तिब्बत के पथ पर : राहुल सांकृत्यायन ( Tibbat Ke Path Par : Rahul Sankrityayan )
तिब्बत के पथ पर : तिब्बत के पथ पर राहुल सांस्कृत्यायन द्वारा रचित यात्रा वृतांत है जिसमें उन्होंने अपनी तिब्बत यात्रा का रोचक व ज्ञानवर्धक वर्णन किया है ।
तिब्बत के पथ पर : राहुल सांकृत्यायन
आज सवेरे-सवेरे थोड़ा-थोड़ा पानी बरस रहा था । बड़े सवेरे ही शौच आदि से निवृत हो मैंने तमंग तरुण से साथ चलने को कहा । उसे अपने खेत को काटना था, इसलिए अवश्य कठिनाई थी । अंत में मैंने उसे ‘तात-पानी’ तक ही चलने के लिए कहा । उसके मन में भी न जाने क्या ख्याल आया, और वह चलने को तैयार हो गया । तब तक आठ बज गए थे । बूँदें भी कुछ हल्की हो गई थी । मैंने सबसे विदाई ली । गाँव से थोड़ा मक्खन तो नहीं मिल सका, सत्तू लेकर हम चल पड़े । मालूम हुआ हमारे रास्ते के बगल में ही चरवाहों का डेरा है। वहाँ मक्खन मिल जाएगा । हमारा रास्ता पहाड़ के ऊपरी हिस्से पर से जा रहा था । यहाँ चारों ओर जंगल था । रास्ता कहीं-कहीं तो काफी चौड़ा था । इन रास्तों की मरम्मत आदि गांव के लोग ही किया करते हैं ।
छह घंटे बाद हम चरवाहों के डेरे में पहुंच गए। मोटी जंजीरों में बंधे कुत्तों ने कान के पर्दे फाड़ना शुरू किया । गृहिणी ने कुत्तों को दबाया तब फिर हम डेरे के भीतर घुसने पाये । डेरा क्या था, चट्टाइयों से छाया हुआ झोपड़ा था, जिसके भीतर खाने-पीने का सामान, कपड़े, बिछौने-बर्तन सभी ठीक से रखे हुए थे । जामो ( गाय और चमरे मृग से उत्पन्न मादा ) दुही जा रही थी। गृहपति लकड़ी के छोटे बर्तनों में दूध दुह-दुह कर लाता था । गृहपत्नी चारा तैयार कर रही थी । इस देश में दुहने के वक्त गाय के सामने कोई खाने की चीज अवश्य रखनी होती है। डेरे के एक कोने में लकड़ी का बड़ा बर्तन छाछ से भरा हुआ था । डेरे वालों ने दूध पीने को कहा किंतु मैंने छाछ पसंद की । इसके बाद उन्होंने खाने का आग्रह किया । आगे रास्ते में कुछ खाने को मिलेगा या नहीं इसका कुछ ठीक नहीं था, इसलिए मैंने निमंत्रण स्वीकार कर लिया । उसी वक्त उन्होंने चावल और तरकारी बनाई । हमारे खाना समाप्त करने तक उन्होंने मक्खन भी तैयार कर दिया । इस प्रकार ग्यारह बजे के करीब हमें छुट्टी मिली ।
विशालकाय वृक्षों के बीच से रास्ता बड़ा सुहावना मालूम होता था। जंगली पक्षियों के मधुर शब्द कर्णगोचर ( सुनाई देना ) हो रहे थे । मेरा साथी भोटिया ( भूटान की ) भाषा अच्छी जानता था, उसकी दूसरी बोली मैं नहीं जानता था। दोनों बीच-बीच में भोटिया में बात करते, कभी स्ट्रॉबेरी चुनते, कभी जोकों से पैर बचाते, आगे बढ़ रहे थे । ऊपर कहीं-कहीं गाँव भी मिलते थे। यह सभी गाँव ‘येल्मो’ लोगों के थे। सारा गाँव सफेद ध्वजाओं का जंगल था। गाँव के पास रास्ते में ‘मानी’ ( बौद्ध धर्म से सम्बंधित कोई पवित्र संरचना ) होना अनिवार्य था। मानियों के दोनों ओर रास्ता बहुत साफ बनाया गया था ।
बौद्ध यात्री सदा इन मानियों को दाहिने रख परिक्रमा करते चला करते हैं । यद्यपि इस प्रकार चारों ओर परिक्रमा नहीं होती, तो भी उसकी लंबी परिक्रमा हो जाती है या भविष्य की यात्राओं से परिक्रमा पूरी हो जाती है, और आदमी महापुण्य का अधिकारी हो जाता है । एक गाँव में तो ‘मानी’ की दीवारों में पत्थरों पर खुदी हुई तस्वीरों पर रंग भी ताजा ही लगा हुआ था । ऊपर कह चुका हूँ, ‘येल्मों’ लोगों में लामा-धर्म बहुत जाग्रत है और वह खाने-पीने से भी खुश हैं ।
एक बजे के करीब हम डाँडे के किनारे पर आए। वहाँ से हमें दूसरी ओर जाना था । एन ला ( दर्रा ) पर बड़ी मानी थी । दूसरी ओर पहुंचते ही सीधी उतराई शुरू हुई है । थोड़ा नीचे उतरने पर जंगल आँखों से ओझल हो गया । चारों ओर खेत ही खेत थे । थोड़ी ही देर में पके जौ और गेहूं के खेत भी ऊपर छूट गए । जितना ही हम नीचे जाते थे, उतना ही तापमान का प्रभाव खेतों पर दिखाई पड़ता था । मैं भी अब चलने में कमजोर न था, मेरे साथी को भी खेत काटने के लिए जल्द लौटना था । इसलिए हम खूब तेजी से उतर रहे थे।
‘तमंगों’ के कितने ही गाँवों को पारकर, निचले हिस्से में गोर्खों के गाँव मिले । यहां मकई एक-एक बालिश्त उगी थी । तीन-चार बजे हम नीचे नदी के पुल पर पहुँच गए । यहाँ भी एक सरकारी सिपाही रहता था किंतु उसे एक भोटिया लामा से क्या लेना था । पार होकर चढ़ाई शुरू हो गई । चढ़ाई में अब उतनी फुर्ती नहीं हो सकती थी । पाँच बजे के बाद थकावट भी मालूम होने लगी । हमने सवेरे ही सवेरे का निश्चय कर लिया । पास के गाँव में एक ब्राह्मण का घर मिला । गृहपति ने लामा को आसन दे दिया । साथी ने भात बनाया । रात बिताकर फिर हम ऊपर की ओर बढ़े । कितने ही गाँव और नालों को पार करते हुए दोपहर के करीब हम डाँडे पर पहुंचे । डाँडे को पार करते ही फिर वृक्षों से शून्य पहाड़ मिला । बारह बजे के बाद दूसरा डाँडा भी पार कर लिया और अब हम काठमाण्डव से कुत्ती जाने वाले रास्ते पर थे । यह रास्ता ऊपर-ऊपर से जाने वाला है । नीचे से एक दूसरा भी रास्ता है, लेकिन वह बहुत गर्म है ।
इस डाँडे को पार करने पर फिर हमें घना जंगल मिला। आजकल कुत्ती से नमक लाने का मौसम था, इसलिए झुंड के झुंड आदमी या तो मकई-चावल लेकर कुत्ती की ओर जा रहे थे या नमक पीठ पर लादे पीछे लौट रहे थे । दो बजे के करीब से उतराई शुरू हुई । अब भी हम ‘शर्बों’ की बस्ती में थे । ‘येल्मो’ लोग भी ‘शर्बा’ भोटियों की एक शाखा है । यह ‘शर्बा’ भोटिये दार्जलिंग तक बसते चले गए हैं, ‘शर् – बा’ का मतलब है – पूर्ववाला । एक शर्बा से पूछने पर मालूम हुआ कि डुक्पा लामा अभी इधर से नहीं गुजरे हैं । विश्वास हो चला शायद पीछे ही हैं । एक घंटे की उतराई के बाद मालूम हुआ डुक्पा लामा अगले गांव में ठहरे हुए हैं। बड़ी प्रसन्नता हुई । तीन बजे हम जाकर उनके सामने खड़े हुए ।
मेरा उनका झगड़ा तो था नहीं, सिर्फ जातीय स्वभाव के कारण उन्होंने मेरी उपेक्षा की थी । सभी लोग ‘पंडिता’ को देखकर बड़े प्रसन्न हुए । उस रात को वहीं रहना हुआ । गाँव ‘तमंगों’ का था । यह लामा धर्म के माननेवाले कहे जाते हैं । लेकिन डुक्पा लामा ऐसे बड़े लामा के लिए भी उनको कोई श्रद्धा न थी । दाम देने पर भी मुश्किल से चीज मिलती थी । मेरे दिल में अब पूर्ण शांति थी। कुल्लू के रियंचन साथ थे। डुक्पा लामा का शरीर बहुत भारी था, और चलने में बहुत कमजोर थे । हमारी जमात में चार लामा और चार गृहस्थ थे । इस प्रकार सब मिलाकर हम आठ आदमी थे ।
सवेरे फिर उतराई शुरू हुई । यहाँ नदी पर लोहे का झूलेवाला पुल था । आम रास्ता होने से यहाँ चट्टी पर दुकानें थी । खाने की और कोई चीज तो न मिली, हाँ, आग में भुनी मछलियाँ मिली । चढ़ाई फिर शुरू हुई । शाम तक चढ़ाई चढ़ते हम ‘तमंगों’ के बड़े गाँव में पहुंचे । वहाँ रात बिता गुरु को ढोने के लिए दो आदमी ले फिर सवेरे चल पड़े । एक डाँडा ( चढाई वाला पहाड़ी रास्ता ) और पार करना पड़ा, फिर उतराई शुरू हुई । अंत में हम काली नदी के किनारे पहुंच गए । अब हम काठमाण्डव से आने वाले बड़े मार्ग पर आ गए । सड़क पर नमक वालों का मेला सा जाता हुआ मालूम होता था । अब हम ‘शर्बा’ लोगों के प्रदेश में थे । 18 मई ( 4 ज्येष्ठ ) को हम काली नदी के ऊपर भाग शर्बों के एक बड़े गाँव में ठहरे । साथियों ने बतलाया, कल हम नेपाल की सीमांत चौकी पार करेंगे ।
इस यात्रा में और लोग तो थुक्पा सत्तू से काम चला लिया करते थे, किंतु मेरे और डुक्पा लामा के लिए भात बना करता था । कभी कोई जंगली साग मिल जाया करता । कभी भुनी मछली का झोल मिल जाता था । आज तो इस गाँव में मुर्गी के अंडों की भरमार थी । हमने चालीस-पचास अंडे खरीदे और रात को ही सब ने उन्हें चट कर दिया । नीचे तो मुझे इन चीजों से कुछ सरोकार न था, किंतु मैंने इस यात्रा में मांस का परहेज छोड़ दिया था । लड़कपन में तो इसका अभ्यास था ही, इसलिए घृणा की कोई बात नहीं । उसी रात को मैंने ‘यल्मों’ में लिखे कुछ कागजों को जला दिया । मैंने सोचा कि ‘तातपानी’ में कोई देखभाल न करने लगे ।
हम काली नदी के ऊपरी भाग पर थे । धीरे-धीरे नदी की धार की ऊंचाई के साथ-साथ हम भी ऊंचे पर चढ़ते जाते थे । नदी के दोनों ओर हरियाली ही हरियाली थी । सभी जगह जंगल तो नहीं था किंतु नंगा पर्वत कहीं न था । दो बजे के करीब हम ‘तातपानी’ पहुंचे । गरम पानी का चश्मा होने से इसे ‘तातपानी’ कहते हैं । गाँव में नेपाली चुंगी घर और डाकखाना है । मेरी तबीयत घबरा रही थी । डर रहा था, ‘तुम मधेस का आदमी कहाँ से आया’ तो नहीं कहेगा । हमारे लामा पीछे आ रहे थे । चुंगी वालों ने पूछा – लामा कहाँ से आते हो? हमने बता दिया, तीर्थ से । चुंगी से छुट्टी मिल गई । रिंचन ने कहा – ‘अब हो गया न काम खतम ?’ उसी वक्त मुझे मालूम हुआ कि फौजी चौकी आगे हैं । मैंने कहा – भाई? असली जगह तो आगे है ।
थोड़ी देर में लामा भी आ गए । इस वक्त वर्षा हो रही थी । थोड़ी देर एक झोपड़ी में हमें बैठना पड़ा, फिर चल पड़े । आगे एक ऊंचे पर्वत बाहु से हमारा रास्ता रुक-सा गया । नदी की धार भी किधर से होकर आती है, नहीं मालूम पड़ता था । अब मेरी समझ में आया, क्यों ‘तात-पानी’ की फौजी चौकी ‘तात-पानी’ में न होकर आगे है । वास्तव में यह सामने की महान पार्वत्य दीवार सैनिक दृष्टि से बड़े महत्व की है । नीचे से जाने वाली बड़ी पलटन को भी कुछ ही आदमी इस दीवार पर से रोक सकते हैं । थोड़ी देर में चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते हम वहाँ पहुँच गए जहाँ रास्ते में पहरेवाला खड़ा था । पहरेवाले ने सब को रोक कर बैठाया, फिर हवलदार साहब को बुला लाया । यही वह असल जगह थी जिससे मैं इतना डरा करता था ।
मैं अपने को साक्षात यमराज के पास खड़ा समझ रहा था । पूछने पर हमारे साथी ने कह दिया, हम लोग करोङ के अवतारी लामा के चेले हैं । लामा भी थोड़ी देर में आ गए । हवलदार ने जाकर कप्तान को खबर दी । उन्होंने सूबेदार को भेज दिया । आते ही एक-एक का नाम ग्राम लिखना शुरू किया । उस समय किसी ने मेरे चेहरे को देखा होता तो उसे मैं अवश्य बहुत दिनों का बीमार सा मालूम पड़ता । भरसक मैं अपने मुँह को उनके सामने नहीं रखना चाहता था । अंत में मेरी बारी भी आई । रिंचेन ने कहा – इनका नाम खुनू छवङ है । सब को छुट्टी मिली । मैं भी परीक्षा में पास हो गया । पेट भर कर साँस ली । शाम करीब थी, इसलिए अगले ही गाँव में ठहरना था । सूबेदार ने गाँव के आदमी को कह दिया कि अवतारी लामा को अच्छी जगह पर टिकाओ और देखो तकलीफ न हो । हम लोग उसके साथ अगले गाँव में गए । रात में रहने के लिए एक अच्छा कोठा मिल गया ।
आज डुक्पा लामा ने देवता की पूजा प्रारंभ की । सत्तू की पिण्डियों पर लाल रंग डालकर मांस तैयार किया गया । घी के बीसों दीपक जलने लगे । थोड़े मंत्रों के जप के बाद, डमरू गड़गड़ाने लगा । रात के दस बजे तक पूजा होती रही । पीछे प्रसाद बाँटने का समय आया । लाल सत्तू का प्रसाद मैंने भी पा लिया, मैंने इन्कार नहीं किया ।
दूसरे दिन सवेरे चल पड़े, दो घंटे में हम उस पुल पर पहुंच गए, जो नेपाल और तिब्बत की सीमा है । तिब्बत की सीमा में पैर रखते ही चित्त हर्ष से विह्वल हो उठा । सोचा, अब सबसे बड़ी लड़ाई जीत ली ।
‘तिब्बत के पथ पर’ यात्रा वृतांत की प्रमुख विशेषताएँ / उद्देश्य ( ‘Tibet Ke Path Par’ Yatra Vritant Ki Pramukh Visheshtaen / Uddeshy )
‘तिब्बत के पथ पर’ महापंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा रचित एक प्रसिद्ध यात्रा-वृतांत है । उन्होंने अनेक यात्रा-वृतांत लिखे जो ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ नामक पुस्तक में संकलित हैं ।
प्रस्तुत यात्रा-वृतांत की प्रमुख विशेषताओं, जो इस यात्रा-वृतांत का उद्देश्य भी कहा जा सकता है, का वर्णन इस प्रकार है : —
(1) लोक जीवन का वर्णन
‘तिब्बत के पथ पर’ यात्रा-वृतांत में लेखक ने तिब्बत प्रदेश की अपनी यात्रा का वर्णन किया है । इस यात्रा के दौरान उन्होंने नेपाल से गुजरते हुए वहाँ के लोगों के जीवन का सजीव एवं यथार्थ चित्रण किया है । लेखक ने नेपाली लोगों के रहन-सहन, खान-पान आदि का प्रभावी वर्णन किया है । एक चरवाहे के डेरे का चित्रण करते हुए राहुल सांकृत्यायन जी लिखते हैं – “डेरा क्या था, चट्टाइयों से छाया हुआ झोपड़ा था, जिसके भीतर खाने-पीने का सामान, कपड़े, बिछौने-बर्तन सभी ठीक से रखे हुए थे । जामो ( गाय और चमरे मृग से उत्पन्न मादा ) दुही जा रही थी । गृहपति लकड़ी के छोटे बर्तनों में दूध दुह-दुह कर लाता था । गृहपत्नी चारा तैयार कर रही थी ।”
(2) लोक व्यवहार का वर्णन
‘तिब्बत के पथ’ पर यात्रा-वृतांत में लेखक ने तमंग तरुण और बौद्ध भिक्षु लामा आदि आठ सहयात्रियों के साथ तिब्बत की यात्रा की थी । इस यात्रा के दौरान उन्होंने नेपाल से गुजरते हुए अनेक गाँवों में रात्रि विश्राम किया । लेखक ने उन लोगों के लोक-व्यवहार को निकट से देखा और प्रस्तुत यात्रा-वृतांत में उसका वर्णन किया ।
(3) धर्म व लोक संस्कृति का वर्णन
प्रस्तुत यात्रा वृतांत में लेखक ने नेपाल के लोगों विशेषत: बौद्ध धर्म, बौद्ध लामाओं और बौद्ध भिक्षु संस्कृति का यथार्थ अंकन किया है । नेपाल से गुजरते हुए उन्होंने ‘मानियों’ के महत्व को उजागर किया। उन्होंने बताया कि बौद्ध यात्रा में मानियों का बहुत महत्व है । बौद्ध यात्री सदैव इन मानियों को अपने दाहिने रखकर परिक्रमा करते हैं और ऐसा करके महापुण्य के अधिकारी बन जाते हैं । इस प्रकार लेखक ने नेपाल के लोगों के धर्म, संस्कृति और जीवन-शैली पर प्रकाश डाला है ।
(4) प्रकृति चित्रण
नेपाल और तिब्बत प्रकृति की गोद में स्थित हैं । यही कारण है कि नेपाल के रास्ते की गई इस तिब्बत यात्रा में लेखक ने प्रकृति का सुंदर चित्रण किया है । इस यात्रा के दौरान लेखक ने पहाड़ी चट्टानों, चढ़ाई, उतराई, पर्वत-श्रेणियों, जंगलों, हरियाली, झरनों, नदियों आदि का सजीव चित्रण किया है । यथा – “विशालकाय वृक्षों के बीच से रास्ता बड़ा सुहावना मालूम होता था । जंगली पक्षियों के मधुर शब्द कर्णगोचर ( सुनाई देना ) हो रहे थे । मेरा साथी भोटिया ( भूटान की ) भाषा अच्छी जानता था, उसकी दूसरी बोली मैं नहीं जानता था । दोनों बीच-बीच में भोटिया में बात करते, कभी स्ट्रॉबेरी चुनते, कभी जोकों से पैर बचाते, आगे बढ़ रहे थे ।”
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि ‘तिब्बत के पथ पर’ यात्रा वृतांत के माध्यम से लेखक ने नेपाल के लोगों के धर्म, संस्कृति और लोक-व्यवहार का यथार्थ, स्वाभाविक एवं प्रभावी वर्णन किया है । प्रकृति-चित्रण भी इस यात्रा वृतांत की प्रमुख विशेषता है । वस्तुत: किसी भी यात्रा-वृतांत का प्रमुख उद्देश्य उस स्थान के प्राकृतिक सौंदर्य तथा लोक संस्कृति का वर्णन करना होता है । प्रस्तुत निबंध का उद्देश्य भी यही है।
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