सारा आकाश-राजेंद्र यादव (उपन्यास का विश्लेषण)
सारा आकाश-राजेंद्र यादव : राजेंद्र यादव जी स्वातंत्र्योत्तर काल के युवा साहित्यकारों में अग्रणी हैं ।उनकी रचनाएं स्वातंत्रोत्तर युवा पीढ़ी की मानसिकता को उदघाटित करने में सक्षम है।उन का प्रथम उपन्यास “सारा आकाश” आजाद भारत की युवा पीढ़ी की त्रासदी और भविष्य के सपने का नक्शा है । इसके संबंध में यादव जी ने खुद लिखा है –“सारा आकाश मुख्यतः निम्न मध्यवर्गीय युवक के अस्तित्व के संघर्ष की कहानी है ।आशाओं महत्वकांक्षाओं और आर्थिक सामाजिक, संसारिक सीमाओं के बीच चलते द्वन्द्व- हारने -थकने और कोई रास्ता निकालने की बेचैनी की कहानी है।”- राजेंद्र यादव -सारा आकाश पृष्ठ 12
आधुनिक युवा वर्ग के हारने थकने और कोई मार्ग न ढूंढ निकालने की बेचैनी की कथा का रूपायन भी इसमें हुआ है । इसका अंग्रेजी अनुवाद ‘Strangers on the roof’ के नाम से हुआ है, क्योंकि जब भी नायिका प्रभा और नायक समर बोलते हैं तो रात के एकांत में खुले आसमान के नीचे घर की छत पर ही बोलते हैं।
सारा आकाश-राजेंद्र यादव
राजेंद्र यादव की ‘सारा आकाश‘ कहानी है लोअर मिडल क्लास के एक ऐसे युवक की, जो जिंदगी में कुछ हासिल करना चाहता है। ‘सारा आकाश‘ सामाजिक बंधनों के तले घुट-घुटकर मरने को मजबूर एक ऐसी औरत की भी कहानी है, जिसकी घुटन को सहनशीलता का नाम दे दिया जाता है और एक ऐसी कहानी भी, जो बरसों से रूढ़िवाद में जकड़ी भारतीय संस्कृति पर जबर्दस्त चोट करती है।
कहानी का मुख्य पात्र समर एक कॉलेज स्टूडेंट है। परिवार में माता-पिता के अलावा बड़ा भाई और उसकी प्रेग्नेंट वाइफ और पति से अलग हो चुकी बहन हैं। अपनी जिम्मेदारियों का हवाला देते हुए समर के पिता उसकी शादी कर देते हैं, लेकिन जिंदगी में कुछ बनने के सपने देखने वाला समर अपनी पत्नी प्रभा को मंजिल हासिल करने की राह में एक रोड़ा समझने लगता है। हालत यह हो जाती है कि ईगो और कुछ टाली जा सकने वाली स्थितियों के कारण सुहागरात में अपनी पत्नी के साथ समर की कोई बातचीत तक नहीं होती। धीरे-धीरे वक्त गुजरता जाता है और समर व प्रभा आपस में बिना बातचीत किए अजनबियों की तरह जिंदगी गुजारते रहते हैं।
कहानी के एक और पात्र शिरीष के माध्यम से लेखक ने भारतीय संस्कृति, संयुक्त परिवार, पूजा, व्रत, पाखंड, पुराण आदि पर जोरदार कटाक्ष किए हैं। सच्ची घटना पर आधारित इस उपन्यास की लोकप्रियता को देखते हुए 1969 में बासु चटर्जी ने इस पर ‘सारा आकाश‘ नाम से ही एक फिल्म भी बनाई।”
सारा आकाश-राजेंद्र यादव (कथानक परिचय)
“सारा आकाश” राजेंद्र यादव जी का पहला उपन्यास भी है और तीसरा भी। सन् 1952 में यह “प्रेत बोलते हैं “नाम से छपा था और बाद में लगभग 10 साल बाद संशोधित रूप में इसका पुनर्लेखन हुआ तो इसका नाम सारा आकाश रखा गया । यह उपन्यास राजेंद्र जी की औपन्यासिक यात्रा का मील का पत्थर है ।प्रसिद्ध उपन्यास निम्न मध्यवर्गीय संयुक्त परिवार की विसंगतियों को उजागर करने में सक्षम है। सारा आकाश दो खंडो में बटा हुआ उपन्यास है । इसके पूर्वार्ध में “बिना उत्तर वाली 10 दिशाएं” समाविष्ट हैं और उत्तरार्ध में “प्रश्न पीड़ित दस दिशाएं” व्याप्त हैं ।
समर और प्रभा को केंद्र में रखकर उपन्यास का ताना बाना बुना गया है। समर इंटर की परीक्षा की तैयारी कर रहा है। वह अब शादी करना और किसी भी प्रकार का उत्तरदायित्व संभालना नहीं चाहता है। एम०ए० करना और अच्छी से अच्छी नौकरी हासिल करना उसका लक्ष्य है। वह शादी और पत्नी को अपनी महत्वकांक्षाओं और सपनों में बाधा डालने वाली चीज समझता है । समर अपने मां-बाप और उनके सगे-संबंधी के दबाव से शादी करने को तैयार होता है । उसकी पत्नी प्रभा शिक्षित नारी है। दसवां तक पढ़ी है। वह भी शादी करना नहीं चाहती थी। वह खूब पढ़ लिखकर गांव में जाकर स्त्रियों को पढ़ाना, सारे हिंदुस्तान पैदल ‘टूर‘ करना , गुंडे-बदमाशों या जंगली जानवरों से अपनी रक्षा करने के लिए लाठी और छुरी चलाना सीखना चाहती थी।
समर – प्रभा के सुहाग की रात से उपन्यास का आरंभ होता है। सुहाग रात में जब समर कमरे में आया तब प्रभा निर्विकार होकर चुपचाप खड़ी थी। समर चाहते हैं कि प्रभा उसका आदर सम्मान करें और उनका पांव पकड़े । लेकिन प्रभा ने ऐसा कुछ नहीं किया। प्रभा के व्यवहार से समर क्रुद्ध हुए। वह उसके इस व्यवहार को शिक्षित नारी का दम्भ समझता है। वह पत्नी से अलग छत पर रात बिताता है। तब से 1 साल तक समर और प्रभा ने एक दूसरे से बातचीत नहीं की।
समर के घर की स्थिति बहुत दूरितपूर्ण है। पिता जी को सिर्फ ₹25/- पेंशन मिलते हैं। महंगाई भत्ता सब मिलाकर ₹99/- भाईसाहब को मिलते हैं ।अम्मा को कई बीमारी से परेशान है । दो – तीन बच्चे पढ़ने को हैं। अमर मैट्रिक में और छोटा कुंवर अभी छठे में अध्ययन करते हैं। घर की सारी बात भाई साहब पर निर्भर है ।बाबूजी चाहते हैं समर भी कुछ काम करके भाई साहब का हाथ बटाए ।
मुन्नी की शादी 16- 17 की उम्र में हुई थी। ससुराल में सास और पति मिलकर उस पर अत्याचार करते हैं। उसे वहां नौकरानी की तरह जीवित रहना पड़ा। एक दिन सारे शरीर पर बेंतों के फूले हुए नीले निशान लेकर मुन्नी वापस घर आई। अब दो-तीन साल से मुन्नी अपने घर में है ।
प्रभा को पहले दिन से ही बहुत कठिनाइयां सहनी पड़ी। प्रभा तो सुंदर सुशील और पढ़ी-लिखी रमणी थी इसलिए भाभी को प्रभा से जलन है। 2 दिन के बाद भाई आकर प्रभा को मायके ले गया। समर फिर उन्हें लेने नहीं गया। 6 महीने के बाद अमर जाकर उसे वापस लाया ।प्रभा वापस आने के बाद भी समर के कमरे में सोना नहीं चाहती क्योंकि वह बोर्ड के इम्तिहान के वक्त उसे तंग करना नहीं चाहती है। लेकिन समर इसे दंभ समझते हैं ।
भाभी को बच्चा होने से घर का सारा काम प्रभा को करना पड़ा। घर वाले प्रभा से नफरत करने लगते हैं केवल मुन्नी ही प्रभा से सहानुभूतिपूर्ण बर्ताव करती है। प्रभा घूंघट या पर्दा नहीं करती थी और काम से छुटकारा मिले तो ऊपर छत पर जाकर ताजी हवा लेती थी। घर वाले प्रभा के इस व्यवहार से नाराज हो उठते हैं। भाभी के बच्चे के नामकरण के दिन प्रभा ने गणेश जी की पूजा की गई मिट्टी के ढेले को सादा समझकर जूठे बर्तन मांज लिया। घर में हलचल मचा सबकी बातें सुनकर समर को भी क्रोध आया। उसने प्रभा को तमाचा मारा। सात-आठ महीने में पहली बार बात की वह भी तमाचे से ।
समर दूसरे डिविजन में इंटर की परीक्षा पास किया ।वह घर वालों की बातों से तंग आकर काम की तलाश में निकलता है । दोस्त दिवाकर के सिफारिश से उसे एक प्रेस में प्रूफ रीडिंग का काम मिलता है साथ ही कॉलेज में भर्ती होता है। बीचोबीच समर और प्रभा के बीच की गलतफहमी दूर हो गई। 1 साल के बाद प्रभा और समर के बीच बातचीत हुई। नौकरी मिलने के बाद घर में उसका अपना स्थान मिला। इसके बीच मुन्नी को पति साथ ले गया । वह अनमने भाव से पति के साथ चली गई।
समर के ऊपर घर के सब लोग सहारा खोजते हैं लेकिन समर उन्हें कमा के देने में हार जाता है। उन्हें प्रेस वाले तनख्वाह नहीं देते। वह ₹75/- लिखकर ₹60/- ही देने की बात करते हैं ।इस बात पर झगड़ा होता है और समर नौकरी छोड़ देता है। समर नौकरी छूट जाने की बात घर में बताते हैं। एक-दो कहकर बाबूजी और उनके बीच झगड़ा शुरु होता है । बाबूजी उसे घर से निकल जाने को कहते हैं । समर जाने की तैयारी करते हैं। सुबह बाहर निकले तो मुन्नी की मृत्यु की खबर आ गई। समर व्यथित होकर निर्विकार होकर चला जाते है। रेलवे स्टेशन पहुंचते ही आत्महत्या करने को सोचते हैं या इरादा करते हैं लेकिन वह कर नहीं पाते हैं। उसे मालूम होता है कि उसके सामने “सारा आकाश” खुला है।
प्रभा:
“सारा आकाश” में प्रभा स्वतंत्र भारत के गिने चुने शिक्षित नारियों का प्रतिनिधि है। उसने दसवां तक शिक्षा पाई है। घरवाले उनके सारी करतूतों को शिक्षित होने का दंभ मानते हैं ।सुहागरात से ही यह बात जाहिर हो सकती है। समर का कथन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है -“घमंड मैं अपने सगे से सगे का भी नहीं सकता, चाहे कितना ही खूबसूरत हो या पढ़ा लिखा।” सुंदर सुशील और पढ़ी लिखी नारी प्रभा को घर वाले नफरत की दृष्टि से आंकते हैं ।प्रभा सब कुछ सहने को तैयार है। भारतीय नारी के समान उपन्यास में वह त्याग की प्रतिमूर्ति दिखती है ।प्रभा को दोषी ठहराने के लिए पहले दिन खाना बनाते वक्त भाभी मुट्ठी भर नमक खाने में डाल देती है ।लेकिन प्रभा सब कुछ सह लेती है।
प्रभा घर में परंपरा का निर्वाह नहीं करती थी। उन दिनों के परिवारों में बहु पर्दा रखती थी। प्रभा इसके ख़िलाफ़ थी, पढ़ी-लिखी प्रभा अपने व्यक्तित्व को खो कर जीने को विवश है। 1 साल के अंतर प्रभा ने एक बार ही अपनी प्रतिक्रिया दिखाई की -“1 साल से कभी आपको चिंता हुई की मरती है या जीती है मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ?” प्रभा कभी भी पढ़ने लिखने का घमंड नहीं दिखाती है ।सुशिक्षित प्रभा गांव में जाकर स्त्रियों को पढ़ाना चाहती थी ,लेकिन उनके तकदीर में यह लिखा नहीं था प्रभा शब्दों में “मुसीबत सिर्फ रुपयों की ही तो नहीं है। असली मुसीबत तो यह है कि हमारे सपने बहुत ऊँचें हैं ,भविष्य के नक्शे बिल्कुल अलग हैं।” उपन्यास के अंत में आने पर समर प्रभा को देवी मानने लगते हैं । समर सोचते हैं “यह किसी स्वर्ग की शाप – भ्रष्टा है जो अपना समय गुजारने यहां चली आई है ।
प्रभा मुसीबतों के सामने सिर नहीं झुकाती है ।”मुझे तुम अभी नहीं जानते। मुझमें बहुत ज्यादा जीवन शक्ति है। इससे भी ज्यादा मुसीबतों में मैं विचलित नहीं हो सकती । विवाह से पहले बड़ा डर लगा करता था कि आगे जाने कैसा होगा । लगता था किसी भी मुसीबत को मैं सह नहीं पाऊंगी ।अब जब देख लिया है कि तकलीफ किसे कहते हैं तो लगता है बस इसी के लिए इतना डरना था ?” इन वाक्यों से प्रभा का धैर्य ऊर्ज सब ज्वलित उठती है ।समस्त संघर्षों से घिरे हुए वातावरण में भी प्रभा ही एक शक्ति है जो जिजीविषा का संदेश देती है।
समर:
सारा आकाश उपन्यास का नायक समर आजाद भारत की नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता है। एक निम्न मध्यवर्गीय संयुक्त परिवार में उनका जन्म हुआ। उनमें अच्छी नौकरी हासिल करने की ललक थी। घर के उत्तरदायित्व से पूर्णत: विमुख थे। उनकी मान्यता इस प्रकार है कि “देश को साहसी और कर्मठ युवकों की जरूरत है ।” वे शादी तक को बेकार मानते हैं । लेकिन बाबूजी उन्हें शादी करने के लिये मजबूर कर रहे हैं । वे सोचते हैं -“कैसा बोझिला प्रारंभ है जिंदगी का! मन होता है सबकुछ छोड़ छाड़ कर कहीं दूर अंजानी जगह भाग जाऊं।” यह उनके पलायनवादी दृष्टिकोण का परिचायक है। शादी और परिवार के संबंध में उनका विचार द्रष्टव्य है कि “हाय मेरी वह सारी महत्वकांक्षाएं ,कुछ बनकर दिखलाने के सपने को यूंही घुट घुट कर मर जाएंगे रात रात भर की नींद और खूब देर देकर पाले हुए सारे भविष्य के सपने ,अब दम तोड़ देंगे ।विवाह को समर एक परीक्षा समझते हैं ।उन्हें भय है कि इस परीक्षा में वे हार जाएंगे । प्रभा तो दसवीं पास है और समर उससे कोई संबंध रखना नहीं चाहते । वे शादी को अपने विकास में बाधा मानते हैं कि “हम क्यों एक-दूसरे के लिए बाधा बने बाधाएं कभी-कभी सुंदर रूप धर कर सामने आती हैं। उनमें न भरमाना ही बुद्धिमानी है।”
नारी के बारे में समर की अपना निजी दृष्टिकोण है । वे नारी को पुरुष की सबसे बड़ी कमजोरी समझते हैं । उनकी राय में “नारी अंधकार है ,नारी मोह है, नारी माया है, नारी देवत्व की ओर उठते मनुष्य को बांधकर राक्षसत्व के गहरे अंधे कुंओं में डाल देती है। नारी पुरुष की सबसे बड़ी कमजोरी है । इस कथन से पता चलता है कि नारी संबंधी मध्यकालीन चिंतन उस पर हावी है। समर मामूली पुरुषों की तरह व्यवहार करने से हिचकिचाता है और नारी संबंधी मध्यवर्गीय खोखलेपन से प्रणीत है । वह अपनी पत्नी के सामने झुकना नहीं चाहता है । उनका विचार है कि नारी ने बड़े – बड़ों को उंगलियों पर नचाया है ।
समर अपने आप को अकेला महसूस करता है कि “इस बीहड़ पथ पर मैं अकेला हूं नितांत अकेला।” समर कमाई और पढ़ाई को आगे बढ़ाना चाहता है लेकिन यह हो नहीं पाता । फलस्वरुप वह अपने आप को बेकार समझने लगता है। एक तरह की निराशा का भाव उनमें दिखते हैं “एक गहरी निराशा ,सुक्ष्म किंतु व्यापक थकान मेरी रग-रग में बैठ गई है।——–निराशा और हताशा में अकेला पड गया हूँ।”
प्रभा के मायके जाने के बाद समर की निराशा बढ़ जाती है। मन ही मन वह प्रभा को चाहते हैं ।धीरे-धीरे प्रभा के प्रति नर्म व्यवहार होने लगता है। अंत में समर निष्कर्ष निकालते हैं “यह प्रभा सच ही बहुत गहरी और समझदार लड़की है ।” आजादी के बाद निम्न मध्यवर्गीय परिवार में व्याप्त कुंठा घुटन ,हताशा और निराशा समर में भी दृष्टव्य है ।दृष्टव्य है समर अकेला रहना चाहता है” मुझे दुनिया में किसी से कोई मतलब नहीं, कोई मेरा सगा नहीं ——अब मैं केवल अपने तक ही रहूंगा केवल पडूंगा ।” समर के मन में पिता के प्रति विद्रोह का भाव है। “जब पढ़ा और लिखा ही नहीं सकते ढंग से तो पैदा क्यों किया था।” समर अपने अस्तित्व बनाए रखने की कोशिश में अपने को असफल पाता है । समर कमाने के लिए मजबूर हो जाता है लेकिन नौकरी मिलने पर भी उसे नष्ट करती है आर्थिक समस्याओं से पीड़ित हो कर भी समर नौकरी कायम नहीं रखता है। डॉक्टर शशीकला त्रिपाठी के शब्दों में -“समर शिक्षित और महत्वकांक्षी युवक है ।अपने भविष्य को खूबसूरत बनाने के लिए उसकी एकमात्र योजना अध्ययनशीलता ही है ।” डॉ राधा गिरधारी कि राए में “सारा आकाश का समर आर्थिक संघर्षों से घिरा पात्र है ।जो केवल आत्म द्वंद की गुत्थियों को सुलझाने में जीवन भर लगा रहता है।”
समर का मानसिक अंतर्द्वंद स्वाभिमान और अहंकार उसे गृहस्थ सुख से वंचित कर देता है । जब पिताजी उसे घर से निकाल देते हैं । तब वह पूर्णत: विद्रोही हो उठता है । “मुझे खुद ही इस नरक में नहीं रहना । ना रात को चैन ना दिन को शांति ,सब मतलब के मां – बाप बने हैं।—– संभाल लेना अपना राजपाट।” इस प्रकार समर आत्मग्लानी ,अंतर्द्वंद ,विद्रोही भावना, स्वाभिमान, स्वार्थी मनोभाव आदि से ग्रस्त दिखता है । उनका चरित्र स्वतंत्र भारत की नई पीढ़ी के प्रतिनिधि के रुप में जीवंत हो उठा है।
शिरिष:
लेखक के निजी विचारों का आत्म-संप्रेषण शिरिष की विशेषता है। सारा आकाश उपन्यास के उत्तरार्ध में शिरिष का समावेश हुआ है। हर विषय के प्रति शिरिष का स्वतंत्र दृष्टिकोण है शिरिष को दर्शन, ब्रह्मज्ञान भारतीय संस्कृति जैसी बातों से नफरत है । हंसी उड़ाते हुए शिरिष बताते हैं -“संसार झूठ है ,माया है और ब्रह्म के अंश है और आप के मां -बाप, भाई -बहन ,पत्नी, पुत्र सब माया है। बदले में आप उनके लिए माया हैं। इसलिए इन सारे माया के बंधनों को तोड़ दो तो आत्मज्ञान होगा । भागकर हिमालय की गुफाओं में चले जाओ तो यह सब अपने आप ही छूट जाएंगे ।” जीवन के सारे उत्तरदायित्व से मुंह मोड़ कर अपने स्वार्थ के लिए जीवन गुजारने वाली नई पीढ़ी की मन:स्थिति शिरिष के शब्दों में दृष्टव्य है। उनका विचार पलायनवाद के पक्ष में नहीं है। शिरिष स्वातंत्रोत्तर, प्रगतिशील युवा पीढ़ी का संवाहक प्रतीत होता है ।उनके अनुसार जो करना है उससे भागना नहीं। वे अपना दायित्व को निभाने के पक्ष में है। कर्तव्य को निभाना वह अपना परम धर्म मानता है। जिंदगी का जो सच सामने है उसका साहस से सामना करने के लिए वह कटिबद्ध दिखता है।
शिरिष संयुक्त परिवार के पक्षपाती नहीं है। वे संयुक्त परिवार को व्यक्ति विकास में बाधक मानते हैं उनके मत में “संयुक्त परिवार अभिशाप बन जाता है वहां जहां कई संताने हों, आर्थिक रुप से परिवार समर्थ न हो और आय के साधन बहुत ही कम हो।” शिरिष का यह कथन संयुक्त परिवार की विसंगति का परिचायक है । समर को परेशानियों से बचने के लिए घर से अलग रहने का उपदेश भी शिरिष देता है । इस प्रकार उपन्यास की गति बनाए रखने में शिरिष का योगदान महत्वपूर्ण है
सारा आकाश : मध्यवर्गीय परिवार की समस्याएँ
भारत में प्राचीन काल से संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलित थी ,लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संयुक्त परिवार में बिखराव आने लगा । यह बिखराव मध्यवर्गीय परिवार में ज्यादा विद्यमान है । मध्यवर्गीय परिवार की मूल समस्या तो पारिवारिक विघटन से संबंधित है। इस विघटन का माहौल यादव जी के “सारा आकाश” में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। विघटन का मूल कारण तो अर्थाभाव ही है ।डॉक्टर शशीकला त्रिपाठी के शब्दों में “व्यक्ति के व्यक्तित्व पर सबसे अधिक अंकुश अर्थ कारक से ही लगता है। यह सर्वानुभूत सच ही सारा आकाश का कथ्य है ।”
मानव जीवन के सारे रिश्ते धन दौलत पर निर्भर हैं । सारा आकाश में अनुस्यूत रुप से पारिवारिक समस्याएं दिखाई देती है। परिवार में 9 व्यक्ति हैं इन 9 व्यक्तियों का जीविकोपार्जन धीरज के ₹90 वेतन और पिता की ₹25 की पेंशन से होता है।बाबूजी समर को काम करके परिवार की आर्थिक प्रश्नों में सहायता देने की बात कहे तो इसमें अस्वाभाविकता कुछ भी नहीं । बाबूजी की बातें न मान कर पढ़ाई जारी रखने के इच्छुक बेरोजगार पुत्र के प्रति कोप उत्पन्न होना सहज है । समर के विवाह के पहले दिनों से घर में मनमुटाव शुरू होता है। मध्यवर्गीय परिवार में संतानों के व्यक्तिगत इच्छा-अनिच्छा को मान्यता नहीं दी जाती है । माता पिता की इच्छा ही उनकी इच्छा होती है । परिणाम स्वरूप मध्य वर्गीय परिवारों में नव युवक युवतियों या युवतियां विवाह के संदर्भ में व्यक्तिगत निर्णय लेने को मजबूर हो जाते हैं ।
समर और प्रभा को इस स्थिति से गुजरना पड़ा ।फलत: समर बाबूजी के विरुद्ध आवाज उठाते हैं । वहां से संबंधों में शैथिल्य का अविर्भाव होता है । जब बाबूजी आगे पढ़ाई करने के लिए आर्थिक स्थिति की मजबूरी की बात कहते हैं तो समर मन ही मन सोचते हैं-” जब पढ़ा और लिखा ही नहीं सकते ढंग से तो पैदा क्यों किया था ।” समर का परिवार के प्रति विद्रोही भाव यहां दृष्टव्य है । समर को अपने और प्रभा के साथ-साथ मां-बाप और भाइयों के प्रति भी अपना दायित्व निभाना है । यह उन्हें बार-बार छोटी-छोटी नौकरी करने के लिए प्रेरित करता है । पढ़ना और कुछ बनना उसका ध्येय है । परिवारिक विघटन के और भी कई कारण होते हैं । सुशिक्षित बहू का सिर पर पल्ला ना रखना , हाथ में घड़ी बांध कर भोजन बनाना छत पर जाकर ताजी हवा लेना,बड़ी बहु की अपेक्षा सुंदर होना आदि बातें प्रभा को परिवार के अन्य सदस्यों से अलगाते हैं। रुढ़ीवादी सास-ससुर प्रभा से अपेक्षित दहेज ना लाने की बात पर नाराज हैं। इसलिए उसके प्रति सहज व्यवहार नहीं हो पाते ।
मध्यवर्गीय परिवार में सुशिक्षित नारियां भी अपने उत्तरदायित्व से भाग नहीं सकती। इसका ज्वलंत प्रमाण है -प्रभा। प्रात: काल 3:00 बजे से उठकर रात में 12:00 बजे तक वह चूल्हे चौकी में काम करती रहती है लेकिन उसके बारे में कोई नहीं सोचता कि उसने कुछ खाया है या नहीं । उसे पहनने के लिए कुछ है या नहीं । सब उन पर कठोर और रुक्ष व्यवहार करते हैं । सबक केंद्रित हैं, अपने में लीन हैं । ऐसे पारिवारिक वातावरण में संबंध हीनता पनपने लगती है ।
संयुक्त परिवार के वातावरण में व्यक्ति का संपूर्ण विकास नहीं होता। उन्हें दूसरों के लिए जीना पड़ता है शिरिष का कथन इसका स्पष्ट प्रमाण है ।” संयुक्त परिवार का शाब्दिक आदर्श चाहे जितना महान हो उसका सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि परिवार का कोई भी सदस्य अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर पाता । सहारा समय या तो समस्याएं बनाने में या बनी बनाई समस्याओं को सुलझाने में जाता है लड़ाई ,झगड़ा ,खींचतान, बदला ग्लानि सब मिलकर वातावरण ऐसा विषैला और दमघोंटू बना रहता है कि आप सांस न ले सके।”
समर को नौकरी मिलने पर उसके प्रति सब का व्यवहार नरम हो गया लेकिन नौकरी छूट जाने की बात जानते ही बाबूजी उसे घर से निकाल देते हैं। वे कहते हैं -“विदा करो दोनों को हमारे ये कोई नहीं लगते।” यहां परिवार के विघटन की चरम सीमा दर्शनीय है। शिरिष ने तो पहले ही समर से कहा था कि “इस संयुक्त परिवार की परंपरा को तोड़ना ही होगा । अब आपके लिए ही कहूं कि अगर आप खुद जिंदा रहना चाहते हैं या चाहते हैं कि आपकी पत्नी भी जिंदा रहे तो इसके सिवा कोई रास्ता नहीं है कि अलग रहिये, जैसे भी हो अलग रहिये।” पहले बेकार समर यह नहीं कर सकते थे। अब घर से निकालने के बाद उसके आगे शून्य( ०) भविष्य मंडराने लगा । वह घर के दमघोटू वातावरण से प्रभा को लेकर बचना तो चाहता था लेकिन बच नहीं पाता था ।
मध्यवर्गी परिवार के विघटन का एक और कारण यह भी है कि परिवार के मां बाप पुत्र के विवाह उपरांत भी एक प्रकार का अनुशासन कायम रखने में मजबूर कर देते हैं । पुत्र को मां-बाप के अनुसरण करने के साथ-साथ पत्नी के प्रति कर्तव्य निर्वाह भी करना है। माता पिता अपने और बेटे बहू के संबंधों में संतुलन बनाए रखने की अपेक्षा उसे मानसिक रूप से विचलित होने के लिए बाध्य कर देते हैं । परिणाम स्वरुप वह समस्त पारिवारिक उत्तरदायित्व और निजी जीवन की मधुरता के रसास्वादन के बीच लटकता रह जाता है परिवार विघटित होने के लिए अन्य कारण ढूंढने की आवश्यकता नहीं।
सारा आकाश विघटन की ही कहानी है और उपन्यास में कहीं भी रूप रस की शहनाई नहीं बजती । व्यक्ति की स्वतंत्र चेतना, स्वतंत्र विकास स्वप्न, महत्वकांक्षा या अपनी अस्मिता की पहचान आदि का दुष्परिणाम पारिवारिक विघटन में निखर उठता है । यादव जी ने अपने उपन्यास में स्वतंत्र भारत के मध्य वर्गीय समाज की समस्याओं का अंकन सफलतापूर्वक किया है। पारिवारिक विघटन ,नारी मन का संघर्ष मध्यवर्गीय जीवन की विसंगतियां ,राजनीति ,पूंजीवादी व्यवस्था, रूढ़ियों की जकड़ , युगीन परिवेश, प्रेम और विवाह की समस्याएं , प्रगतिवादी चिंतन ,सामाजिकता, अर्थाभाव ,बेरोजगारी आदि तथ्यों को यादव जी के उपन्यास में शब्द मिले हैं। मध्यवर्गीय चेतना को पाठकीय संवेदना में मिलाना उनकी रचनाओं का लक्ष्य रहा । मध्यवर्गीय समाज की समस्याओं के प्रणयन के जरिए यादव जी उन समस्याओं को सुलझाने की प्रेरणा भी देते हैं।
सारा आकाश: नारी
परंपरा से भारतीय नारी पुरुष की अर्धांगिनी और अनुगामिनी मात्र थी। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नारी जीवन को नया परिचय मिला । हिंदी उपन्यासों में सामान्यतः पुरुष के व्यक्तित्व से प्रभावित नारी पात्रों की बहुलता है। यादव जी नारी संबंधी प्रगतिशील विचारधारा के पक्षपाती दिखते हैं। उनके उपन्यासों में नारी अपना पृथक अस्तित्व बनाए रखते नजर आते हैं । स्वतंत्र भारत में नारी की स्थिति बेहतर हुई है । लेकिन यादव जी के “सारा आकाश” की प्रभा और मुन्नी की हालत गिरी हुई है। इससे पता चलता है कि भारत में नारी विशेषकर बहू आज भी शोषण और उत्पीड़न का जहर पी रही है । पुरानी पीढ़ी के लोग पढ़ी लिखी बहू लाने में हिचकते हैं। प्रभा का शिक्षित होना सास को खटकता है, भाभी को भी खटकता है। घर के सदस्य उन्हें इस बात पर डाँटते हैं कि “आग लगे ऐसी पढ़ाई में ।पढ़ाई अपने लिए होगी कि दूसरे की जान लेने को होगी।” प्रभा का चरित्र नारी स्वावलंबन की भावना से प्रेरित है । लेकिन शादी के बाद अपना जीवन चूल्हा चक्की में बंद करने के लिये तो मजबूर हो जाती है । समर जब उसकी पढ़ाई की बात कहते हैं तो अपना सारा क्षोभ वह इस प्रकार बहा देती है कि “इस पढ़ने-लिखने को कहां ले जाऊं? मां बाप ने पढ़ा दिया तो क्या करूं? जो कुछ पहले पढा लिखा था ,सब तो भूला दिया। किसी को घर मेंआज तक पढने – लिखने का घमंड दिखाया?” पति-पत्नी संबंध की शिथिलता यहाँ से शुरू होती है।
औरत ही औरत के खिलाफ शत्रुता का भाव प्रकट करती है। अपनी समव्यस्क पीढी या भावी पीढ़ी का शोषण करना उसकी आदत बन गई। उसने जो कुछ झेला है, सहा है ,भला दूसरी औरत उससे मुक्ति क्यों पाये? अपने शोषण का प्रतिकार करने में असमर्थ स्त्री अपनी ही जाति के शोषण करने पर तुली हैं । भाभी का कथन इसका परिचायक है – “औरत को जब तक दबाकर नहीं रखा जाता हाथ नहीं आती ।” भाभी सुंदर सुशील सुशिक्षित प्रभा से जलती है। वह प्रभाव को छोटी बनने का उपदेश देती है -“माफी मांग लो ऐसी बातों से क्या फायदा, तुम ही छोटी बन जाओ ।” प्रभा की दयनीय स्थिति का कारण खासतौर पर सास और भाभी है। सास दहेज ना मिलने से नाराज है । भाभी उसकी शिक्षा और सुंदरता को अपनी मानहानि का कारण समझती है। वह समर का कान भरती है। सुबह 3:00 बजे से रात 12:00 बजे तक प्रभा घर के काम में लीन है।
लेकिन उसके बारे में कोई नहीं सोचता । समर उससे एक नगण्य प्राणी की तरफ व्यवहार करते हैं । केवल मुन्नी ही प्रभा पर सहानुभूति का बर्ताव करती है। मुन्नी की जिंदगी में जो त्रासदी हुई बहुत दर्दनाक है । उसका पति और ससुर उस पर अत्याचार करते हैं और अमानवीय व्यवहार करते हैं । प्रभा को तो एक साल बाद पति का प्यार मिला लेकिन मुन्नी पति के प्यार से वंचित है। ऊपर से एक रखेल तक को झेलती है। प्रतिरोध करने पर उसे बेंत के मार मिलते हैं । मायके आने के बाद वह फिर उस नर्क में जाना नहीं चाहता चाहती लेकिन लोकलाज की बात कहकर मां-बाप उसे पति के साथ जाने में या जाने के लिए मजबूर करते हैं । फिर उसका मर जाने का खबर आता है । मुन्नी के साथ जो अत्याचार होता है उससे अम्मा तो व्यथित है लेकिन अपनी बहू से वह अमानवीय व्यवहार करने से हिचकती है ।
प्रभा तो परिवार में अपना स्थान बनाए रखने की कोशिश करती है । वह सुशिक्षित होकर भी पति के आत्मनिर्भर होने पर और ज्यादा पढ़ लिख कर नौकरी करने पर बल देना चाहती है। प्रभा तो दिलेर और साहसी नारी है । एक मध्यवर्गीय परिवार में नारी केवल शासित होने का एक कारण है उपकरण है । अपनी वेदना को अकेले ही सहन करती हुई जीवनभर ससुराल के अनेक सदस्यों द्वारा प्रताड़ित और तिरस्कृत होकर भी मुक बनी रहती है ।पत्नीत्व के अधिकार से वंचित पति के सम्मुख लांछित होती हुई व्यंग बाणों से छलनी कर दी जाती है । किंतु विरोध नहीं कर सकती ।
सारा आकाश में शोषक और शोषित दोनों वर्ग की नारियां हैं । अम्मा और भाभी शोषक है प्रभा और मुन्नी शोषित। शिक्षित होने से प्रभाव उनके विरुद्ध आवाज उठाने में सक्षम है । लेकिन मुन्नी तो अनपढ़ है इसलिए प्रतिक्रिया नहीं करती। अगर पढ़ी लिखी होती तो कोई काम करके अपने पैरों पर खड़ी हो जाती या हो सकती थी । मध्यवर्गीय परिवार में लड़के शिक्षित होते हैं/थे। लड़कियों को पढ़ाना नहीं चाहते थे इसका मूल कारण अर्थाभाव ही है । नारी शिक्षित हो या अशिक्षित घर का देखभाल करना उसका दायित्व ही है।
उन्हें अमानवीय व्यवहार भी भुगतना पड़ता है । मध्यवर्गीय नारी की इतनी दर्दनाक स्थिति है कि काम करके मर जाए फिर भी उसके साथ नर्म व्यवहार नहीं होते । पति अगर बेकार भी है तो कहे क्या ? सारा आकाश में जब समर को नौकरी मिलती है तो परिवार वालों का व्यवहार प्रभा के प्रति भी बदल जाता है नारी हमेशा अपने पति पर निर्भर रहकर अपने व्यक्तित्व को दबाकर जीने के लिए विवश है ,बाध्य है अपनी इच्छाओं और सपनों को हवा में उठाकर नारी को पुरुष की छाया बनकर रहना पड़ता है । प्रभा इसका ज्वलंत प्रमाण है।
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