समकालीन कविता की मुख्य प्रवृतियां

समकालीन कविता की मुख्य प्रवृतियां : Samkalin hindi kavita ki privitiyan

समकालीन कविता की मुख्य प्रवृतियां : समकालीन कविता, आधुनिक हिंदी कविता के विकास में वर्तमान काव्यान्दोलन है। समकालीन कविता का आरम्भ 1962-64 से माना जाता है। साठोतरी कविता और समकालीन कविता को एक मान लेना उचित नहीं है। समकालीन कविता, आधुनिक कविता के विकास में नई चेतना, नयी भाव-भूमि, नई संवेदना तथा नए शिल्प के बदलाव की सूचक काव्यधारा है। इस काव्य धारा का लक्ष्य आम-आदमी और समाज की वास्तविकता को प्रस्तुत करना है।

समकालीन कविता के प्रमुख कवि

मुक्तिबोध, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर बहादुर सिंह, कुमारेंद्र, आलोक धन्वा, श्रीराम तिवारी, धूमिल, शलभ श्रीराम सिंह, कुमार विकल, विजेंद्र, पंकज सिंह, निर्मल वर्मा, आनंद प्रकाश, चंचल चौहान, शशि प्रकाश आदि समकालीन कविता के प्रमुख कवि हैं।

 समकालीन कविता की मुख्य प्रवृतियां एवं विशेषताएं

 समकालीन आर्थिक एवं सामाजिक चेतना का उद्घाटन

इस कविता के कवियों ने समकालीन आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक प्रश्नों का यथार्थ वर्णन किया है। बच्चन, दिनकर तथा अज्ञेय के समान ये कवि ऊंचे पदों के लिए लालायित नहीं है। ये कवि अपने आसपास के अनुभवों को कविता में स्थान देते हैं। धूमिल एक स्थल पर काव्य-रचना पर ही प्रश्नचिन्ह लगाते हुए कहते हैं –

“कविता में जाने से पहले

मैं आपसे पूछता हूं

जब इससे न चोली बन सकती है

न चोंगा

तब आप कहो

इस ससुरी कविता को

जंगल से जनता तक

ढोने से  क्या होगा ?”

इसके अलावा नागार्जुन ने भी अपनी कविताओं में हमेशा आर्थिक विषमताओं और सामाजिक भिन्नताओं को रेखांकित किया तथा “अकाल और उसके बाद” जैसी कविता भी लिखी।

समकालीन कविता में राजनीतिक चेतना का उद्घाटन

सन 1947 में हम स्वतंत्र हुए, तब से लेकर आज तक अनेक आम-चुनाव हुए। राजनीतिक दलों ने ‘गरीबी-हटाओ’ के अनेक नारे दिए। कुछ छुटपुट उपलब्धियों के अतिरिक्त आम-आदमी को भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, प्रदूषण तथा आतंकवाद के सिवाय कुछ नहीं मिला। लोगों का उत्साह और आशा मंद होने लगी। इतने अधिक वर्षों में राजनीतिक जीवन का घोर नैतिक पतन हुआ। अमीर अमीर होता चला गया और गरीब गरीब। राजनीति से जुड़े नेताओं द्वारा किए गए आर्थिक घोटालों के कारण आम-आदमी का विश्वास लोकतंत्र से उठने लगा है। समकालीन कवि अनुभव की इस सच्चाई को महसूस करता है। रघुवीर सहाय अपनी कविता ‘आत्महत्या’ में इसी प्रकार के विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं –

“मेरे देश के लोगों और नेताओं

मैं सिर्फ एक कवि हूं

मैं तुम्हें रोटी नहीं दे सकता न उसके साथ खाने के लिए गम

न मैं मिटा सकता हूं ईश्वर के विषय में तुम्हारे सभ्रम

लोगों में श्रेष्ठ लोगों मुझे माफ करो

मैं तुम्हारे साथ आ नहीं सकता।”

 यौन अनुभव का अत्यधिक एवं अश्लील चित्रण

समकालीन कविता की एक और महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है – यौन अनुभव। इस प्रवृत्ति ने इस कविता की रचना प्रक्रिया को अत्यधिक प्रभावित किया है। कुछ आलोचक इसे ‘अकविता आंदोलन’ की मुख्य प्रवृत्ति मानते हैं। यौन आकर्षण मनुष्य की सबसे बड़ी स्वाभाविक और प्रबल जैविक प्रवृति है। कोई भी स्वस्थ स्त्री या पुरुष इसके आकर्षण से बच नहीं सकता। इस काल के कवि यौन अनुभव के चित्रण में ऐसी शब्दावली का प्रयोग करने लग गए जो सभ्य समाज में वर्जित थी।

वास्तविक स्वतंत्रता की समस्या

सतही तौर पर देखने से बुजुर्वा लोकतंत्र में वाणी स्वतंत्रता का नारा बड़ा ही आकर्षक लगता है। लेकिन इसकी वास्तविकता कुछ और ही है। आज के लोकतंत्र में हमें स्वतंत्रता प्राप्त है

लेकिन जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की गारंटी किसी के लिए नहीं है। आज की बुजुर्वा व्यवस्था में स्वतंत्रता के नाम पर इतना अधिक विरोधाभास है कि आज का मनुष्य पूर्णता भ्रमित हो चुका है। विशेषकर आज का शिक्षित निम्न-मध्यवर्ग अधिक विभ्रमित है। सच्चाई तो यह है कि आजादी के बाद अंग्रेजी साम्राज्य तो चला गया लेकिन राजनीतिक बदलाव के सिवाय कुछ नहीं बदला है। धूमिल अपनी कविता ‘बीस साल बाद’ में कहते हैं –

“बीस साल बाद और इस शरीर में

सुनसान गलियों में तोते की तरह गुजरते हुए

अपने-आप से सवाल करता हूं

क्या आजादी सिर्फ थके हुए रंगों के नाम हैं

जिन्हें एक पहिया ढोता है

या इसका कोई खास मतलब भी होता है ?”

समकालीन कविता में व्यंग्य की अभिव्यक्ति –

समकालीन कविता का व्यंग्य नितांत तीखा एवं मार्मिक है। इस दृष्टि से लीलाधर जगूड़ी की ‘बलदेव खटीक’, सौमित्र मोहन की ‘लुकमान अली’ ध्रुव देव मिश्र की ‘हवा बही गांवों में’ तथा हरिहर द्विवेदी की ‘खत’ आदि उल्लेखनीय कविताएं हैं। कवियों के व्यंग्य आज के जीवन से सम्बद्ध है तथा राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक विसंगतियों पर करारा प्रहार करते हैं। धूमिल अपनी कविता ‘मोचीराम’ में कहते हैं –

“ बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में

न कोई छोटा है। न कोई बड़ा है

मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है

जो मेरे सामने

मरम्मत के लिए खड़ा है।”

समकालीन कविता की मुख्य प्रवृतियां

 विचार आंदोलन का उद्घाटन

साठोत्तरी कविता तथा समकालीन कविता में विचार आन्दोलन की काफी हलचल दिखाई देती है। इन कवियों की कविता आंदोलन की कविता है। इनकी कविताओं को पढ़कर सामान्य पाठक का मन भी आंदोलित हुए बिना नहीं रह सकता। कारण यह है कि  समकालीन कविता में यदि संवेदना और समय है तो विचार की गहनता भी है। वहां अनुभूति और विचार, एहसास और समझ एक दूसरे से इतने घुले-मिले हैं कि यह काव्य भावात्मक और बौद्धिकता दोनों स्तरों पर आंदोलित करता है। कविता को पढ़कर पाठक बार-बार विचार करने लगता है कि हमें बनी हुई अवधारणाओं पर पुनर्विचार करना चाहिए। उदाहरण के रूप में कवि चंद्र शेखर की कविता ‘एक और बसंत’ में कहा गया है –

“सुनता हूं बसंत आया था वन में

फूल खिले होंगे कहीं सेठों के चमन में।”

समकालीन कविता का यथार्थवादी दृष्टिकोण

यथार्थ का अर्थ है – जो कुछ हमारे सामने हैं अथवा जो कुछ अस्तित्व में है वही यथार्थ है। जब हम साहित्य के क्षेत्र में यथार्थ की चर्चा करते हैं तो हमारा मतलब है – जो कुछ हमारे आसपास घट रहा है । समकालीन कविता का कवि अपने आसपास के यथार्थ से पूर्ण तरह प्रभावित है। यद्यपि पूंजीवादी समाज यथार्थ को ढकने का प्रयास करता है लेकिन एक सच्चा कवि भ्रांत न होकर सजगता पूर्ण यथार्थ का वर्णन करता है ‘नए पत्ते’ में संकलित कविता ‘महंगू महंगा रहा’ में कवि कहता है –

“एक उड़ी खबर सुनी है –

हमारे अपने हैं यहां बहुत छिपे हुए लोग

मगर चूंकि अभी लीपा-पोती है देश में

अखबार व्यापारियों की ही संपत्ति है

राजनीति कड़ी से कड़ी चल रही है

वे जन मौन है इन्हें देखते हुए

जब ये कुछ उठेंगे।”

यथार्थवादी कवि वही हो सकता है जो सामाजिक संबंधों की द्वंदात्मकता को उसके अंतर्विरोधों सहित वर्णन करें। यदि सही अर्थों में देखा जाए तो मुक्तिबोध, निराला, धूमिल, नागार्जुन, लीलाधर जगूड़ी आदि सच्चे यथार्थ यथार्थवादी कवि हैं।

समकालीन कविता की सांस्कृतिक विभिन्नता

समकालीन कविता में हमें सांस्कृतिक विपन्नता के दर्शन होते हैं। इसका एक कारण यह है कि हमारी संस्कृति के अधिकांश मूल्य अपना संदर्भ खो रहे हैं। नया बनता समाज उन्हें छोड़ रहा है। हम यह भी कह सकते कि देश की वर्तमान पीढ़ी पुराने सांस्कृतिक मूल्यों को निभाने में कठिनाई का अनुभव कर रही है। आठवे दशक तक आते-आते संस्कृति के प्रति आक्रमण और आक्रोश और भी तीव्र हो गया है। समकालीन कविता में संस्कृति के प्रति यह बेगानापन हमें बार-बार सुनाई पड़ता है। कविवर मनोज सोनकर अपनी परंपरा में कहते हैं –

“ हम

लंगड़े टट्टू घोड़े हैं

लंगड़ा रहे हैं

अपनी पीठ पर लादे हुए

भविष्य का बोझ

पूंछ-हिलाकर

उड़ा रहे हैं

जख्मों पर बैठी मक्खियां।”

समकालीन कविता का कला पक्ष

समकालीन कविता का कथ्य, शिल्प, भाषा, सौंदर्य-बोध सभी कुछ बदला हुआ है। समकालीन कवि नए प्रतीकों की खोज में संलग्न है। यद्यपि इन कवियों की भाषा साहित्यिक हिंदी नहीं कही जा सकती। लेकिन इनमें भद्रजनों की भाषा नहीं है, बल्कि शब्द कौशल और वाक् चातुर्य के स्थान पर डंक मारते हुए असभ्य और आघाती शब्द हैं। भाषा का अभिजात्य तो बिल्कुल समाप्त हो गया है। सड़क की भाषा और घटिया मुहावरों के प्रयोग के कारण एक सर्वथा नवीन सौंदर्यशास्त्र उभर कर सामने आया। जिन शब्दों, मुहावरों को प्रगतिवादियो ने भी स्वीकार नहीं किया था समकालीन कविता में भी स्वीकृत हो गए।

हरामखोर, बदतमीज, लफंगा, भडुआ, मूत्रमार्ग आदि वर्जित शब्द कविता में भी स्थान पा गए। वस्तुत: समकालीन कविता में काव्य वर्जनाओं का बहिष्कार किया गया है और कविता के लिए कोई भी शब्द और कोई भी भाव-मुहावरा अस्पृश्य नहीं रह गया है।

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