लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी

लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी – Class 10th Social Science ( सामाजिक विज्ञान ) Notes in Hindi

लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी : सत्ता में साझेदारी लोकतंत्र के विकास के चरणों में सबसे नवीन मुद्दों में से है । “जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए होता है।

लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी

सत्ता में साझेदारी की संकल्पना

लोकतंत्र को प्राचीन समय में सबसे निकृष्ट शासन पद्धतियों में से समझा जाता था, किन्तु यूरोप में आधुनिकता के विकास के साथ-साथ लोकतंत्र भी वैश्विक स्तर पर सबसे पसंदीदा प्रणाली बन चुकी है । सत्ता में साझेदारी लोकतंत्र के विकास के चरणों में सबसे नवीन मुद्दों में से है । “जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए होता है ।” सत्ता अर्थात् राजनैतिक शक्ति में साझेदारी से यही तात्पर्य है ।

सभी लोगों के जीवन को प्रभावित करने वाले मिद्दे, मसले और निर्णयों को प्रभावित एवं निर्मित करने का अधिकार भी सभी के पास होना चाहिये न किसी एक व्यक्ति (निरंकुशवाद या राजतंत्र), कुछ व्यक्तियों (अल्पतंत्र या कुलीनवाद) या किसी समुदाय विशेष (एकलवाद) को । यही मत सत्ता में साझेदारी की संकल्पना में निहित है ।

सत्ता में साझेदारी की आवश्यकता

सत्ता में साझेदारी की आवश्यकता लोकतंत्र की मजबूती, स्थिरता और इसके आधार को अधिक से अधिक व्यपद बनाने के लिये सबसे महत्त्वपूर्ण दशा है ।

सत्ता में साझेदारी का स्वरूप

शुरुआत में विचार था कि सत्ता केंद्रीकृत होनी चाहिये अर्थात् राजनैतिक शक्ति का बँटवारा या विकेंद्रीकरण नहीं किया जाना चाहिये । राज्य की एकजुटता, एकीकरण और नियंत्रण के लिये केंद्रीकरण का ही समर्थन किया जाता था ।

हमारी आज की लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ काफी जटिल हैं । फलत: सत्ता के साझेदारी का स्वरूप भी बहुतायत रूप में दृष्टिगोचर होता है ।

सरकार का क्षैतिज संगठन 

राजनैतिक सत्ता के व्यवहारिक प्रयोग का सबसे स्पष्ट उदाहरण सरकार है । सरकार के कई महत्त्वपूर्ण अंग होते हैं, जो सत्ता के भिन्न-भिन्न रूपों का प्रयोग करते हैं । न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका ।

सरकार का श्रेणीबद्ध  गठन 

-इस प्रकार के गठन में राजनैतिक शक्ति क्षेत्राधिकार के आधार पर बाँटी जाती है । इसके स्तर क्रमश: छोटे से बड़े का या बड़े से छोटे होते जाते हैं । केंद्रीय सरकार, राज्य सरकार, जनपदीय व्यपस्था, पंचायत की व्यवस्था ।

सामुदायिक सरकार की अवधारणा

सरकार न सिर्फ गठन के आधार पर अपितु प्रतिनिधित्व के आधार पर भी ‘साझी’ होना चाहिये । समुदाय किसी भी वैविध्यपूर्ण और बहुसांस्कृतिक राज्य की सच्चाई होती है ।

दबाव समूहों की सत्ता में हिस्सेदारी

लोकतांत्रिक समाज की जटिलताओं ने नये-नये वर्गों को जन्म दिया है, जो प्राय: वर्ग-हितों के संरक्षण या बढ़ावे के लिये प्रयासरत रहते हैं ।

सत्ता पर एकाधिकार– साझेदारी के सवाल की जड़ कहीं न कहीं सत्ता पर एकाधिकार में जमी है । परंपरागत रूप से राजनैतिक शक्ति प्राय: कुछ चुनिंदा लोगों या समूहों के हाथ में ही रही । इन चुनिंदा लोगों का सत्ता आधार कभी कुलीनता, कभी राजशाही तो कभी बौद्धिक उत्कृष्टता या कभी बहुसंख्यता, विरासत इत्यादि रहे, जिसके कारण सत्ता कुछ लोगों तक ही सिमित रही ।

सत्ता के बाँटवारे में असमानता– सत्ता के एकाधिकार से ही गहराई से जुड़ा पक्ष है – सत्ता बँटवारे में असमानता एवं वंचितकरण का । सत्ता का समुदायों और वर्गों में असमान वितरण पाया जाता रहा है । जिसको साझेदारी की व्यवस्था के द्वारा समाप्त कर समाज में अधिक से अधिक समानता, भाईचारे के बढ़ावे और असंतोष को समाप्त करने पर जोर दिया जा रहा है ।

सत्ता के साझेदारी की व्यवहारिक आवश्यकता– सत्ता की साझेदारी की व्यवहारिक आवश्यकता का सवाल है जो सत्ता और समाज के परंपरागत स्वरूप से जुड़ा हुआ है । प्राय: सभी देशों में सत्ता समाज के कुछ विशिष्ट लोगों के हाथ में ही रही ।

लोकतंत्र में द्वंद्ववाद – लोकतंत्र का आधार स्तंभ जनता होती है । जनता को ही आधार मानकर शासन-व्यवस्था की रूपरेखा तय की जाती है । समाज में किसी भी मुद्दे पर जनता की विभिन्न प्रकार की आकांक्षाएँ होती हैं । ये आकांक्षाएँ जनता के बीच कभी-कभी टकराव उत्पन्न कर देती हैं, जिसे द्वंद्व (Conflict) कहते हैं । यह द्वंद्व समाज में लोकतांत्रिक व्यवहार से प्रभावित होते हैं ।

लोकतंत्र में नागरिकों को देश के अंदर किसी भी क्षेत्र में निवास करने, घूमने, व्यापार एवं व्यवसाय करने का अधिकार है । भारत में सामाजिक विभाजन एवं टकराव के अनेक मुद्दे हैं । यहाँ भाषा, संस्कृति, जाति, धर्म आदि के आधार पर उत्पन्न द्वंद्व लोकतंत्र को व्यापक रूप से प्रभावित करते हैं ।

सामाजिक विभेद, विभाजन एवं सहिष्णुता – सामाजिक विभेद आधुनिक और बड़े समाजों की महत्त्वपूर्ण चुनौती है । इसका उपयुक्त संयोजन और प्रबंधन जहाँ एक ओर तमाम अवसरों के द्वार खोल सकता है, वहीं  आक्षमता के कारण यह देश और समाज के लिये संकटप्रद भी हो सकता है ।

सामाजिक विभेदीकरण का स्वरूप – समाज में विभेदीकरण सामान्य प्रक्रिया है जो इसकी जटिलता और विविधता से और भी बढ़ जाती है । विभेदीकरण का आधार धार्मिक हो सकता है, जैसे हिंदू या मुस्लिम या सांप्रदायिक जैसे शिया या सुन्नी, भारत में और ईरान तथा इराक में भी । यूरोप के देशों में दक्षिणी राज्य प्राय: कैथोलिक धर्मावलंबी हैं, जबकि उत्तरी राज्य प्राय: प्रोटेस्टेंट जो ईसाई धर्म के ही दो संप्रदाय हैं ।

सामाजिक भेदभाव एवं विविधता की उत्पत्ति

सामाजिक विभाजन एवं भेदभाव के कई स्वरूप होते हैं । सामजिक भेदभाव एवं विविधता के कुछ स्वरूप तो व्यक्ति में जन्मजात होते हैं, परंतु कुछ स्वरूप व्यक्ति अपनी इच्छा से चुनते हैं । सामाजिक भेदभाव एवं विविधता का एक रूप जाति या समुदाय है।

विविधता, विभेद और भेदभाव

लोकतंत्र जहाँ विविधताओं, विभेदों और विभिन्न पहचानों वाले समुदायों के प्रतिनिधित्व और सबलीकरण के लिये सर्वक्षेष्ठ व्यंवस्था हो सकती है, वहीं इनका सही तरह से प्रबंधन, समायोजन और सामंजस्यीकरण न होने से राज्य के लिये चुनौतियाँ भी पैदा हो सकती हैं । ये प्रवृत्तियाँ संकीर्ण हितों के बढ़ावे की अंतर्वृति के कारण तोड़-फोड़, अलगाव, वैमनस्य और राष्ट्रवाद-विरोधी प्रवृत्तियों को भी जन्म दे सकती हैं।

लोकतंत्र की समन्वयात्मक भूमिका

लोकतंत्र सत्ता में साझेदारी की माँगों को बड़े प्रभावी तरीके से नियमन कर सकता है । सार्वजनिक मताधिकार, प्रतिनिधियों के चुनाव और कहीं वापस बुलाये जाने के अधिकार, महत्त्वपूर्ण विधायी मुद्दों पर सामान्य बहुमत से अधिक की आवश्यकता, स्थिरता की आकांक्षा और आंदोलनों के ध्यानाकर्षण स्वरूप के कारण इसमें लोचनीयता और परिवर्तानशिलता का गुण पाया जाता है।

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