लेखक स्वयं प्रकाश जी का जीवन परिचय । Swayam Prakash Biography in Hindi । नेताजी का चश्मा
स्वयं प्रकाश
स्वयं प्रकाश भारतीय समाज के सजग प्रहरी और सच्चे प्रतिनिधि साहित्यकार हैं। उनकी रचनाओं में समाज कीतत्कालीन सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों कासजीव चित्रण देखने को मिलता है। स्वयं प्रकाशजी ने अपनी कहानियों और उपन्यासों में यथार्थ और आदर्श का अद्भुत समन्वय किया है। उनके साहित्य में सामाजिक बंधनों में छटपटाती हुई नारियों की वेंदनातथा वर्ण व्यवस्था या संप्रदाय व्यवस्था के तहत शोषितव्यक्तियों की पीड़ा के मर्मस्पर्शी चित्र उपस्थित किये गये है, जो कि तर्कत: बेजोड़ हैं।
जन्म और प्रारंभिक जीवन:
प्रसिद्ध गद्यकार स्वयं प्रकाश का जन्म सन् 1947 में मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में हुआ था। उनका बचपन राजस्थान में व्यतीत हुआ। वहीं से अध्ययन कार्य पूरा कर मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके एक औद्योगिक प्रतिष्ठान में नौकरी करने लगे। उनकी नौकरी का भी अधिकांश समय राजस्थान में ही बीता। स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद वे वर्तमान में भोपाल में रह रहे हैं। यहाँ वे ‘वसुधा’ पत्रिका के संपादन कार्य से जुड़े हुए हैं। उन्हें अब तक पहल सम्मान, वनमाली पुरस्कार, राजस्थान अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
प्रमुख रचनाएँ:
स्वयं प्रकाश जी अपने समय के प्रसिद्ध कहानीकार हैं। अब तक उनके तेरह कहानी संग्रह और पाँच उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्न हैं-
कहानी संग्रह:
′ सूरज कब निकलेगा ′ , ′ आएँगे अच्छे दिन भी ′ , आदमी जात का आदमी ′ , औश्र ′ संधान ′ उल्लेखनीय हैं।
प्रमुख उपन्यास:
‘बीच में विनय’, ईंधन।
साहित्यिक विशेषताएँ:
स्वयं प्रकाश मध्यवर्गीय जीवन के कुशल चितेरे हैं। उनकी कहानियों में वर्ग-शोषण के विरुद्ध चेतना का भाव देखने को मिलता है। उन्होंने अपनी रचनाओं के अंतर्गत सामाजिक जीवन में जाति, संप्रदाय और लिंग के आधार पर हो रहे भेदभाव के विरुद्ध प्रतिकार के स्वर को उभारा है। स्वयं प्रकाश के साहित्य पर आदर्शवादी विचारधारा का काफी प्रभाव है। इनकी कृतियों में देश, समाज, नगर-गाँव की सुख-समृद्धि देखने की आकांक्षा प्रकट हुई है। भारतीय सांस्कृतिक जीवन-मूल्य उनमें प्रवाहित हुए हैं। स्वयं प्रकाश मध्यमवर्गीय जीवन के कुशल चितेरे स्वयं प्रकाश की कहानियों में वर्ग-शोषण के विरुद्ध चेतना है तो हमारे सामाजिक जीवन में जाति, संप्रदाय और लिंग के आधार पर हो रहे भेदभाव के विरुद्ध प्रतिकार का स्वर भी है। रोचक किस्सागोई शैली में लिखी गई स्वयं प्रकाश की कहानियाँ हिंदी की वाचिक परंपरा को समृद्ध करती हैं
भाषा-शैली:
स्वयं प्रकाश ने अपनी रचनाओं के लिए सरल, सहज एवं भावानुकूल भाषा को अपनाया है। उन्होंने लोक-प्रचलित खड़ी बोली में अपनी रचनाएँ की। तत्सम, तद्भव, देशज, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी के शब्दों की बहुलता से प्रयोग है, फिर भी वे शब्द स्वाभाविक बन पड़े हैं। उनके छोटे-छोटे वाक्यों में चुटिलता है। हास्य एवं व्यंग्य उनकी रचनाओं का प्रमुख विषय रहा है। एक वाक्य में विभिन्न भाषाओं के प्रचलित शब्दों का प्रयोग कर एक नई रीति के दम पर पाठक के लिए सहजता से समझने का भाव पैदा कर दिया है।
सुप्रसिद्ध लेख “नेताजी का चश्मा”
प्रस्तुत कहानी के माध्यम से लेखक स्वयं प्रकाश ने बताना चाहा है कि वह भू-भाग जो सीमाओं से घिरा हुआ है, देश नहीं कहलाता है। बल्कि इसके अंदर रहने वाले प्राणियों, जीव-जन्तुओं, पेड़-पौधों, नदियों-पहाड़ों, प्राकृतिक सौंदर्य आदि में तारतम्यता स्थापित होने से देश बनता है और इन सबको समृदध करने व इन सबसे प्रेम करने की भावना को ही देश-प्रेम कहते हैं। कैप्टन चश्मे वाले के माध्यम से लेखक ने उन करोड़ों देशवासियों के योगदान को सजीव रूप प्रदान किया है जो किसी न किसी तरीके से इस देश के निर्माण में अपना योगदान देते हैं। ऐसा नहीं है कि केवल बड़े ही देश-निर्माण में सहायक होते हैं, बच्चे भी इस पुण्य-कर्म में अपना योगदान देते हैं।
हालदार साहब को हर पंद्रहवे दिन कंपनी के काम के सिलसिले में उस कस्बे से गुजरना पड़ता था। कस्बा बहुत बड़ा नहीं था। जिसे पक्का मकान कहा जा सके वैसे कुछ ही मकान और जिसे बाज़ार कहा जा सके वैसे एक ही बाज़ार था। कस्बे में एक लड़कों का स्कूल, एक लड़कियों का स्कूल, एक सीमेंट का छोटा-सा कारखाना, दो ओपन एयर सिनेमाघर और एक ठो नगरपालिका भी थी। नगरपालिका थी तो कुछ-न-कुछ करती भी रहती थी। कभी कोई सड़क पक्की करवा दी, कभी कुछ पेशाबघर बनवा दिए, कभी कबूतरों की छतरी बनवा दी तो कभी कवि सम्मेलन करवा दिया। इसी नगरपालिका के किसी उत्साही बोर्ड या प्रशासनिक अधिकारी ने एक बार ‘शहर’ के मुख्य बाज़ार के मुख्य चौराहे पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की एक संगमरमर की प्रतिमा लगवा दी। यह कहानी उसी प्रतिमा के बारे में है, बल्कि उसके भी एक छोटे से हिस्से के बारे में।
पूरी बात तो अब पता नहीं, लेकिन लगता है कि देश के अच्छे मूर्तिकारों की जानकारी नहीं होने और अच्छी मूर्ति की लागत अनुमान और उपलब्ध बजट से कहीं बहुत ज्य़ादा होने के कारण काफ़ी समय ऊहापोह और चिट्ठी-पत्री में बरबाद हुआ होगा और बोर्ड की शासनावधि समाप्त होने की घड़ियों में किसी स्थानीय कलाकार का ही अवसर देने का निर्णय किया होगा, और अंत में कस्बे के इकलौते हाई स्कूल के इकलौते ड्राइंग मास्टर-मान लीजिए मोतीलाल जी-को ही यह काम सौंप दिया गया होगा, जो महीने-भर में मूर्ति बनाकर ‘पटक देने’ का विश्वास दिला रहे थे।
कहानी के आरम्भ में बताया गया हे कि कहानी के मुख्य पात्र हालदार साहब को कंपनी के काम से उस कस्बे से गुजरना पड़ता था, जिस कस्बे से यह कहानी जुड़ी हुई है। उस छोटे से कस्बे में कुछ पक्के मकान स्कूल, सीमेंट का छोटा-सा कारखाना, दो खुले सिनेमाघर और नगरपालिका का कार्यालय था। नगरपालिका द्वारा विकास कार्य होते रहते थे। एक योग्य प्रशासनिक अधिकारी ने नगर के चौराहे पर नेताजी सुभाष चंद्रबोस की संगमरमर की प्रतिमा लगवा दी। प्रतिमा बनाने वाले कलाकारों की खोज, अधिक लागत लगने और बोर्ड का शासनकाल कम रहने के कारण किसी स्थानीय कलाकार के रूप में यह कार्य स्कूल के ही ड्राइंग अध्यापक को दिया गया। अध्यापक ने भी महीने भर में मूर्ति बना डालने का आश्वासन दे दिया।
जैसा कि कहा जा चुका है, मूर्ति संगमरमर की थी। टोपी की नाक से कोट के दूसरे बटन तक कोई दो फुट ऊँची। जिसे कहते हैं बस्ट। और सुंदर थी। नेताजी सुंदर लग रहे थे। कुछ-कुछ मासूम और कमसिन। फ़ौजी वर्दी में। मूर्ति को देखते ही ‘दिल्ली चलो’ और ‘तुम मुझे खून दो …’ वगैरह याद आने लगते थे। इस दृष्टि से यह सफल और सरहानीय प्रयास था। केवल एक चीज़ की कसर थी जो देखते ही खटकती थी। नेताजी की आँखों पर चश्मा नहीं था। यानी चश्मा तो था, लेकिन संगमरमर का नहीं था। एक सामान्य और सचमुच के चश्में का चौड़ा काला फ्रेम मूर्ति को पहना दिया गया था। हालदार साहब जब पहली बार इस कस्बे से गुज़रे और चौराहे पर पान खाने रुके तभी उन्होंने इसे लक्षित किया और उनके चेहरे पर एक कौतुकभरी मुसकान फैल गई। वाह भई! यह आईडिया भी ठीक है। मूर्ति पत्थर की, लेकिन चश्मा रियल।
जीप कस्बा छोड़कर आगे बढ़ गई तब भी हालदार साहब इस मूर्ति के बारे में ही सोचते रहे, और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि कुल मिलाकर कस्बे के नागरिकों का यह प्रयास सराहनीय ही कहा जाना चाहिए। महत्त्व मूर्ति के रंग-रूप या कद का नहीं, उस भावना का है, वरना तो देश-भक्ति भी आजकल मज़ाक की चीज़ होती जा रही है।
दूसरी बार जब हालदार साहब उधर से गुज़रे तो उन्हें मूर्ति में कुछ अंतर दिखाई दिया। ध्यान से देखा तो पाया कि चश्मा दूसरा है। पहले मोटे फ्रेमवाला चौकोर चश्मा था, अब तार के फ्रेमवाला गोल चश्मा है। हालदार साहब का कौतुक और बढ़ा वाह भई! क्या आइडिया है। मूर्ति कपड़े नहीं बदल सकती, लेकिन चश्मा तो बदल ही सकती है।
यहाँ बताया गया है कि स्कूल अध्यापक ने नेताजी सुभाष चंद्रबोस की छाती तक की दो फुट की संगमरमर की मूर्ति बनाई। उस मूर्ति में नेताजी सुंदर, भोले व आकर्षक लग रहे थे। वह मूर्ति देश के लिए कुर्बानी देने की प्रेरणा देती प्रतीत हो रही थी। उन्हें सचमुच का चश्मा पहनाया गया था। हालदार साहब ने जब पहली बार उस प्रतिमा को देखा तो वे रोमांचित हो गया कि इतना अच्छा उपाय किया गया है। वे वहाँ से जाने के बाद भी उसी के विषय में सोचते रहे। उन्हें लगा कि आज भी लोग देश भक्ति को अपने हृदय में बसाए हुए हैं जिस कारण वे देश के वीरों का इस तरह से सम्मान करते हैं। दूसरी तरफ आज देश के विषय में बात करने वाले का सर्वत्र उपहास ही उड़ाया जाता है। दूसरी बार हालदार साहब वहाँ गए तो उन्हें चश्मा बदला हुआ मिला। यह देखकर उनके रोमांच का ठिकाना ही न रहा कि मूर्ति कपड़े तो बदल नहीं सकती किंतु चश्मा तो बदला जा सकता है।
तीसरी बार फिर नया चश्मा था।
हालदार साहब की आदत पड़ गई, हर बार कस्बे से गुजरते समय चौराहे पर रुकना, पान खाना और मूर्ति को ध्यान से देखना। एक बार जब कौतूहल दुर्दमनीय हो उठा तो पानवाले से ही पूछ लिया, क्यों भई! क्या बात है? यह तुम्हारे नेताजी का चश्मा हर बार बदल कैसे जाता है?
पाने वाले के खुद के मुँह में पान ठुँसा हुआ था। वह एक काला मोटा और खुशमिज़ाज आदमी था। हालदार साहब का प्रश्न सुनकर वह आँखों-ही-आँखों में हँसा। उसकी तोंद थिरकी। पीछे घूमकर उसने दुकान के नीचे पान थूका और अपनी लाल-काली बत्तीसी दिखाकर बोला, कैप्टन चश्मेवाला करता है।
क्या करता है? हालदार साहब कुछ समझ नहीं पाए।
चश्मा चेंज कर देता है। पानवाले ने समझाया।
क्या मतलब? क्यों चेंज कर देता है? हालदार साहब अब भी नहीं समझ पाए।
कोई गिराक आ गया समझो। उसको चौड़े चौखट चाहिए। ताेे कैप्टन किदर से लाएगा? तो उसको मूर्तिवाला दे दिया। उदर दूसरा बिठा दिया।
अब हालदार साहब को बात कुछ-कुछ समझ में आई। एक चश्मेवाला है जिसका नाम कैप्टन है। उसे नेताजी की बगैर चश्मेवाली मूर्ति बुरी लगती है। बल्कि आहत करती है, मानो चश्मे के बगैर नेताजी को असुविधा हो रही हो। इसलिए वह अपनी छोटी-सी दुकान में उपलब्ध गिने-चुने फ्रेमों में से एक नेताजी की मूर्ति पर फिट कर देता है। लेकिन जब कोई ग्राहक है और उसे वैसे ही फ्रेम की दरकार होती है जैसे मूर्ति पर लगा है, तो कैप्टन चश्मेवाला मूर्ति पर लगा फ्रेम-संभवत: नेताजी से क्षमा माँगते हुए-लाकर ग्राहक को देता है और बाद में नेताजी को दूसरा फ्रेम लौटा देता है। वाह! भई खूब! क्या आइडिया है।
लेकिन भाई! एक बात अभी भी समझ में नहीं आई। हालदार साहब ने पानवाले से फिर पूछा, नेताजी का आरिजिनल चश्मा कहाँ गया? पानवाला दूसरा पान मुँह में ठूँस चुका था। दोपहर का समय था, ‘दुकान’ पर भीड़-भाड़ अधिक नहीं थी। वह फिर आँखों-ही आँखों में हँसा। उसकी तोंद थिरकी। कत्थे की डंडी फेंक, पीछे मुड़कर उसने नीचे पीक थूकी और मुसकराता हुआ बोला, मास्टर बनाना भूल गया। पानवाले के लिए यह एक मज़ेदार बात थी, लेकिन हालदार साहब के लिए चकित और द्रवित करने वाली। यानी वह ठीक ही सोच रहे थे। मूर्ति के नीचे लिखा ‘मूर्तिकार मास्टर मोतीलाल’ वाकई कस्बे का अध्यापक था। बेचारे ने महीने-भर में मूर्ति बनाकर पटक देने का वादा कर दिया होगा। बना भी ली होगी, लेकिन पत्थर में पारदर्शी चश्मा कैसे बनाया जाए- काँचवाला-यह तय नहीं कर पाया होगा। या कोशिश की होगी और असफल रहा होगा। या बनाते -बनाते ‘कुछ और बारीकी’ के चक्कर में चश्मा टूट गया होगा। या पत्थर का चश्मा अलग से बनाकार फिट किया होगा और वह निकल गया होगा। उफ़ … ।
हालदार साहब जब भी कस्बे में आते नेताजी की प्रतिमा को अवश्य देखते। हर बार उन्हें नेताजी का चश्मा बदला हुआ मिलता। एक दिन पानवाले से पूछने पर उन्हें पता चला कि कैप्टन नाम का चश्में बेचने वाला व्यक्ति मूर्ति पर चश्मा लगाता है और किसी ग्राहक को वैसा-चश्मा चाहिए तो वह उस चश्में को उतार लेता है और दूसरा पहना देता है। असली चश्में के विषय में पूछने पर पता चलता है ड्राइंग मास्टर चश्मा बनाना भूल गया। फिर हालदार साहब ने मास्टर की मानसिक स्थिति के विषय में कई तरह से सोचा।
हालदार साहब को यह सब कुछ बड़ा विचित्र और कौतुकभरा लग रहा था। इन्हीं खयालों में खोए-खोएपान के पैस चुकाकर, चश्मेवाले की देश-भक्ति के समक्ष नतमस्तक होते हुए वह जीप की तरफ़ चले, फिर रुके, पीछे मुड़े और पानवालों के पास जाकर पूछा, क्या कैप्टन चश्मेवाला नेताजी का साथी है? या आज़ाद हिंद फ़ौज का भूतपूर्व सिपाही?
पानवाला नया पान खा रहा था। पान पकड़े अपने हाथ को मुँह से डेढ़ इंच दूर रोककर उसने हालदार साहब
को ध्यान से देखा, फिर अपनी लाल-काली बत्तीसी दिखाई और मुसकराकर बोला-नई साब! वे लंगड़ा क्या जाएगा फ़ौज में। पागल है पागल! वे आ रहा है। आप उसी से बात कर लो। फोटो छपवा दो उसका कहीं।
हालदार साहब को पान वाले द्धारा एक देशभक्त का इस तरह मज़ाक उड़ाया जाना अच्छा नहीं लगा। मुड़कर देखा तो अवाक् रह गए। एक बेहद बूढ़ा मरियल-सा लंगड़ा आदमी सिर गांधी टोपी और आँखों पर काला चश्मा लगाए एक हाथ में एक छोटी सी संदूकची और दूसरे हाथ में एक बाँस पर टंगे बहुत-से चश्में लिए अभी-अभी एक गली से निकला था और अब एक बंद दुकान के सहारे अपना बाँस टिका रहा था। तो इस बेचारे की दुकान भी नहीं! फेरी लगाता है! हालदार साहब चक्कर में पड़ गए। पूछना चाहते थे, इसे कैप्टन क्यों कहते है? क्या यही इसका वास्तविक नाम हैं? लेकिन पानवाले ने साफ़ बता दिया था कि अब वह इस बारे में और बात करने को तैयार नहीं। ड्राइवर भी बेचैन हो रहा था। काम भी था। हालदार साहब में बैठकर चले गए।
हालदार साहब पान वाले से यह भी पूछते हैं कि क्या चश्में वाला कैप्टन नेताजी का कोई साथी है या आजाद हिंद फ़ौज का कोई भूतपूर्व सैनिक है? पान वाला उपहास के भाव में बताता है कि वह लंगड़ा और पागल है। वह कैसे फ़ौज में जा सकता है। उसे सामने से चश्मा वाला भी आता दिखाई देता है। जिसे पान वाला हालदार साहब को भी दिखाता है। हालदार साहब को देशभक्तों का ऐसा मज़ाक अच्छा नहीं लगा। उन्होंने देखा कि एक कमजोर लगड़ा आदमी गांधी टोपी और काला चश्मा लगाए एक छोटी-सी लोहे की पेटी और बाँस पर चश्मे लटकाए आ रहा था। वह फेरी लगा कर चश्में बेचता था। हालदार साहब उसे कैप्टन बताने की वृत्ति में नहीं है और न ही वहाँ ज्यादा रुकने का उनके पास समय था।
दो साल तक हालदार साहब अपने काम के सिलसिले में उसके कस्बे से गुजरते रहे और नेताजी की मूर्ति में बदलते हुए चश्मों को देखते रहें। कभी गोल चश्मा होता, तो कभी चौकोर, कभी लाल, कभी काला, कभी धूप का चश्मा, कभी बड़े काँचों वाला गोगो चश्मा … . पर कोई-न-कोई चश्मा होता ज़रूर … उस धूलभरी यात्रा में हालदार साहब को कौतुक और प्रफुल्लता के कुछ क्षण देने के लिए।
फिर एक बार ऐसा हुआ कि मूर्ति के चेहरे पर कोई भी, कैसा भी चश्मा नहीं था। उस दिन पान की दुकान भी बंद थी। चौराहे की अधिकांश दुकानें बंद थीं।
अगली बार भी मूर्ति की आँखों पर चश्मा नहीं था। हालदार साहब ने पान खाया और धीरे से पानवाले से पूछा-क्यों भई, क्या बात है? आज तुम्हारे नेताजी की आँखों पर चश्मा नहीं हैं? पानवाला उदास हो गया। उसने पीछे मुड़कर मुँह का पान नीचे थूका और सिर झुकाकर अपनी धोती के सिरे से आँखे पोछता हुआ बोला-साहब। कैप्टन मर गया।
और कुछ नहीं पूछ पाए हालदार साहब। कुछ पल चुपचाप खड़े रहे, फिर पान के पैसे चुकाकर जीप आ बैठे और रवाना हो गए।
बार-बार सोचते, क्या होगा उस कौम का जो अपने देश की खातिर घर-गृहस्थी-जवानी-ज़िंदगी सब कुछ होम देनेवालों पर भी हँसती है और अपने लिए बिकने के मौके ढूँढती है। दुखी हो गए।
पंद्रह दिन बाद फिर उसी कस्बे से गुज़रे। कस्बे में घुसने से पहले ही खयाल आया कि कस्बे की हृदयस्थली में सुभाष की प्रतिमा अवश्य ही प्रतिष्ठापित होगी, लेकिन सुभाष की आँखों पर चश्मा नहीं होगा। … क्योंकि मास्टर बनाना भूल गया। … और कैप्टन मर गया। सोचा, आत वहाँ रुकेंगे नहीं, पान भी नहीं खाएंगे, मूर्ति की तरफ़ देखेंगे भी नहीं, सीधे निकल जाएंगे। ड्राइवर से कह दिया, चौराहे पर रुकना नहीं, आज बहुत काम है, पान आगे कहीं खा लेंगे।
लेकिन आदत से मज़बूर आँखें चौराहा आते ही मूर्ति की तरफ़ उठ गईं। कुछ ऐसा देखा कि चीखे रोको! जीप स्पीड में थी, ड्राइवर ने ज़ोर से ब्रेक मारे। रास्ता चलते लोग देखने लगे। जीप रुकते-न- रुकते हालदार साहब जीप से कूदकर तेज़-तेज़ कदमों से मूर्ति की तरफ़ लपके और उसके ठीक सामने जाकर अटेंशन में खड़े हो गए। मूर्ति की आँखों पर सरकंडे से बना छोटा-सा चश्मा रखा हुआ था, जैसा बच्चे बना लेते हैं। हालदार साहब भावुक हैं। इतनी-सी बात पर उनकी आँखे भर आईं।
लगभग दो वर्ष तक हालदार साहब उस कस्बे से गुजरते रहे और चश्में का बदलना देखते रहे। लेकिन चश्मा रहता अवश्य था। एक दिन नेताजी की मूर्ति पर कैसा भी चश्मा नहीं था और दुकाने भी बंद थीं। अगली बार जब हालदार साहब आए तो पान वाले से चश्मा न होने कारण पूछने पर पता चला कि कैप्टन मर गया था। वे चुपचाप वहाँ से वापस आ गए। वे इस बात को सोचकर दुखी हो गए कि अपना सब कुछ बलिदान करने वालों पर लोग हँसते हैं और अपने क्षुद्र स्वार्थ निकालने के लिए बिकने तक को तैयार रहते हैं।
कुछ दिन हालदार साहब जब फिर उधर से गुजरे तो यह निश्चय कर रखा था कि वे न तो वहाँ रूकेंगे, न पान खाएंगे और न ही मूर्ति की तरफ़ देखेंगे। लेकिन जैसे मूर्ति के पास पहुँचे वे जीप को रूकवाने के लिए चिल्लाए और चलती जीप से कूदकर मूर्ति के सामने सीधे खड़े हो गए। मूर्ति पर किसी छोटे बच्चे ने सरकंडे का चश्मा बनाकर लगा रखा था। बच्चों की देश पर कुर्बान वीरों और देश के प्रति भक्ति की इस भावना पर हालदार साहब भावुक हो उठे।
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