झूला नट – मैत्रयी पुष्पा

झूला नट – मैत्रयी पुष्पा | Jhoolanat Maitreyi Pushpa

झूला नट – मैत्रयी पुष्पा : ‘झूला नट’ उपन्यास में सरल रोचक तथा प्रवाहमयी भाषा का प्रयोग किया है। एक उदाहरण यहाँ दृष्टव्य है। अमूल्य रत्न हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है । उनके उपन्यासों ने भाषा के सौन्दर्य एवं निखार की दृष्टि से साहित्य में अभूतपूर्व उपलब्धि के साथ प्रस्तुत हुआ है।

झूला नट – मैत्रयी पुष्पा

गाँव की साधारण सी औरत है शीलो – न बहुत सुंदर और न बहुत सुघड़… लगभग अनपढ़ – न उसने मनोविज्ञान पढ़ा है, न समाजशास्त्र जानती है। राजनीति और स्त्री-विमर्श की भाषा का भी उसे पता नहीं है। पति उसकी छाया से भागता है। मगर तिरस्कार, अपमान और उपेक्षा की यह मार न शीलो को कुएँ-बावड़ी की ओर धकेलती है और न आग लगाकर छुटकारा पाने की ओर। वशीकरण के सारे तीर-तरकश टूट जाने के बाद उसके पास रह जाता है जीने का निःशब्द संकल्प और श्रम की ताकत – एक अडिग धैर्य और स्त्री होने की जिजीविषा… उसे लगता है कि उसके हाथ की छठी अंगुली ही उसका भाग्य लिख रही है… और उसे बदलना ही होगा।

मैत्रेयी न वक्तव्य देती हैं, न भाषण। वह पात्रों को उठाकर उनके जीवन और परिवेश को पूरी नाटकीयता में ‘देखती’ हैं। संबंधों के बीहड़ों में धीरे-धीरे उतरना उन्हें बेहद पठनीय बनाता है। शीलो की कहानी भी मैत्रेयी ने इदन्नमम, चाक, अल्मा कबूतरी और गोमा हँसती है की सहज विविधता ले लिखी है। न जाने कितनी स्थितियाँ, प्रसंग और घटनाएँ हैं जिनके चक्रव्यूहों में अनायास ही उनकी नायिकाओं के नख-शिख उभरते चलते हैं। मुहावरेदार, जीवंत और खुरदुरी लगने वाली भाषा की ‘गंवई ऊर्जा’ मैत्रेयी का ऐसा हथियार है जो उन्हें अपने समकालीनों में सबसे अलग और विशिष्ट बनाता है… वह उपन्यास की शिष्ट और प्राध्यापकीय मुख्यधारा की इकहरी परिभाषा को बदलने वाली निर्दमनीय कथाकार हैं। अपनी प्रामाणिकता में उनका हर चरित्र आत्मकथा होने का प्रभाव देता है और यही उनकी कथा-संपन्नता है।

‘झूला नट’ की शीलो का चरित्र

‘झूला नट’ की शीलो हिन्दी उपन्यास के कुछ न भूले जा सकने वाले चरित्रों में एक है। बेहद आत्मीय, पारिवारिक सहजता के साथ मैत्रेयी ने इस जटिल कहानी की नायिका शीलो और उसकी ‘स्त्री-शक्ति’ को फोकस किया है…

पता नहीं ‘झूला नट’ शीलो की कहानी है या बालकिशन की! हाँ, अंत तक, प्रकृति और पुरुष की यह ‘लीला’ एक अप्रत्याशित उदात्त अर्थ में जरूर उद्भासित होने लगती है।

निश्चय ही ‘झूला नट’ हिन्दी का एक विशिष्ट लघु-उपन्यास है…

‘झूला नट’ में बालकिशन का चरित्र

“ओ बालकिसना। जाग रे।”
पच्चीस वर्षीय इकहरी देह का बालकिशन बिस्तर पर सोया हुआ है।

बालकिशन पचीस वर्ष का है। उसके ब्याह के बाद वो अपनी पत्नी शीलो और अपनी माँ के बीच में हो रहे झगड़ों से परेशान है। वो इन दोनों के बीच अपने को घुटता महसूस करता है।
लेकिन सदा से ऐसे हालात नहीं थे। शीलो और बालकिशन के माँ के बीच कभी लड़ाईयाँ न ले बराबर होती थी। लेकिन वो तब की बात है जब शीलो बालकिशन के बड़े भाई सुमेर की पत्नी हुआ करती थी।

फिर ऐसा क्या हुआ जो बालकिशन शीलो के साथ रहना लगा। ऐसा क्या हुआ कि शीलो और बालकिशन की माँ के बीच ऐसी लड़ाईयाँ होने लगी। वही शीलो जिसके गुण गाते गाते बाकिशन की माँ  कभी थकती नहीं थी, उसी शीलो के लिये अब कभी कोई अच्छी बात उनके मुख से नहीं निकलती थी।

गाँव की पृष्ठभूमि में लिखे इस लघु उपन्यास के चरित्र जीवंत हैं और गाँव के समाज का सच्चा रूप प्रदर्शित करते हैं।

झूला नट है कहानी शीलो की जिसको उसके पहले पति के द्वारा किये गए तिरस्कार ने एक दूसरी औरत के रूप में बदल दिया है। समाज से लड़ते लड़ते वो अब उतनी मृदु भाषी नहीं जितना वो अपने ब्याह के वक्त थी। लेकिन दिल की वो अभी भी अच्छी है जिस बात को बालकिशन भली भाँति समझता है। वो अब इनसिक्योर हो गयी है जो बालकिशन को जानते हुए भी उस पर इसलिए भड़क जाती है क्योंकि वो शीलो की छोटी बहन को लाड कर रहा था।

वहीं यह कहानी बालकिशन की भी है। छोटे भाई होते हुए वो पहले से ही दबकर रहना सीख चुका है। इसलिए उसका व्यक्तित्व इतना सबल नहीं है। उसने अपनी भाभी का तिरस्कार होते हुए देखा है और इससे उनके प्रति उसके अन्दर सांत्वना पैदा हो जाती है। इसलिए जब उसकी माँ उसे शीलो के पास भेजती है तो वो उससे शारीरिक सम्बन्ध भी बना लेता है। लेकिन वो अपने  माँ और बीवी , जो कि दोनों ही तेज तर्रार हैं, के बीच के द्वन्द में अपने को पिसता हुआ पाता है। और ये घुटन इतनी बढ़ जाती है कि वो सब छोड़-छाड़ कर चला जाता है।

इसके इलावा उपन्यास के अन्य किरदार हैं जो गाँव के जीवन और उसके समाज का खाका पाठकों के सम्मुख पेश करते हैं। वो गाँव के लोगों की मान्यता और उनकी सोच की दिशा को सटीक तरीके से दर्शाते हैं।

यह उपन्यास गाँव को उन लोगों के सम्मुख लाने का काम करते हैं जो कि शहर में हैं और जिनका  खुद का गाँव में रहना का अनुभव नगण्य है।
उपन्यास मुझे बेहद पसंद आया। हाँ बालकिशन का किरदार काफी कमजोर था। और उसके साथ मेरे हिसाब से वो सब घटित नहीं होता अगर उसका व्यक्तित्व थोड़ा ताकतवर होता।

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