजित हो जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि राष्ट्रीय एकता और समानता की भावना का विकास नहीं हो पाता है यही कारण है कि जाति प्रथा को संगठित राष्ट्रीयता के विकास में बाधा उत्पन्न करती है।
सामाजिक समस्याओं का जन्म
जाति प्रथा अनेक कठोर प्रतिबंधों पर आधारित होती है। इन प्रतिबंधों में अंतर्विवाह प्रमुख है। इस प्रतिबंध के कारण विवाह की अनेक समस्याओं का जन्म होता है इन समस्याओं में बाल विवाह, विधवा विवाह पर रोक, कुलीन विवाह तथा दहेज प्रथा प्रमुख है। कुलीन विवाह की प्रथा के कारण माता-पिता अपनी कन्या का विवाह कुलीन परिवार में करना चाहते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि कुलीन परिवार के वर की मांग बढ़ जाती है मांग अधिक हो जाने से तथा पूर्ति के साधन सीमित होने के कारण दहेज प्रथा को प्रोत्साहन मिलता है। दहेज प्रथा, बाल विवाह को प्रोत्साहित करती है। उपयुक्त समस्या अनेक सामाजिक बुराइयों को जन्म देती है इन बुराइयों के कारण हिंदू समाज में विघटनकारी शक्तियां क्रियाशील हो जाती है।
धर्म परिवर्तन
ऊंची जाति की अस्पृश्यता, आडंबर कई देवी देवता कट्टरता अत्याचार की नीति तथा व्यवहार के कारण लाखों हिंदू स्त्री पुरुषों ने ईसाई अथवा मुसलमान धर्म ग्रहण कर लिया।
विवाह का सीमित क्षेत्र
जाति व्यवस्था विवाह के क्षेत्र को सीमित करती है क्योंकि जाति एक अन्तर्विवाही समूह है एक जाति के सदस्य अपनी जाति से बाहर विवाह नहीं कर पाते परिणामस्वरूप बाल विवाह, बेमेल विवाह, कुलीन विवाह एवं दहेज प्रथा की समस्या पैदा होती हैं।
आर्थिक विकास मे बाधक
जाति व्यवस्था के द्वारा हर व्यक्ति को सिर्फ अपने परंपरागत व्यवसाय को करने की ही अनुमति मिलती है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति कई लाभ पेशों से वंचित रह जाता है। दूसरी तरफ कई लाभप्रद पेशे व्यक्ति की योग्यता तथा योग्यिता को देखे बिना ही कुछ विशेष जाति के सदस्यों को प्राप्त हो जाते हैं।
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