कबीर को आप संत मानते हैं या समाज-सुधारक?

कबीर को आप संत मानते हैं या समाज-सुधारक? तर्कसहित अपना उत्तर दीजिए।

कबीर को आप संत मानते हैं या समाज-सुधारक? : कबीर के समय में समाज में अंधविश्वासों, आडम्बरों, कुरीतियों एवं विभिन्न धर्मों का बोलबाला था।

कबीर को आप संत मानते हैं या समाज-सुधारक?

कबीर महान समाज सुधारक थे उन्होने सत्य प्रेम का भण्डन तथा अज्ञान तथा घृणा का खण्डन किया है। कबीदास संत , कवि और समाजसुधारक थे , वे पूरे संसार में सुधार लाना चाहते थे , कबीर ने सधुक्कड़ी भाषा में समाज में फैली कुरीतियों का खण्डन किया। कबीर अमीर – गरीब , जाति पाति भेदभाव धन धान्य से परिपूर्ण जीवन में विश्वास नहीं करते थे।

कबीर के जन्म के बारे में अनेक कथायें प्रचलित हैं। माना जाता है कि उनका जन्म 1398 में काशी में हुआ। नीरू और नीमा ने कबीर का पालन पोषण करा। नीरू एक जुलाहा था। उसे एक बच्चा लहरतारा ताल के पास पड़ा मिला। वह उसे अपने घर ले आया और उसका नाम कबीर रखा। कुछ लोग कहते हैं कबीर जन्म से मुसलमान थे। युवावस्था में स्वामी रामानंद के प्रभाव से उन्हें हिन्दू धर्म का ज्ञान हुआ।

वे एक क्रांतदर्शी कवि थे जिनके दोहों और साखियों में गहरी सामाजिक चेतना प्रकट होती है। वे हिन्दू और मुसलमान के भेद भाव को नहीं मानते थे। उनका कहना था कि राम और रहीम एक हैं। वे सामाजिक ऊँच नीच को नहीं मानते थे। उनके लिए सब समान थे।

वे सामाजिक कुरीतियों को हटाना चाहते थे। सबको प्रेम और भाईचारे के साथ रहने की सीख देते थे। वे परोपकार को महत्वपूर्ण मानते थे। उदाहरण के लिए, एक दोहे में वे कहते हैं – बड़ा हुआ तो क्या हुआ …. पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।। अर्थात बड़े होने का कोई लाभ नहीं है यदि एक व्यक्ति दूसरे के काम न आये। जिस प्रकार खजूर का पेड़ बहुत बड़ा होता है, पर उसके फल बहुत दूर होते हैं इसलिए उनको खा नहीं सकते हैं। खजूर का पेड़ यात्रियों को छाया भी नहीं देता है।

”कबीर एक युगद्रष्टा तथा क्रांतिकारी कवि थे। राजनैतिक वातावरण में सजीव सामाजिक और धार्मिक सिद्धान्तों के प्रवर्तक कबीर ने प्राचीन मान्यताओं का खण्डन किया और समाज में परिवर्तन की धारा को प्रवाहित किया था। कबीर ने ज्ञान के हाथी पर चढ़कर सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक चेतना जागृत करने का प्रयत्न किया।“ कबीरदास को समाज से घृणा, तिरस्कार, अपमान और अवहेलना ही मिली। कबीर एक विद्रोही कवि बन गए। उन्होंने समाज की रूढ़ियों तथा आडंबरों का विरोध किया।

कबीर के समय में समाज में हर प्रकार के अंधविश्वासों, आडम्बरों, कुरीतियों एवं विभिन्न धर्मों का बोलबाला था। कबीर ने इन सब का विरोध करते हुए समाज को एक नवीन दिशा देने का पूरा प्रयास किया। इनके अलावा वे प्रेम की महत्ता को जानते थे इसलिए प्रेम को ऐसा कोड मानते थे जो स्वाद लाता है पर अपनी गुण को कह नहीं पाता।इनका प्रारंभिक जीवन काशी में बीता और मृत्यु मगहर में 1528 ई. में हुआ।

कबीर की समाज सुधार की भावना

कबीर महान समाज सुधारक थे। उनके समकालीन समाज में अनेक अंधविश्वासों, आडम्बरों, कुरीतियों एवं विभिन्न धर्मों का बोलबाला था। कबीर ने इन सब का विरोध करते हुए समाज को एक नवीन दिशा देने का पूर्ण प्रयास किया। उन्होंने जाती-पांति के भेदभाव को दूर करते हुए शोषित जनों के उद्धार का प्रयत्न किया तथा हिंदू मुस्लिम एकता पर बल दिया उनका मत था।

जाति-पांति पूछै नहीं कोई।
हरि को भजै सो हरि का होई।।

कबीर ने विभिन्न क्षेत्रों में समाज सुधार का प्रयास किया। उनके द्वारा किए गए इस प्रयास को निम्न शिर्षकों में समझाया जा सकता है:

1. मूर्ति पूजा का विरोध :-

कबीर नहीं समाज में मूर्ति पूजा का डटकर विरोध किया वह सामान्य जनता को समझाते हुए कहते हैं की मूर्ति पूजा से भगवान नहीं मिलते हैं इससे तो अच्छा है कि आप घर की चक्की को ही पूजा करें क्योंकि चक्की हमें खाने भर के लिए अनाज पीस कर दे देती है।

पाहन पूजैं हरि मिलैं तौ मैं पूजूं पहार।
घर की चाकी कोई ना पूजै पीस खाय संसार।

2.जीव हिंसा का विरोध

कबीर ने धर्म के नाम पर व्यक्त हिंसा का विरोध किया। हिंदुओं में शाक्तो और मुसलमानों में कुर्बानी देने वालों को उन्होंने निर्भीकता से फटकारा और कहा कि दिन में रोजा रखने वाले रात को गाय काटते हैं।इस कार्य से भला खुदा कैसे प्रसन्न हो सकता है।

दिन भर रोजा रखत है रात हनन है गाय।
यह तो खून वह बंदगी कैसी खुशी खुदा है।।
बकरी पाती खात है ताकी काढ़ी खाल।
जो नर बकरी खात है ताको कौन हवाल।।

3. राम रहीम की एकता का प्रतिपादन:-

कभी चाहते थे कि हिंदू मुसलमान प्रेम एवं भाईचारे की भावना से एक साथ मिल कर रहें। उन्होंने राम और रहीम की एकता स्थापित करते हुए बताया कि ईश्वर दो नहीं हो सकते। यह तो लोगों का भ्रम है जो खुदा को परमात्मा से अलग मानते हैं-

दुई जगदीस कहां ते आया कहु कौने भरमाया।

4. जाति-पाति तथा छुआछूत का विरोध

कबीर भक्त और कभी बात में है समाज सुधारक पहले हैं। उनकी कविता का उद्देश्य जनता को उपदेश देना और उसे सही रास्ता दिखाना है। उन्होंने जो गलत समझा उसका निर्भीकता से खंडन किया। अनुभूति की सच्चाई और अभिव्यक्ति की ईमानदारी कबीर की सबसे बड़ी विशेषता है। कबीर ने समाज में व्याप्त जाति प्रथा छुआछूत एवं ऊंच-नीच की भावना पर प्रहार करते हुए कहा कि जन्म के आधार पर कोई ऊंचा नहीं होता ऊंचा हुआ है जिस के कर्म अच्छे हैं

ऊंचे कुल का जनमिया करनी ऊंच न होय।
सुबरन कलस सुरा भरा साधू निंदत सोय।।

5. हिंदू पाखंड का खंडन

कबीर ने हिंदू पाखंड साधुओं एवं अंधविश्वासी जैसे हिंदुओं पर फटकारा। वे कहते थे की माला फेरने से परमात्मा या ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती हैं ईश्वर को अगर प्राप्त करना है तो मन की सुधि से ईश्वर प्रश्न होता है बल्कि हाथ में माला फेरने से और मुंह से ईश्वर का नाम जपते रहने से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। उसके लिए मन भी स्थिर होना आवश्यक है। वे इस पर कहते हैं

माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं।
मनुवा तो चहुँदिसि फिरै, यह ते सुमिरन नाहिं।।
माला फेरत जुग गया गया न मन का फेर।
कर का मनका डारि कै मन का मनका फेर।।

6. मुस्लिम प्रखंड का खंडन

कबीर सिर्फ हिंदुओं पर ही नहीं बल्कि मुसलमानों को भी पाखंडी कहा। मुसलमान दिन भर रोजा रखकर रात को यादी गौ हत्या करके ईश्वर को प्रसन्न करना चाहे तो यह नीरा भ्रम है। ईश्वर इस से प्रसन्न होने वाला नहीं है। वे समाज में व्याप्त बुराइयों के कटु आलोचक थे किंतु उनकी आलोचना सुधार भावना से प्रेरित था वे मुल्ला जो अजान के वक्त जोर-जोर से माइक में अल्लाह का नाम लेते हैं उन पर भी वे कड़ी फटकार लगाते हुए कहा

कंकर पत्थर जोरि कै मस्जिद लई बनाय।
ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय

7.तीर्थाटन का विरोध

कबीर ने हिंदू तथा मुसलमान जो तीर्थ यात्रा या भगवान की प्राप्ति के लिए यहां वहां भटकते हैं उन पर भी विरोध किया और कहा कि

गंगा नहाए कहो को नर तरिंगे
मछरी न‌ तरी जाको पानी में घर है।

8. संप्रदायिकता का विरोध

कबीर नहीं हिंदू और मुसलमान दोनों को ही एक समान माना है फिर चाहती थी कि हिंदू मुसलमानों में भाईचारे की भावना उत्पन्न हो। लेकिन वे आपस में ही लड़ मरते थे इस पर भी उन्होंने कहा

हिंदू कहे मोहे राम पियारा और तुरक रहमान।
आपस में दोऊ लरि मुए मरम न काहू जाना।।

निष्कर्ष

कबीर नैतिक मूल्यों को लोगों के अंदर से बाहर निकालना चाहते थे कबीर ऐसे संत थे जो जनता के सच्चे पथ प्रदर्शक कहे जा सकते हैं। उन्होंने व्यक्ति के सुधार पर इसलिए बल दिया क्योंकि व्यक्तियों से ही समाज बनता है वे चाहते थे कि हिंदू और मुसलमान में जो विडंबना है उसे खत्म कर सके उन दोनों में भाईचारे की भावना उत्पन्न कर सके और वैसे साधु या ढोंगी और अंधविश्वासों को भी समाप्त करना चाहते थे कबीर को समाज सुधारक के रूप में आज भी याद किया जाता है।

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