समाजीकरण क्या है? समाजीकरण का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
समाजीकरण क्या है? : मनुष्य का जन्म समाज में होता है। समाज में जन्म लेने के पश्चात् वह धीरे-धीरे आसपास के वातावण के संपर्क में आता है और उससे प्रभावित होता है। प्रारंभ में मनुष्य एक प्रकार से जैविक प्राणी मात्र ही होता है; क्योंकि आहार, निद्रा आदि के अतिरिक्त उसे और किसी बात का ज्ञान नहीं होता; अत: उसकी अवस्था बहुत-कुछ पशुओं के ही समान होती है। इसके अतिरिक्त, जन्म के समय बालक में सभी प्रकार के सामाजिक गुणों का भी अभाव होता है और समाजिक गुणों के अभाव में कोई भी बालक एक जैविक प्राणी मात्र ही होता है। माता-पिता के संपर्क में आकर वह मुस्कराना और पहचानना सीखता है। धीरे-धीरे वह अपने परिवार के अन्य सदस्यों के संपर्क में आता है और उनसे सामाजिक शिष्टाचार की अनेक बातें सीखता है। आगे चलकर और बड़े होने पर उसके संपर्क का क्षेत्र और अधिक व्यापक हो जाता है तथा वह विभिन्न सामाजिक तरीकों से अपने कार्यों का संचालन करना सीख लेता है। इस प्रकार वह जैविक प्राणी से सामाजिक प्राणी बन जाता है और समाजशास्त्र में बच्चे के सामाजिक बनने की इस प्रक्रिया को ही समाजीकरण कहा जाता है।
समाजीकरण क्या है?
अतः समाजीकरण सीखने की एक प्रक्रिया है। इसी के परिणामस्वरूप व्यक्ति समाज में रहना सीखता है अर्थात् एक सामाजिक प्राणी बनता हैं। संस्कृति का हस्तांतरण भी इसी प्रक्रिया के माध्यम से होता है। ग्रीन (Green) के अनुसार, समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बच्चा सांस्कृतिक विशेषताओं, स्वानुभूति और व्यक्तित्व प्राप्त करता है।”
व्यक्ति को समाजीकरण की क्यों आवश्यकता होती है?
समाजीकरण एक अत्यंत अनिवार्य प्रक्रिया है जिसकी आवश्यकता व्यक्ति को निम्नलिखित कारणों से होती है-
- ‘स्व’ का विकास-मानव चरित्र का विकास व्यक्ति के ‘स्व’ या ‘अहं’ के विकास पर निर्भर है। जब तक व्यक्ति के ‘स्व’ का विकास नहीं हो जाता, तब तक व्यक्ति को भले-बुरे का ज्ञान नहीं होता। व्यक्ति के ‘स्व’ का विकास करने के लिए व्यक्ति को शिष्टाचार, बोलचाल तथा उठने-बैठने के तरीकों को जानना चाहिए। इन तरीकों को जानना ही समाजीकरण कहलाता है। इसलिए समाजीकरण मानव जीवन में ‘स्व’ के विकास के लिए नितांत आवश्यक है। वस्तुतः समाजीकरण का अर्थ ही ‘स्व’ का विकास करना है।
- व्यक्तित्व के विकास में सहायक–व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास समाज में रहकर ही कर सकता है। जो व्यक्ति किसी कारणवश समाज के बाहर रहे, उनमें व्यक्ति के उचित गुणों का विकास नहीं हो पाता। ऐसे अनेक बालकों का अध्ययन किया गया है जो भेड़ियों की माँद में पाए गए थे या किन्हीं कारणवश माता-पिता से बिछुड़करे जंगलों पशुओं के साथ रहे। उन बच्चों का व्यवहार भेड़िए या जंगली पशु जैसा ही था, क्योंकि मानव समाज से उनका कोई संबंध नहीं बन पाया था। फलस्वरूप उनमें व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाया था तथा वे समाज से अलग रहने के कारण पशुतुल्य ही रहे। इससे यह सिद्ध होता है कि व्यक्तित्व का विकास करने के लिए व्यक्ति को समाजीकरण की अत्यंत आवश्यकता है।
समाजीकरण में कौन-से कारक सहायक माने जाते हैं?
अमेरिकी समाजशास्त्री क्यूबर ने समाजीकरण में निम्नलिखित तीन कारकों को सहायक माना है-
- पैतृक गुण-मनुष्य में जो कुछ भी गुण पाए जाते हैं वे अपने पूर्वजों के कारण पाए जाते हैं। व्यक्ति अपने पूर्वजों के अनुसार ही खाता-पीता तथा जीवन-यापन करता है। अपने समूह के अनुरूप ही वह अपने को ढालता है तथा मान्यताओं का निर्माण करता है।
- सांस्कृतिक पर्यावरण-सांस्कृतिक पर्यावरण में व्यक्ति पलता है और उसी में उसका पोषण होता है। सांस्कृतिक पर्यावरण प्रत्येक स्थान पर अलग-अलग प्रभाव डालता है। इस कारण ही भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में रहने वाले व्यक्तियों के व्यवहारों में भिन्नता पायी जाती है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी भिन्नता के अनुसार ही समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा व्यवहार करना सीखता है। तथा उसके आदर्शों के अनुसार अपने जीवन को ढालता है।
- नवीनतम अनुभव–प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कुछ-न-कुछ नवीन अनुभवों को अवश्य प्राप्त करता रहता है। ये अनुभव ही उसे सीखने में सहायता देते हैं। चाहे और अनचाहे अनुभव मनुष्य का समाजीकरण करने में अपना योग देते हैं।
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