काव्य प्रयोजन

काव्य प्रयोजन | Kavya Prayojan

काव्य प्रयोजन का अर्थ होता है -काव्य के उद्देश्य। काव्य के आधार पर हमें जो प्राप्त होता है, उसे ही साहित्य प्रयोजन कहा जाता है। हर वस्तु का अपना विशिष्ट प्रयोजन होता है। साहित्य का सृजन एवं पठन-अध्ययन भी स्वद्देश्य होता है। सृजक तथा पाठक साहित्य से विशिष्ट प्रयोजन की अपेक्षा रखता है।

काव्य प्रयोजन | Kavya Prayojan

देश-कल और युग प्रवृत्तियों, रुचियों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप यह प्रयोजन बदलता रहा है। वैसे साहित्य का प्रयोजन उसके स्वरूप, उसकी प्रकृति पर निर्भर करता है। भारतीय तथा पाश्चात्य दृष्टिकोण अनुसार इसमें भिन्नता देखी जा सकती है। भारतीय दृष्टि आध्यात्मिक होने के कारण इसमें आध्यात्मिकता को आधार बनाकर काव्य प्रयोजन स्पष्ट किए गए है। तो पाश्चात्य दृष्टिकोण भौतिकवादी होने के कारण वह भौतिक सुखों को प्रधानता देते है।

भारतीय विद्वानों द्वारा प्रस्तुत साहित्य प्रयोजन 

संस्कृत के आचार्यों द्वारा प्रस्तुत साहित्य प्रयोजन संस्कृत के आचार्यों ने सृजक तथा पाठक दोनों को दृष्टि में रखते हुए काव्य प्रयोजन पर विचार किया है। इस दृष्टि से सर्वप्रथम आचार्य भरतमुनि के नाट्यशास्त्र  का उल्लेख होता है। किंतु नाट्यशास्त्र में नाम के अनुरूप ही नाट्य प्रयोजनों की चर्चा की गई है। भरतमुनि के अनुसार-

“दुखार्तांना श्रमार्तांना शोकर्तांना तपस्विनाम

विश्रामजनन लोके नाट्यमेतद भविष्यति।”

अर्थात दुख, श्रम, शोक से आर्त तपस्वियों के विश्राम के लिए ही लोक में नाट्य का उद्भव हुआ है। अन्य एक स्थल पर काव्य प्रयोजनों की ओर इंगित करते हुए वे लिखते है, कि धर्म, यश, आयु वृद्धि, हित-साधन, बुद्धि-वर्धन एवं लोकोपदेश ही नाट्य प्रयोजन है। आचार्य भरत के बाद आचार्य भामह काव्यालंकार में दो बातों को आधार बनाकर काव्य प्रयोजन की चर्चा करते है – १. कवि एवं पाठक को आधार मानकर २. केवल कवि को आधार मानकर। कवि ओर पाठक को आधार मानकर काव्य प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए वे कहते है –

“धर्मार्थ – काम-मोक्षेषु वैचभण्यं कलासुच

करोति कीर्ति प्रीतिच साधु काव्यनिवेषणम।”

अर्थात धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, कलाओं में विलक्षणता पाना, कीर्ति और आनंद की उपलब्धि ही काव्य का प्रयोजन है। जहां तक कवि का काव्य रचना के प्रयोजन से संबंध है, आचार्य भामह के अनुसार सत्काव्य की रचना करके कवि यश की अमरता प्राप्त करता है।

आचार्य दण्डी ने वाणी का महत्व प्रतिपादित करते हुए काव्य रचना के दो प्रयोजनों को स्वीकारा है – 1. ज्ञान की प्राप्ति और 2. यश की प्राप्ति।

आचार्य वामन ने कर्ता की दृष्टि से काव्य प्रयोजन पर प्रकाश डाला है। इन्होंने दृष्ट और अदृष्ट रूप में काव्य के दो प्रयोजन माने है। प्रीति या आनंद की साधना एवं कवी को कीर्ति प्राप्त कराना आदि को काव्य प्रयोजन माना है।

आचार्य रुद्रट ने ‘यश’ को अधिक महत्व दिया है। साथ ही वे अनर्थ का नाश और अर्थ की प्राप्ति को भी काव्य का प्रयोजन मानते है। अनर्थ के नाश से पाठक और श्रोता सुख-आनंद की प्राप्ति करता है।

आचार्य आनंदवर्धन आनंद की प्राप्ति को काव्य का प्रयोजन मानते है। दूसरे शब्दों में रसास्वादन को वे काव्य का प्रमुख प्रयोजन मानते है। आचार्य अभिनवगुप्त,आचार्य कुंतक आदि ने भी काव्य प्रयोजनों पर अपने विचार व्यक्त किए है। इन सभी में आचार्य मम्मट का दृष्टिकोण समन्वयवादी रहा है। वे कहते है –

“काव्य यशसेर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये

सद्यःपरिनिर्वृत्तये कांतासम्मितयोपदेश युजे।”

अर्थात काव्य का प्रयोजन यश, अर्थ -प्राप्ति, व्यवहार की शिक्षा देना और जीवन के शिव पक्ष की रक्षा करना है। इसक साथ “सद्यःपरिनिर्वृत्तये” अर्थात काव्य पढते ही शांति अर्थात आनंद की प्राप्ति होती है। तथा कांता (पत्नी) के समान उपदेश करना भी काव्य के प्रयोजन है।

आ. भरतमुनि से लेकर आ.मम्मट तक के विद्वानों ने काव्य प्रयोजनों को जिस रूप में स्वीकारा है, वे निम्नानुसार है –

1. चर्तुवर्ग फलप्राप्ति – 

जीवन की सफलता चार पुरुषार्थ -धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में मानी गई है। आदिकालीन साहित्य का प्रयोजन अर्थ प्राप्ति रहा है। धर्म, काम, तथा मोक्ष लेखक और पाठक दोनों के लिए है। अर्थ प्राप्ति सृजक निष्ठ प्रयोजन है। मध्यकालीन हिंदी साहित्य के पूर्वाद्ध अर्थात भक्तिकाल में धर्म और मोक्ष प्रयोजन के रूप में रहे है। तो उत्तरार्ध अर्थात रीतिकाल अर्थ के प्रति आग्रही रहा है। आधुनिक कालीन समाज धर्म और मोक्ष की अपेक्षा अर्थ और काम की ओर अधिक झुका हुआ दिखाई देता है।

2 . यशप्राप्ति –

लगभग सभी संस्कृत आचार्यों ने यशप्राप्ति को साहित्य का प्रयोजन स्वीकार किया है। आचार्य रुद्रट ने इस प्रयोजन पर विशेष रूप से ध्यान दिया है। यश मनुष्य जीवन की उदात्त और सर्वोपरि कामना है। यश प्राप्ति की कामना हर कवि में होती है। अन्यथा प्रत्येक रचना के साथ कवि या लेखक अपना नाम न लिखता। आदिकाल, रीतिकाल के रचनाकार यश प्राप्ति के लिए लिखते रहे। भक्तिकाल के कवि भी यश कामना से रहित नहीं थे। आधुनिक रचनाकारों में भी यश कामना प्रबल रूप में विद्यमान है। प्राप्त यश, प्रशंसा और अधिक लिखने के लिए प्रवृत्त करती है।

3 . व्यवहार ज्ञान – 

आचार्य भरतमुनि, आ. भामह, आ. कुंतक तथा आचार्य मम्मट इस प्रयोजन का प्रतिपादन करते है। यह पाठक निष्ठ प्रयोजन है। यह प्रयोजन जीवन के वास्तविक सत्य को पहचानने के लिए एक नई दृष्टि प्रदान करता है। अपने भौतिक यथार्थ का साक्षात्कार भी वह कराता है।

4 . अमंगल का नाश- 

आचार्य मम्मट ने शिवेतरक्षतये के रूप में दैहिक और भौतिक अमंगल के नाश को साहित्य का प्रयोजन माना है। भक्तिकालीन कवि दैहिक, दैविक, भौतिक अमंगल के नाश के लिए साहित्य का सहारा लेता है। धार्मिक ग्रंथ रामचरितमानस भी ग्रंथ पठन के बाद फल की लंबी सूची प्रस्तुत करता है। वैसे आज के वैज्ञानिक युग में इस प्रयोजन की कोई विशेष प्रासंगिकता नहीं रही है। मात्र मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानसिक असंतुलन से मुक्ति तथा सुधारवादी दृष्टि से सामाजिक अमंगजल का नाश साहित्यिक प्रयोजन कहे जा सकते है।

5. आनंदप्राप्ति –

इसे भी लगभग सभी संस्कृत आचार्यों ने काव्य का प्रयोजन माना है। काव्यानंद द्विविध प्रयोजन है। सृजन की प्रक्रिया के दौरान सृजक तथा पठन-आस्वादन के दौरान पाठक इसके अधिकारी होते है। काव्यानंद को ही ब्रम्हानंद सहोदर कहा गया है। सृजनात्मकता का आनंद भौतिक सुखानुभूति से नितांत भिन्न होता है। इसलिए उसे अलौकिक आनंद भी कहा जाता है।

6. कांतासम्मितयोपदेशयुजे –

आचार्य मम्मट ने यह लेखकनिष्ठ प्रयोजन माना है। पत्नी के समान मधुर उपदेश देना भी काव्य का एक प्रयोजन है। मध्यकालीन एवं अन्य संतों की रचनाएं भी इसी कोटी में आती है। जिस प्रकार पत्नी का उपेदश सीधा न होकर मधुर भाषा में तथा प्रच्छन्न रूप में होता है, उसी प्रकार साहित्यकार का भी उपदेश होता है। संक्षेप में भारतीय आचार्य आनंद-आल्हाद को साहित्य का प्रमुख प्रयोजन मानते है। तथा अपने युगीन साहित्य तथा परिवेश के अनुरूप साहित्य की प्रकृति के अनुकुल अन्य प्रयोजनों को भी समाविष्ट करने का प्रयास हुआ है।

हिंदी के विद्वानों द्वारा प्रस्तुत साहित्य प्रयोजन –

 हिंदी के विद्वानों ने भी साहित्य के प्रयोजनों पर विस्तार से विचार किया है। भक्तिकालीन भक्त कवियों की रचनाओं में भी साहित्य प्रयोजनों की ओर संकेत किया गया है। संत कबीर लोकमंगल के समर्थक रहे है। तुलसीदास  की रचनायें ‘स्वांत: सुखाय’ रही है। अर्थात आनंद और लोकमंगल उनका काव्यप्रयोजन रहा है। सूरदास तथा अन्य कृष्ण भक्त कवि आनंद को अधिक महत्त्व देते है।

रीतिकालीन कवियों ने काव्य प्रयोजन के संबंध में कोई मौलिक उद्भावना व्यक्त नहीं की है। संस्कृत के काव्य शास्त्र मतों को ही उन्होंने दोहराया है।

आधुनिक काल के विद्वानों पर संस्कृत तथा पाश्चात्य विचारकों का प्रभाव दिखाई देता है।

आ.महावीरप्रसाद द्विवेदी आनंद और ज्ञान प्राप्ति को काव्य प्रयोजन मानते है। आ.रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य प्रयोजन के रूप में लोकमंगल की भावना और आनंद तथा रस को माना है।

कविवर अयोध्याप्रसाद सिंह ने सरसता, मुग्धता, ज्ञान, नित्युपदेश और आनंद को काव्य प्रयोजन माना है।

कविवर मैथिलीशरण गुप्त मनोरंजन और उपेदश-ज्ञान को महत्व देते है।

जयशंकार प्रसाद मनोरंजन और शिक्षा का काव्य प्रयोजन मानते है। छायावादी कवियों ने मनोरंजन तथा शिक्षा को साहित्य प्रयोजन माना है।

प्रगतिशील रचनाकर प्रेमचंद के अनुसार साहित्य के तीन लक्ष्य है – परिष्कृति, मनोरंचन,उद्घाटन।

अन्य प्रगतिशील रचनाकार गजानन माधव मुक्तिबोध ने साहित्य का उद्देश्य सांस्कृतिक परिश्कार माना है।

डाॅ.हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने लोकमंगल पर बल दिया है।

 पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रस्तुत साहित्य प्रयोजन –

पाश्चात्य विद्वानों ने काव्य प्रयोजन की चर्चा वस्तुपरक दृष्टिकोण से की है। जीवन और समाज की व्यावहारिकताओं पर दृष्टि रखकर यह साहित्य प्रयोजन स्पष्ट किए गए है। साहित्य की उपयोगिता और साहित्य की कलात्मकता को ध्यान में रखकर इन प्रयोजनों को देखा जा सकता है।  

युनानी आचार्य –

युनानी दार्शनिक प्लेटो लोकमंगल को साहित्य का प्रयोजन मानते है। वे साहित्य को उसी सीमा तक ग्राह्य मानते है, जिस सीमा तक वह राज्य और मानव को उपयोगी हो। प्लेटो के शिष्य अरस्तु ने साहित्य के दो प्रयोजन स्वीकार किए है। 1. ज्ञानार्जन या शिक्षा 2. आनंद

रोमन आ. होरेस का दृष्टिकोण समन्वयवादी रहा है। उनके मतानुसार कवि का उद्देश्य या तो उपयोगितावादी होता है या फिर आल्हादमयी।

स्वच्छंदतावादी-

स्वच्छंदतावादी विद्वान-रचनाकारों ने आनंद प्रदान करना साहित्य का प्रमुख प्रयोजन माना है। इसमें काॅलरिज, वर्ड्सवर्थ आदि प्रमुख है।

लोकमंगलवादी –

स्वच्छंदतावादी विचारधारा के उपरांत युरोप में लोकमंगलवादी विचारधारा का प्राबल्य रहा। रस्किन बाॅंड, लियो, टाल्सटाॅय, आर्नल्ड आदि रचनाकारों ने नीति के उपदेश के साथ आनंद को साहित्य का प्रयोजन माना है।

कलावादी –

स्विन बर्नर, ब्रेडले, आॅस्कर वाइल्ड, वाॅल्टर पेटर काव्य प्रयोजन स्पष्ट करते हुए मानते है कि काव्य काव्य के लिए या कला कला के लिए होती है।  

मनोविज्ञानवादी –

मनोविज्ञानवादीयों ने साहित्य को दमित वासनाओं की अभिव्यक्ति माना है। इसलिए उनके अनुसार काव्य और कला का प्रयोजन मानसिक संतुलन प्रदान करना है, जिससे पाठक को मानसिक स्वास्थ लाभ प्राप्त होकार वह सुखी रहे।

मार्क्सवादी –

मार्क्सवादी व्यक्ति को महत्व न देकर समाज को महत्व देते है। उनके लिए साहित्य का मुख्य प्रयोजन समाज कल्याण है। उनकी दृष्टि में श्रेष्ठ साहित्य वही है, जो व्यक्ति को नैतिक , सामाजिक , राजनैतिक शिक्षा देकर उसकी सुप्त चेतना को जगाकर उसे समाज का उपयुक्त अंग बनाने में सहायक हो।

इसके अतिरिक्त काव्य प्रयोजनों को पाश्चात्य विद्वानों निम्न रूप से भी स्पष्ट करने की चेष्टा की है। जिसके अनुसार – कला जीवन से पलायन है, कला जीवन में प्रवेश के लिए, कला सेवा के लिए, कला आत्मानुभूति के लिए, कला सृजन की आवश्यकता की पूर्ति के लिए और कला विनोद के लिए आदि। कुल मिलाकर पाश्चात्य विद्वानों ने आनंद तथा नीति उपदेश द्वारा लोकमंगल इन दो काव्य प्रयोजनों पर अधिक मात्रा में बल दिया है। आनंद के संदर्भ में कुछ विद्वान ज्ञानजन्य, भावजन्य तथा कुछ नीतिसापेक्ष आनंद का प्रयोजन स्वीकारते है।

इस प्रकार उपरोक्त मतों के निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि काव्य का सृजन निष्प्रयोजन नहीं होता।

इसे भी पढ़ें :  चिंतामणि – रामचंद्र शुक्ल

1 thought on “काव्य प्रयोजन”

Leave a Comment

close