प्रेमचंद युगीन हिंदी उपन्यास
प्रेमचंद युगीन हिंदी उपन्यास : प्रेमचंद युग 1918 से 1936 ईस्वी तक मान्य है।
प्रेमचंद युगीन हिंदी उपन्यास
हिंदी साहित्य में यह युग “छायावादी युग” के नाम से प्रसिद्ध है।
छायावादी युग अपनी समस्त दुर्बलताओं के बावजूद नवजागरण का युग था। भावावेग, आदर्शप्रियता, राष्ट्रीय भावना, स्वच्छंदता आदि प्रवृतियां नवजागरण की ही सूचना देने वाली है।
इन प्रवृतियों से प्रेमचंद भी प्रभावित थे। गांधीवादी आदर्श जीवन प्रणाली तथा सत्य और अहिंसा के वे प्रबल समर्थक थे।
पाश्चात्य प्रभाव को स्वीकार करते हुए भी वे भारतीय संस्कृति के मूलभूत आधार-आदर्श, संयम, त्याग, उदारता, सेवा, परोपकार आदि को जीवन-दर्शन का प्रेरक-तत्व मानते थे।
व्यवहारिक जीवन में प्रेमचंद जी ने गांधी जी के रचनात्मक कार्यों को पूर्णतः स्वीकार किया था। उनमे आर्य समाज की तार्किकता, गांधीजी की विनयशीलता तथा तिलक की तेजस्विता का अद्भुत समन्वय था।
वस्तुत प्रेमचंद युग की गतिशील जीवन-दृष्टि के निर्माण में आर्य समाज, तिलक और गांधी की विचारधारा का योग था।
1919 ईस्वी से भारतीय जीवन-चेतना के क्षितिज पर गांधीजी का पूर्ण प्रकाश फैल गया। वे देश के कर्णधार बन गए। उन्होंने सांप्रदायिक एकता, अस्पृश्यता निवारण, नशाखोरी दूर करना, ग्राम सुधार, स्त्रियों की उन्नति और बुनियादी शिक्षा, स्वास्थ्य और सफाई की भावना का प्रचार, राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रभाषा और राजभाषा प्रेम, किसानों-मजदूरों के प्रति सहानुभूति तथा छात्र संगठन के रचनात्मक कार्यों पर बल दिया।
प्रेमचंद के उपन्यासों पर इस गांधीवादी जीवन दृष्टि का प्रभाव
प्रेमचंद के उपन्यासों पर इस गांधीवादी जीवन दृष्टि का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। गांधीजी के रचनात्मक कार्यों के मूल में उनकी मानवतावादी विचारधारा कार्य कर रही थी।
प्रेमचंद भी ‘मानवतावाद’ से प्रभावित थे। उन्होंने जीवन में साहित्य का स्थान विषय पर विचार करते हुए लिखा है- आदिकाल से मनुष्य के लिए सबसे समीप मनुष्य है। हम जिसके सुख-दुख, हंसने-रोने का मर्म समझ सकते हैं। उन्हीं से हमारी आत्मा का अधिक मेल होता है। हमारी मानवता में जैसे विशाल और विराट होकर समस्त मानव जाति पर अधिकार पा जाती है।……… मानव जाति ही नहीं, चर और अचर, जड़ और और चेतन सभी उसके अधिकार में आ जाते हैं।
जीवन के अंतिम दिनों में प्रेमचंद की आदर्शवादी आस्था हिल उठी थी। सेवा सदन (1918) से लेकर गोदान (1936) तक आते-आते भीतर ही भीतर उनके विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन हो चुके थे।
गोदान उनकी परिपक्व जीवन दृष्टि का परिणाम है। यहां तक आते-आते प्रेमचंद का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद, यथार्थोन्मुख आदर्शवाद बन गया।
प्रेमचंद का गोदान एक ऐसी मनोभूमि पर प्रतिष्ठित है, जहां जैनेंद्र की आत्मकेद्रित अंतर्मुखी पीड़ा, इलाचंद्र जोशी की कामकुंठा जनित जटिल व्यक्ति चेतना, यशपाल का समाजवादी यथार्थवाद, भगवती चरण वर्मा और उपेंद्र नाथ ‘अश्क’ का रूमानी समाजोन्मुख व्यक्तिवाद तथा अमृतलाल नागर का सर्व मांगलिक मानववाद सभी के प्रेरणा-सूत्र लक्षित किए जा सकते हैं।
प्रेमचंद युग के अंतिम चरण में उपर्युक्त सभी प्रवृत्तियों का उन्मेष हो चुका था।
प्रेमचंद ने साहित्य को जीवन की व्यापक अनुभूति के साथ सम्बद्ध करके देखा था। उन्होंने उसे सुरुचि जागृत करने वाला, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति देने वाला, शक्ति और गति उत्पन्न करने वाला माना था।
इसलिए उनके उपन्यासों में व्यक्ति चेतना, समाज मंगल, यथार्थ की अनुभूति, आदर्श की कल्पना, आंतरिक मनोमंथन और भावद्वंद सभी कुछ मिल जाता है।
प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास
सेवा सदन (1918) वरदान (1921) प्रेमाश्रम (1922) रंगभूमि (1925) कायाकल्प (1926) निर्मला (1927) प्रतिज्ञा (1929) गबन (1931) कर्मभूमि (1932) गोदान (1936) और मंगलसूत्र (अधूरा) (1936 ई0) प्रेमचंद की प्रसिद्ध उपन्यास है।
इन उपन्यासों ने हिंदी भाषी जनता का मानसिक संस्कार किया है। इन के माध्यम से प्रेमचंद जी ने अपने युग की सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों का चित्रण अंकित किया है।
प्रेमचंद से प्रभावित होकर उन्हीं के रंग रंग के उपन्यासों की रचना में प्रयुक्त होने वाले उपन्यास कारों में- विशंभर नाथ शर्मा कौशिक, शिव पूजन सहाय, श्रीनाथ सिंह, भगवती प्रसाद वाजपेई, चंडीप्रसाद‘हृदयेश’, राजा राधिका रमन प्रसाद सिंह, सियारामशरण गुप्त आदि प्रमुख थे।
विशंभर नाथ शर्मा कौशिक (1891-1945)
आप के दो उपन्यास माँ (1929) और भिखारिणी (1929) प्रसिद्ध है।
दोनों ही उपन्यास मानव चरित्र की महिमा के धोतक और हृदय स्पर्शी हैं।
‘मां’ उपन्यास में माता की महिमा का प्रतिपादन किया गया है। लेखक ने यह दिखाने की कोशिश की है कि माता के त्याग और विवेक पर ही बालक का विकास निर्भर है। उपन्यास के अंत में दुष्टचरित्र पात्रों के जीवन में सुधार लाकर और सदचरित्र पात्रों को सुखी दिखाकर लेखक ने अपने सुधारवादी दृष्टि का परिचय दिया है।
भिखारिणी उपन्यास में अन्तर्जातीय विवाह की समस्या को उठाया गया है और मानव मन में सहज आकर्षण और जातीय बंधन की कठोरता के मार्मिक द्वन्द को बड़ी सहजता से चित्रित किया गया है। लेखक जातीय बंधन को तोड़ने का साहस नहीं दिखा सका है।
उपन्यास की नायिका ‘जस्सो’ रामनाथ के प्रेम की स्मृति को संजोये आजीवन भिखारिणी बनी रहती है।
श्री विशंभर नाथ शर्मा प्रेमचंद युग के टिपिकल उपन्यास लेखक कहे जा सकते हैं। उनमे वह गतिशीलता नहीं है, जो प्रेमचंद ने दिखाई देती है।
श्रीनाथ सिंह (1901 से 1995 ई0)
उलझन (1922) क्षमा (1925)एकंकिनी (1927) प्रेम परीक्षा (1927) जागरण (1937) प्रजामंडल (1941) एक और अनेक (1951) अपहृता(1952) आदि उपन्यास प्रकाशित हैं।
इन सभी उपन्यासों में प्रेमचंद युगीन आदर्शवादी प्रवृति लक्षित होती है।
शिवपूजन सहाय (1893 1963 ईस्वी)
आप का एकमात्र उपन्यास देहाती दुनिया (1926) है।
इसमें सरल ग्रामीण जीवन का सुबोध और प्रभावकारी चित्रण किया गया है।
स्वयं लेखक के शब्दों में- “ मैं ऐसे ठेठ देहात का रहने वाला हूँ, जहां इस युग की सभ्यता का बहुत ही हल्का प्रकाश पहुंचा है”।
वहां केवल दो ही चीजें देखने में आती हैं- अज्ञानता का घोर अंधकार और दरिद्रता का तांडव नृत्य। वहीं पर मैंने जो देखा सुना है उसे यथाशक्ति ज्यों का त्यों इसमें अंकित कर दिया है।
भगवती प्रसाद बाजपेई (1899 से 1973 ईस्वी )
आपने प्रेमचंद्र युग से लिखना आरंभ किया था।
आप की आठ कृतियां- प्रेमपथ (1926) मीठी चुटकी (1928) अनाथ पत्नी (1928) मुस्कान (1929) त्यागमयी (1932) प्रेम निर्वाह (1934) लालिमा (1934) तथा पतिता की साधना (1936) प्रेमचंद युग में प्रकाशित हो चुकी थी।
प्रारंभ में आपकी प्रवृत्ति आदर्शप्रधान एवं सुधारवादी वाले थे। धीरे-धीरे आपकी कृतियों में प्रेम की जटिलता, मनोविज्ञान द्वन्द, नारी जीवन की भूलभुलैया को प्रधानता मिलने लगी।
चंडीप्रसाद’हृदयेश’ (1898- 1936)
आप की उपन्यास मनोरमा (1924) मंगल प्रभात (1926) प्रसिद्ध है।
इनमें भावपूर्ण आदर्शवादी शैली में मनुष्यों की सद्ववृतियों की महिमा अंकित की गई है।
राजा राधिकारमन प्रसाद सिंह (1890-1971)
आप के उपन्यासों में ‘राम रहीम’ (1936) ‘पुरुष और नारी’ (1939) ‘संस्कार’ (1942) और ‘चुम्बन और चांटा’ (1956) प्रसिद्ध है।
इनमें जीवन के विभिन्न स्तरों के विभिन्न पात्रों की झांकी रोचक शैली में प्रस्तुत की गई है।
उपन्यासकार ने देश की सामाजिक-राजनैतिक गतिविधियों पर भी अपना ध्यान केंद्रित किया है।
आपकी जीवन दृष्टि गांधीवादी-युग की आदर्शवादी चेतना से प्रभावित है। आप के उपन्यासों का प्रकाशन प्रेमचंद युग के बाद हुआ है, किंतु आप का रचनादर्श प्रेमचंद युग का अतिक्रमण नहीं कर सका है।
सियारामशरण गुप्त (1895-1963)
आप का प्रथम उपन्यास ‘गोद’ (1932 ई.) में प्रकाशित हुआ था। इस उपन्यास में गांधीवादी जीवन-दर्शन की आध्यात्मिक चेतना व्यक्त हुई है।
प्रेमचंद युग की व्यापक मनोभूमि गांधीवादी ही थी, किन्तु प्रेमचंद ने गांधीवाद के व्यवहारिक पक्ष पर अधिक बल दिया था।
इसलिए सियारामशरण गुप्त के उपन्यास प्रेमचंद की ‘टिपिकल कलाप्रवृति’ एवं रचना संगठन के दायरे से बाहर हो जाते हैं। वे व्यक्ति की अन्तर्मुखी चेतना का स्पर्श करते हैं जो सामाजिक कटुता को अंतर्मन में ही पी जाना चाहती है। जबकि प्रेमचंद में आक्रोश एवं क्षोभ है।
सियारामशरण गुप्त जी सारे गरल को मौन भाव से स्वीकार कर लेते हैं।
प्रेमचंद युग काव्य चेतना की दृष्टि से स्वछंदतावादी (छायावादी) युग माना जाता है। इसी युग में ऐसे उपन्यास भी लिखे गए जिनकी मूल चेतना ‘प्रेमचंद के रचनादर्श’ से भिन्न रूमानी है।
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