समाजवाद साम्यवाद और रूस की क्रांति

समाजवाद साम्यवाद और रूस की क्रांति – Class 10th Social Science ( सामाजिक विज्ञान ) Notes in Hindi

समाजवाद साम्यवाद और रूस की क्रांति : ऐतिहासिक दृष्टि से आधुनिक समाजवाद को दो चरणों में बाँटा जा सकता है – मार्क्स के पूर्व का समाजवाद तथा मार्क्स के पश्चात् का समाजवाद ।

समाजवाद साम्यवाद और रूस की क्रांति

समाजवाद

समाजवाद एक ऐसी व्यवस्था को कहते हैं जिसके अंतर्गत सामाजिक हितों को प्राथमिकता दी जाती है ताकि समाज के सभी वर्गों को उनके परिश्रम का उचित फल मिल सके ।

समाजवाद और समाजवादी विचारधारा की उत्पत्ति 

जिस समय श्रमिक जगत आर्थिक दुर्दशा और सामाजिक पतन की स्थिति से गुजर रहा था, उसी समय श्रमिकों को कुछ महत्त्वपूर्ण राष्ट्रभाक्तों, विचारकों और लिखकों का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ । ये चिंतक ‘समाजवादी’ (Socialists) कहलाते थे । इन महान विचारकों में सेंट साइमन, फौरियट, लुई ब्लाँ, राबर्ट ओवन, कार्ल मार्क्स एवं एंगेल्स के नाम प्रमुख हैं । श्रमिकों ने भी धीरे-धीरे अपने को श्रमिक संघों (ट्रेड यूनियनों) के रूप में संगठित किया । अंतत: 1819 में सरकार को भी मजबूर होकर मजदूरों की स्थिति में सुधार के लिये ‘फैक्ट्री एक्ट’ पास करना पड़ा । मजदूरों ने अपने माँगों की सूची (चार्टर) तैयार की । इसी से चार्टिस्ट आंदोलन भी कहते हैं । यह आंदोलन ब्रिटेन में हुआ । चार्टिस्ट आंदोलन की चार प्रमुख माँगें निम्नलिखित थी ।

  1. सभी पुरुषों को मताधिकार मिले ।
  2. संसद का वार्षिक निर्वाचन हो ।
  3. मतदान गुप्त रूप से हो ।
  4. संसद सदस्य होने के लिए संपत्ति को आधार न माना जाए ।

आरंभिक समाजवादी 

ऐतिहासिक दृष्टि से आधुनिक समाजवाद को दो चरणों में बाँटा जा सकता है – मार्क्स के पूर्व का समाजवाद तथा मार्क्स के पश्चात् का समाजवाद ।

यूटोपियन (स्वप्नदर्शी) समाजवादी –

प्रथम यूटोपियन समाजवादी एक फ्रांसीसी सेंट साइमन था । उसने समाजवादी विचारधारा के विकास में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । उसने कहा कि ‘प्रत्येक को उसकी क्षमता के अनुसार तथा प्रत्येक को उसके कार्य के अनुसार; जो समाजवाद का मूलभूत नारा बन गया ।

फ्रांस से बाहर इंगलैंड में आदर्शवादी समाजवाद का जनक विख्यात उद्योगपति रॉबर्ट ओवन था ।

रॉबर्ट ओवन – (1777 – 1858) ने स्कॉटलैंड के न्यू लूनार्क नामक स्थान पर फैक्ट्री की स्थापना की थी । इस फैक्ट्री में उसने श्रमिकों को अच्छे वेतन की सुविधा प्रदान की । उनका कहना था कि संतुष्ट श्रमिक ही वास्तविक श्रमिक होते हैं ।

साम्यवाद (Communism) 

कार्ल मार्क्स (1818 – 1883) – मार्क्स का जन्म 5 मई 1818 ई० को जर्मनी के राइन प्रांत के ट्रियर नगर में एक यहुदी परिवार में हुआ था । मार्क्स ने बोन विश्वविद्यालय में विधि की शिक्षा ग्रहण की । उसके बाद 1836 ई० में वे बर्लिन विश्वविद्यालय चले आये । पर रूसो, मांटस्क्यू एवं हीगेल की विचारधारा का गहरा प्रभाव था । 1843 ई० के अंत में मार्क्स बर्लिन छोड़कर पेरिस आ गये, जहाँ उसकी भेंद फ्रेड्रिक एंगेल्स के साथ हुई । 1848 ई० में कार्ल मार्क्स ने “साम्यवादी घोषणा पात्र” (Communist Manifesto) का प्रकाशन किया जिसे आधुनिक समाजवाद का जनक माना जाता है । 1867 ई० में मार्क्स ने ‘दास कैपिटल’ नामन विश्वप्रसिद्द पुस्तक की रचना की । इसे ‘साम्यवादियों का बाइबल’ कहा जाता है । 1883 ई० में मार्क्स की मृत्यु हो गई । कार्ल मार्क्स के सिद्धांत निम्नलिखित हैं –

पूँजीवाद का विरोध– पार्क्स पूँजीवाद का कट्टर आलोचन और विरोधी था । इसके अनुसार इस व्यवस्था से मजदूरों के श्रम का शोषण होता है । इसलिए इसका अंत जरुरी है ।

पूँजीपति वर्ग संघर्ष– मार्क्स के अनुसार समाज में मुख्यत: दो वर्ग और श्रमिक वर्ग । पूँजीपति वर्ग का स्वामित्व उत्पादन के साधनों पर होता है और श्रमिक वर्ग अपना श्रम बेचकर जीवन निर्वाह करते हैं । दोनों परस्पर एक दूसरे पर आश्रित होते हैं परंतु पूँजीपति अधिक फायदा के लिए मजदूरों को कम मजदूरी देते हैं । हितों के इसी टकराव के कारण संघर्ष होता है । यही वर्ग संघर्ष है ।

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद– मार्क्स का कहना था कि क्रिया के बाद प्रतिक्रिया होती है, फिर उसके कारण संतुलन स्थापित होता है । पूँजीवाद के युग में प्रतिक्रिया होना आवश्यक है । साम्यवाद इसी प्रतिक्रिया का रूप है । इसके परिणामस्वरूप जब संतुलन होगा तो साम्यवादी समाज की स्थापना होगी । अत: पूँजीवाद का विनाश और समाजवाद की स्थापना एक भावी प्रक्रिया है ।

क्रांति– मार्क्स का विश्वास था कि धनी और निर्धर दोनों में समानता लाने का एक ही मार्ग है और वह है क्रांति । क्रांति के पश्चात् धनी वर्ग नष्ट हो जायेगा और उत्पादनों के साधनों पर श्रमिकों का अधिकार हो जायेगा । अत: अपने धोषणापत्र में उन्होंने संसार के सभी मजदूरों से अपील की “विश्व के मजदूरों एक हो जाओ । तुम्हें पूँजीवाद का नाश करना है । तुम्हारे पास खोने के लिए अभोवों तथा कष्टों के सिवा कुछ नहीं है” ।

मार्क्सवाद का प्रसार – फ्रांस में ‘सोशलिस्ट पार्टी’ , रूप में ‘रुसी सोशल डेमोक्रेटिक वर्कर्स’ तथा ब्रिटेन में ‘लेबर पार्टी’ नामक संगठन स्थापित किये गये । 1864 ई० में लंदन में अंतर्राष्ट्रीय कामगार एसोसियेशन (International working Men’s Association) का प्रथम अधिवेशन हुआ । इसे ही प्रथम इंटरनेशनल (First International) के नाम से जाना जाता है । मार्क्स इस एसोसिएशन का नेता था ।  विभिन्न देशों के समाजवादी दलों को एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन में बंधनों के उद्देश्य से 14 जुलाई 1889 को पेरिस में एक सम्मलेन हुआ जिसमें बीस देशों के 400  प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया । इसे द्वितीय अंतर्राष्ट्रीय संघ (Second International Organization) के नाम से जाना जाता है ।

Note –  1889 ई० में पेरिस में द्वितीय अंतर्राष्ट्रीय संघ की बैठक में यह निर्णय लिया गया कि प्रत्येक वर्ष 1 मई को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया जाए ।

रूस की क्रांति

बीसवीं सदी के इतिहास में रूस की क्रांति सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण क्रांति मानी जाती है । रूस में दो क्रांतियाँ हुई (i) 1905 में और (ii) 1917 में । 1905 में रूस की जनता ने जारशाही के अत्याचार से तंग आकर क्रांति किया, किन्तु वह क्रांति विफल हो गई और रुसी सम्राट जार का शासन पूर्ववत-चलता रहा । 1917 के आरंभ तक रूस की दशा दयनीय हो चुकी थी । अत: पुन: क्रांति हुई । इस बार दो क्रांति हुई । पहली क्रांति फरवरी में हुई जिसे फरवरी क्रांति भी कहते हैं । इस क्रांति के परिणामस्वरूप रोमानोव राजवंश समाप्त हो गया तथा 15 मार्च, 1917 को जार निकोलस द्वितीय ने राजगद्दी त्याग दी ।

1917 में ही रूस में दूसरी बार क्रांति हुई । यह क्रांति अक्टूबर में हुई । अत: इसे ‘अक्टूबर की क्रांति’ भी कहते हैं । सरकार के विरुद्ध असंतोष बढ़ने के कारण बोल्शेविक दल जिसके नेता लेनिन थे तथा मेन्शेविक के बीच संघर्ष शुरू हुआ । इसे 1917 की बोल्शेविक क्रांति ‘अथवा’ अक्टूबर क्रांति कहते हैं ।

राजनीतिक कारण

  1. जार की निरंकुशता– क्रांति के पूर्व रूस में रोमानोव राजवंश का शासन था । रूस के सम्राट को जार कहा जाता था । रूस का जार द्वितीय एक निरंकुश शासक था । वह दिन-रात चापलूसों और चाटुकारों से घिरा रहता था जिससे प्रजा में असंतोष बढ़ने लगा । जार की पत्नी घोर प्रतिक्रियावादी औरत थी और रासपुटीन नामक एक भ्रष्ट पादरी के चंगुल में फंस गई थी । उस समय रासपुटीन की इच्छा ही कानून थी । वह नियुक्तियों, पदोन्नतियों तथा शासन के अन्य कार्यों में हस्तक्षेप करता था ।
  2. 1905 की क्रांति का प्रभाव– 1905 के ऐतिहासिक रूस-जापान युद्ध में रूस बुरी तरह पराजित हुआ । रूस की जनता ने जार को ही इस पराजय का उत्तरदायी समझा । वस्तुत: इस पराजय के कारण 1905 को लोगों का समूह ‘रोटी दो’ के नारे के साथ सड़कों पर प्रदर्शन करते हुए सेंट सीट्सवर्ग स्थित महल की और जा रहे थे । परंतु जार की सेना ने इन निहत्थे लोगों पर गोलियाँ बरसाई । इस जुलुस का नेतृत्व गैपौन नामक पादरी कर रहा था । हजारों लोग मारे गये । इस नरसंहार से रुसी स्तब्ध रह गये । 22 जनवरी, (पुराने कैलेंडर में 9 जनवरी, 1905) का दिन रविवार था । रूस के इतिहास में यह दिन “खूनी रविवार” के नाम से प्रसिद्ध है । इस नरसंहार की खबर सुनकर पूरे रूस में सनसनी फैल गई । इस क्रांति में किसानों की व्यापक भागीदारी हुई । अंत में सरकार झुक गई तथा 1905 ई० में एक संस्था ड्यूम का गठन हुआ परंतु 1906 में जैसे ही क्रांति कमजोर हुई ।

बौद्धिक कारण 

रूस का पहला साम्यवादी प्लेखानोव था उसने 1898 ई० में रशियन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी की स्थापना की । 1903 ई० में साधन एवं अनुशासन के मुद्दे पर पार्टी में फूद पड़ गई । परिणामस्वरूप बहुतम वाला दल “बोल्शेविक दल और अल्पमत वाला दल मेनशेविक दल” कहलाया ।

मार्च की क्रांति एवं निरंकुश राजतंत्र का अंत – 7 मार्च, 1917 ई० को (पुराने रुसी कैलेंडर के अनुसार 22 फरवरी, 1917) पेट्रोग्राड की सड़कों पर किसान मजदूरों ने जुलूस निकाला । उन्होंने “रोटी दो” यूद्ध बंद करो’ , ‘अत्याचारी शासन का नाश हो’ इत्यादि नारों से विशाल प्रदर्शन किया । जार ने उनपर गोलियाँ चलाने का आदेश दे दिया परंतु सेना ने ऐसा करने से इनकार कर दिया ।

समाजवाद साम्यवाद और रूस की क्रांति

बाध्य होकर सरकार ने सैनिकों के हथियार छीन लिये । इससे सेना में भी विद्रोर हो गया । जार ने ड्यूमा को भंग कर दिया । परिस्थितियाँ अनियंत्रित हो गई । फलत: विवश होकर 12 मार्च, 1917 को जार ने गद्दी त्याग दी । फरवरी की रुसी क्रांति थी क्योंकि पुराने रुसी कैलेंडर के अनुसार 27 फरवरी, 1917 को  यह घटना घटी थी । इस तरह रूस पर से रोमानोव-वंश का निरंकुश जारशाही का अंत हो गया । फलत: यह सरकार गिर गई तथा केरेंसकी के नेतृत्व में एक उदारवादी सरकार का गठन हुआ ।

इसी समय रूस के राजनीतिक मंच पर लेनिन का प्रादुर्भाव हुआ । जार की सरकार ने उसे निर्वासित कर दिया था जब मार्च 1917 ई० में क्रांति हुई, वह जर्मनी की सहायता से रूस पहुँचा । रूप की स्थिति को देखकर वह क्षुब्ध हो गया । उसने कहा कि रुसी क्रांति पूरी करने के लिये अभी एक और क्रांति आवश्यक है । उसने बोल्शेविक दल का कार्यक्रम स्पष्ट किया जो “अप्रैल थीसिस” के नाम से प्रसिद्ध है । भूमि, शांति और रोटी । उसने सहयोगी ट्रॉटस्की की सहायता से मजदूरों को एकजुट करना आरंभ किया ।

सेना और जनता ने भी उसका साथ दिया । 7 नवंबर, 1917 ई० (पुराने रुसी कैलेंडर से 25 अक्टूबर) को बोल्शेविक दल ने बलपूर्वक रेलवे स्टेशन, बैंक, डाकघर, टेलीफोन केंद्र, कचहरी तथा अन्य सरकारी भवनों पर अधिकार कर लिया । केरेंसकी घबराकर रूस छोड़कर भाग गया । इस प्रकार रूस की महान बोल्शेविक क्रांति (अक्टूबर क्रांति) संपन्न हुई । सत्ता की बागडोर बोल्शेविकों के हाथ में आ गई जिसका अध्यक्ष लेनिन को बनाया गया तथा ट्रॉटस्की इस सरकार का विदेश मंत्री बना । इस प्रकार रूस का नव निर्माण शुरू हुआ ।

समाजवाद साम्यवाद और रूस की क्रांति

लेनिन के कार्य 

सत्ता संभालने के बाद लेनिन और बोल्शेविक दल का उत्तरदायित्व और भी बढ़ गया । लेनिन के समक्ष कई जटिल समस्यायें थी । क्रांति और युद्ध के कारण प्रशासनिक, आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति बिगड़ चुकी थी । जिन्हें उसने बहुत हद तक निपदाने की कोशिश की ।

लेनिन के कार्य : मुख्य बिंदु 

आंतरिक व्यवस्था

  • युद्ध की समाप्ति
  • आंतरिक शत्रुओं का दमन
  • विदेशी शत्रुओं पर विजय

आर्थिक व्यवस्था

  • नई आर्थिक नीति

सामाजिक सुधार  –

  • शिक्षा में सुधार
  • नारियों की स्थिति में सुधार
  • विधुतीकरण
  • धार्मिक स्वतंत्रता

प्रशासनिक सुधार

  • नये संविधान की स्थापना
  • कौमिण्टर्न की स्थापना

Note – 

कौमिण्टर्न की स्थापना – 1919 में लेनिन ने मास्को में “थेर्ड इंटरनेशनल” (Third International) अथवा कौमिण्टर्न की स्थापना की । यह एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था थी । इसमें अनेक देशों के साम्यवादी दलों के प्रतिनिधि शामिल थे । इस संस्था का मुख्य कार्य विश्व में क्रांति का प्रचार करना तथा विभिन्न देशों में बोल्शेविक दलों को आर्थिक सहायता देना था ।

बोल्शेविक क्रांति के परिणाम

  • जारशाही के निरंकुश शासन का अंत
  • सर्वहारा वर्ग को अधिकार और सत्ता
  • नई शासन व्यवस्था की स्थापना
  • सामाजिक आर्थिक परिवर्तन
  • धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना
  • कृषि तथा औद्योगिक विकास
  • रुसीकरण की नीति का त्याग

क्रांति का विश्व पर प्रभाव

  • अंतर्राष्ट्रीय श्रम संघ की स्थापना
  • साम्यवादी शासन-व्यवस्था
  • नया शक्ति संतुलन
  • सरकार को कर्तव्यों का ज्ञान
  • पूँजीपति एवं मजदूरों में संघर्ष

लेनिन के बाद रूस 

स्टालिन के अधिनियम – लेनिन की मृत्यु 1924 ई० में हुई । लेनिन की मृत्यु के बाद रूस का नेतृत्व स्टालिन के हाथों में आया । स्टालिन वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी का मंत्री था । स्टालिन का अर्थ है ‘स्टील का आदमी’ यानी लौह पुरुष । स्टालिन ने अपने नेतृत्व में पंचवर्षीय द्वारा देश की आर्थिक काया पटल कर दी । तीन पंचवर्षीय योजनाओं से औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि हुई और अर्थव्यवस्था में सुधार आया । तेल, कोयला और स्टील उद्योग में मुनाफे हुई । स्टालिन ने सामूहित खेती आरंभ की । स्टालिन ने शिक्षा के लिए स्कूल की व्यवस्था की । सरकार ने देश में प्राथमिक शिक्षा को नि:शुल्क और अनिवार्य कर दिया ।

सामूहित कृषि की विफलता – स्टालिन की सामूहित कृषि व्यवस्था की आलोचना कई लोगों ने की परंतु स्टालिन इस पर अड़ा रहा स्टालिन ने तानाशाही अपनाकर रूस को महान शक्ति बनाया तथा रूस को साम्यवादी राष्ट्रों का अगुआ बना दिया ।

सोवियत संघ का विघटन-मार्च 1953 में स्टालिन की मृत्यु हो गई । उसके बाद सत्ता निकिता खुश्चेव के हाथों में आ गई । उन्होंने उदारवादी नीति अपनायी । 1985 में मिखाइल गोर्वाचोव पार्टी के महासचिव बनाये गये । वह भी एक उदारवादी नेता थे । उनकी नीतियों से रूस में सत्ता संघर्ष होने लगा एवं गणराज्यों में स्वतंत्रता संग्राम होने लगे ।

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