अनुवाद के प्रकार तथा वर्गीकरण | Types and Classification of Translation in hindi
अनुवाद के प्रकार तथा वर्गीकरण : जब अनुवाद में दो भाषाओं का प्रस्ताव होता है, तो किसी एक ही पद्धति में उसका अनुवाद नहीं हो पाता। रचना, विषय, अनुवाद सिद्धातों आदि के विभिन्न रूपों के कारण विभिन्न प्रकारों में अनुवाद करना पड़ता है।
अनुवाद के प्रकार तथा वर्गीकरण
अनुवाद प्रकारों के निर्धारण का उद्देश्य अनुवाद प्रणालियों के विविध प्रकारों में एक स्पष्ट विभाजक रेखा खींचना भी है ताकि अनुवाद विषयक चर्चा कर भाषा की व्यापकता को ठीक से समझा जा सके।
अनुवाद के प्रकार (Types of Translation)
1. प्रक्रिया के आधार पर
प्रक्रिया के आधार पर वर्गीकरण में मूलपाठ की संरचना, बुनावट और उसमें निहित प्रभाव तथा कथ्य को आधार पर बनाया जाता है। इसके अतंर्गत पाठधर्मी और प्रभावधर्मी अनुवाद आते हैं जो अनुवाद के एक अलग परिप्रेक्ष्य की निर्मिति करते हैं।
2. पाठ के आधार पर
अनूदित पाठ कथ्य और अभिव्यक्त कार्य का समन्वित रूप होता है तथापि कहीं कथ्य प्रधान हो जाता है तो कहीं अभिव्यक्ति प्रधान।
1. पूर्ण अनुवाद: इस अनुवाद प्रकार में स्रोतपाठ का ‘पाठ’ सभी दृष्टियों से लक्ष्यभाषा में पूर्ण रूप से अनूदित किया जाता है अर्थात् प्रत्येक अंश का, यानि शब्द, पदबंध, उपवाक्य, वाक्य, अनुच्छेद आदि को पूर्ण रूप से अनूदित किया जाना पूर्ण अनुवाद कहलाता है।
2. आंशिक अनुवाद: इस प्रकार के अनुवाद में स्रोतभाषा के पाठ के किसी अंश या कुछ अंशों के बिना अनुवाद में स्रोतभाषा के कुछ शब्दों और सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों का अनुवाद नहीं हो पाता। इसी प्रकार आँचलिक शब्दों का भी अनुवाद नहीं हो पाता। इस प्रकार अननुवादनीय होने के कारण उनको छोड़ दिया जाता है। उदाहरण स्वरूप-भारतीय संस्कृति के ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ, संन्यास, ब्राह्मण, ठाकुर आदि का अनुवाद नहीं हो सकता। ग्लास्नोस्त, स्पूतनिक और आर्यभट्ट आदि भी इसी प्रकार के शब्द हैं जिनको यथावत छोड़ दिया जाता है। यहाँ यह ध्यान दिलाना संगत होगा कि प्रभावधर्मी अनुवाद आमतौर पर पूर्ण अनुवाद सापेक्ष होता है जबकि पाठधर्मी अनुवाद आंशिक अनुवाद की ओर अधिक झुका प्रतीत होता है।
1. समग्र अनुवाद: समग्र अनुवाद से अभिप्राय यह है कि स्रोतभाषा पाठ के सभी भाषिक स्तरों को लक्ष्यभाषा के पाठ में प्रतिस्थापित किया जाए। यद्यपि इसमें प्रतिस्थापन का प्रयत्न समग्र रूप में होता है, किंतु यह प्रतिस्थापन समतुल्यता के आधार पर सभी स्तरों पर नहीं हो पाता। इस प्रकार के अनुवाद में समतुल्यता की अनिवार्यता को बनाए रखना संभव नहीं है, क्योंकि इसमें स्रोतपाठ को सभी स्तरों पर अनूदित करने का प्रयास रहता है।
2. परिसीमित अनुवाद: स्रोतभाषा की पाठ्य सामग्री का समतुल्यता के आधार पर लक्ष्यभाषा की पाठ्य सामग्री में भाषा व्यवस्था के किसी एक स्तर पर प्रतिस्थापन करना परिसीमित अनुवाद है। यह अनुवाद केवल ध्वन्यात्मक या लेखिमिक स्तर पर अथवा व्याकरणिक और शब्दगत स्तरों में से किसी एक स्तर पर होगा। परिसीमित अनुवाद में व्याकरणिक और कोशगत स्तरों का एक साथ अनुवाद करने से ही सार्थक अनुवाद संभव है। परिसीमित अनुवाद के चार भेद होते हैं। जैसे – (i) स्वनिमिक, (ii) लेखिमीय, (iii) व्याकरणिक, और (iv) शब्दकोशीय आदि।
(i) स्वनिमिक अनुवाद – इसका संबंध केवल उच्चारण से है जिसमें मूल भाषा की स्वनिम व्यवस्था के स्थान पर लक्ष्यभाषा की स्वनिम व्यवस्था आ जाती है। परंतु सामान्यतया व्याकरण तथा शब्दकोश अप्रभावित रहते हैं। इसका आधार है- मूलभाषा तथा लक्ष्यभाषा के समान स्वनिक अभिलक्षणों- घोषत्व, प्राणत्व आदि स्वनिमिक इकाइयाँ हैं। मूलभाषा की उन स्वनिमिक इकाइयों के स्थान पर लक्ष्यभाषा की वे स्वनिमिक इकाइयाँ आ जाती हैं जिनमें स्वनिक अभिलक्षणों की अधिकतम समानता मिलती है; जैसे अंग्रेजी ‘फ़’ के स्थान पर मराठी ‘फ़’ (जैसे अंग्रेजी: फ़ार्मेसी- मराठीः फार्मेसी) उर्दू के ज़ के स्थान पर हिंदी में ज का प्रयोग भी ऐसा ही है। स्वनिमिक अनुवाद का स्वेच्छा से व्यवहार करने वालों में उल्लेखनीय हैं अभिनेता और विदूषक लोग। जब वे कला प्रदर्शन के दौरान विदेशी भाषा या बोली की ध्वनियों का सायास अनुकरण (उच्चारण) करते हैं तो वे लक्ष्यभाषा की उच्चारण व्यवस्था को स्वभाषा में ले आते हैं- स्वभाषा में उसका अनुवाद (ट्रांसफर-संक्रमण) कर देते हैं। यही स्थिति विदेशी भाषा सीखने वाले छात्रों के अशुद्ध उच्चारणों में होती है जो वे अनायास तथा असतर्कतापूर्वक करते हैं। दूसरी स्थिति को भाषा-अधिगम के प्रसंग में स्वनिमिक व्याघात कहा जाता है- मातृभाषा की व्यवस्था को अन्य भाषा (लक्ष्यभाषा) की स्वनिम व्यवस्था पर आरोपित किया जाता है। परंतु अनुवाद की शब्दावली में इसे हम अन्य भाषा (लक्ष्यभाषा) से मातृभाषा में स्वनिमिक अनुवाद कहेंगे।
स्वनिमिक अनुवाद के अनेक प्रसंगों में व्याकरण तथा शब्दकोश अप्रभावित रहते हैं। परंतु कुछ ऐसी परिस्थितियाँ भी हैं जिनमें लक्ष्यभाषा के ऐसे शब्दों का चयन किया जाता है जिनकी स्वनिक संरचना में मूलभाषा के शब्दों की स्वनिक संरचना से अधिकतम निकटता होती है। ऐसी परिस्थितियाँ है फिल्म डबिंग तथा कविता का अनुवाद। इन स्वनिमिक विशेषताओं को स्वनिमिक अनुवाद के नाम से भी अभिव्यक्ति किया जा सकता है।
लक्ष्य हिंदी: ही विल जा बाई तेज रफ्तार रेलगाड़ी।
1. शब्द प्रति शब्द अनुवाद : यह अनुवाद शब्द के स्तर पर होता है। इसमें रूपिमिक व्यवस्था को भी ध्यान में रखा जाता है। इस प्रकार के अनुवाद में शब्द पर ही ध्यान दिया जाता है न कि वाक्य योजना पर। जैसे –
मूलः He is going.
अनुः वह है जा रहा ।
मूलः I am going home.
अनु: मैं हूँ जा रही घर।
मूलः I am going home.
अनुः यदि कस्टम अधिकारी है नहीं सावधान।
चूँकि यह एक प्रकार का अनुवाद ‘शब्द संग्रह’ प्रतीत होता है। अतः यह अनुवाद प्रकार सामान्यतः श्रेष्ठ नहीं माना जाता, क्योंकि भाषा की लघुतम इकाई वाक्य होने से ‘शब्द’ अनेकाधिक अवसरों पर अनूदित होने के पश्चात अपने ‘एकल’ अर्थ से गौण हो जाते हैं। इसे मक्षिका स्थाने मक्षिका निपात भी कहा जाता है।
2. शाब्दिक अनुवाद: मूलपाठ के शब्दक्रम की अपेक्षा इसमें वाक्य संरचना को ध्यान में रखकर अनुवाद किया जाता है। वाक्य-विन्यास के अनुसार मूल पाठ का यथासंभव अनुवाद किया जाता है। इसमें एक भाषा के भावों का दूसरी भाषा में रूपातंरण करते हुए प्रत्येक शब्द, पदबंध, वाक्य, उपवाक्य, आदि का अनुवाद किया जाता है। इसे स्थानापन्न अथवा कभी-कभी कोशगत अनुवाद भी कहा जाता है क्योंकि मूल रचना के प्रत्येक शब्द के लिए शब्द रखना होता है। ज्ञान, विधि, प्रौद्योगिकी तथा गणित से संबंधित सूचनापरक साहित्य में यह पद्धति अपनाई जाती है। इसमें प्रत्येक शब्द और वाक्य का अपना आशय होता है। प्राचीन धर्म ग्रंथों के अनुवाद में भी इस विधि का प्रयोग किया जाता है क्योंकि इसमें मूल रचना के शब्दों का विशेष महत्व होता है तथापि साहित्यिक पाठ के लिए यह विधि अधिक उपयोगी नहीं है।
अनु: बत्ती जलाओ
मूल: It is an Intereting point.
अनु: यह एक रोचक बिंदु है।
मूल: There is a custom among’st the Red Indians
अनु: He sat envisaging the death of god.
मूल: आपने मुझसे ज्यादा दुनिया देखी है।
अनु: You are far more experienced than me.
अनु: To suppress one’s furry.
4. छायानुवाद: स्रोतपाठ पढ़ने के बाद अनुवादक जो समझता या अनुभव करता है तथा उसके मन पर उसका जो प्रभाव पड़ता है, उसके संदर्भ में वह मूलपाठ का लक्ष्यभाषा में जिस प्रकार ‘कथ्य’ का रूपांतरण करता है उसे छायानुवाद कहते हैं। इसमें अनुवादक को पूरी छूट होती है कि वह मुख्य भाव को लेकर लक्ष्यपाठ की रचना करंे। इस प्रकार छायानुवाद में मूल की छाया मात्रा होती है। अर्थात् उसके कथ्य का अनुकूलन लक्ष्यभाषा की सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थितियों के अनुसार किया जाता है। यह एक प्रकार का रूपांतरण है जो देशीयता के पुट से कथ्य को सशक्ता प्रदान करता है।
शेक्सपीयर के नाटक ‘डमतबींदज व िअमदपबम’ का अनुवाद भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने ‘दुर्लभ बंधु’ या ‘वंशपुर का महाजन’ नाम से किया है, जिसमें भारतेन्दु ने सभी पात्रों के नामों का और वातावरण का भारतीयकरण किया है। इस प्रकार छायानुवाद मूल कृति के कथ्य को लिए होता है, किंतु इसका सारा परिधान एवं परिवेश लक्ष्यभाषा की स्थानीय संस्कृति से जुड़ा हुआ होता है। इस प्रकार के अनुवाद में अनुवादक की सर्जनात्मक प्रतिभा का होना वांछित होता है तभी मूल रचना का आत्मसातीकरण संभव होता है।
3. गद्य-पद्य के आधार पर अनुवाद
1. गद्यानुवाद : गद्यानुवाद सामान्यत: गद्य में किए जानेवाले अनुवाद को कहते हैं। किसी भी गद्य रचना का गद्य में ही किया जाने वाला अनुवाद गद्यानुवाद कहलाता है। किन्तु कुछ विशेष कृतियों का पद्य से गद्य में भी अनुवाद किया जाता है। जैसे ‘मेघदूतम्’ का हिन्दी कवि नागार्जुन द्वारा किया गद्यानुवाद।
4. साहित्य विधा के आधार पर अनुवाद
1. काव्यानुवाद : स्रोत-भाषा में लिखे गए काव्य का लक्ष्य-भाषा में रूपान्तरण काव्यानुवाद कहलाता है। यह आवश्यकतानुसार गद्य, पद्य एवं मुक्त छन्द में किया जा सकता है। होमर के महाकाव्य ‘इलियड’ एवं कालिदास के ‘मेघदूतम्’ एवं ‘ऋतुसंहार’ इसके उदाहरण हैं।
4. अन्य साहित्यिक विधाओं के अनुवाद : अन्य साहित्यिक विधाओं के अन्तर्गत रेखाचित्र, निबन्ध, संस्मरण, रिपोर्ताज, डायरी एवं आत्मकथा आदि के अनुवाद आते हैं। पं. जवाहर लाल नेहरू की कृति ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ तथा महात्मा गांधी एवं हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथाओं के विभिन्न भाषाओं में किए गए अनुवाद इसी श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं।
5. विषय की प्रकृति के आधार पर अनुवाद
6. अनुवाद की प्रकृति के आधार पर
1. मूलनिष्ठ : मूलनिष्ठ अनुवाद कथ्य और शैली दोनों की दृष्टि से मूल का अनुगमन करता है। इस प्रकार के अनुवाद में अनुवादक का प्रयास रहता है कि अनूदित विचार या कृति स्रोत-भाषा के विचारों एवं अभिव्यक्ति के निकट रहे।
7. अनुवाद के अन्य प्रकार
अनुवाद की प्रकृति के आधार पर अनुवाद के कुछ अन्य प्रकार भी देखे जा सकते हैं; जैसे शब्दानुवाद, भावानुवाद, सारानुवाद, रूपांरतण, व्याख्यानुवाद, आदर्शानुवाद और छायानुवाद। इनमें से कुछ पर पहले ही चर्चा की जा चुकी है। कुछ अन्य प्रकार निम्नवत हैं:
1. सारानुवाद: सारानुवाद मूल की मुख्य बातों का मूल-मुक्त अनुवाद होता है, परंतु इसमें महत्वपूर्ण यह है कि मूलपाठ का एकाधिक पठन करने के उपरांत ही मूल-अर्थ को ग्रहण किया जाता है। इसमें केंद्रीय विचार को बनाए रखने की आवश्यकता होती है। पहले मूल का सार पाठ बनाया जता है, तदुपरांत उसका अनुवाद किया जाता है। यह संक्षिप्त, अति संक्षिप्त, अत्यंत संक्षिप्त आदि कई प्रकार का होता है। अपनी संक्षिप्तता, सरलता-स्पष्टता तथा मूल और लक्ष्यभाषा के स्वाभाविक-सहज प्रवाह के कारण व्यावहारिक कार्यों के सामान्य अनुवाद की तुलना में सारानुवाद ही अधिक उपयोगी है। न्यायालयों द्वारा दिए गए लंबे निर्णयों तथा महत्वपूर्ण व्यक्तियों के वक्तव्यों और प्रशासनिक एवं संसदीय मामलों के सार इसी रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं। इसमें मूलपाठ का सावधानीपूर्वक पठन तथा केंद्रीय भाव को बनाए रखने की चुनौती होती है। इस पर अधिक चर्चा इसी पाठ्यक्रम की ‘‘सारानुवाद’’ इकाई में की जाएगी।
2. व्याख्यानुवाद: इसमें मूलपाठ का व्याख्यात्मकता के साथ अनुवाद होता है। स्पष्ट है कि इस प्रकार के अनुवाद में अनुवादक अथवा व्याख्याता अपने व्यक्तित्व, ज्ञान और विषय संबंधी अनुभव के आधार पर कथ्य में स्पष्टीकरण के लिए कुछ अतिरिक्त उदाहरण, प्रमाण इत्यादि जोड़ सकता है। संस्कृत श्लोकों या सूत्रों पर भाष्य, टीका आदि इसके उदाहरण हैं। तार्किक संयोजनों में अनेक प्रसंग जोड़े जाते हैं ताकि मूल के निहितार्थ को स्पष्ट किया जा सके। हालाँकि इसमें मूल लेखक के वक्तव्य का ह्रास होने की संभावना भी बन जाती है। अतः अनुवादक को सीमा रेखा तय कर लेनी चाहिए। संस्कृत के दर्शन ग्रंथों तथा लोकमान्य तिलक के ‘गीतानुवाद’ के कुछ अन्य निदर्शन इसी प्रकार के अनुवाद के उदाहरण हैं। वैज्ञानिक साहित्य के अनुवाद में वर्णनात्मक शैली भी इसी का उदाहरण है।
3. रूपांतरण: रूपांतरण का अर्थ है स्रोतभाषा के पाठ के रूप को बदलना। इसमें रूपांतरणकार मूलपाठ को अपनी रूचि, सुविधा तथा आवश्यकता के अनुसार रचनात्मक तरीके से लक्ष्य पाठक अथवा दर्शक की रुचि और आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित करके लक्ष्यभाषा में रखता है। इसमें मूल सामग्री, संक्षिप्त या विस्तृत, सरल या कठिन तथा विधा-रूप में परिवर्तित होकर आती है; जैसे उपन्यास या कहानी का नाट्य-रूपांतरण जिसमें मूलपाठ की विधा, परिवेश, पात्रा, स्थान आदि परिवर्तित हो जाते हैं। भारतीय सिनेमा तथा रंगमंच पर रूपांतरण के सफल एवं उत्तम प्रयोग द्रष्टव्य हैं। इस पाठ्यक्रम की ‘रूपांतरण’ इकाई में इस पर विस्तृत चर्चा की जाएगी।अनुवाद के प्रकारों की उपरोक्त स्थितियों के अतिरिक्त भाषा का आधार मानते हुए भी विद्वानों ने बहुपक्षीयता के आधार पर वर्गीकरण किया है। इसमें भाषा-बाह्य, भाषा-केंद्रित तथा मिश्रित अर्थात गौण अनुवाद प्रकारों की चर्चा आगे की जाएगी।
5. पुनरानुवाद : मूल भाषा पाठ के अनुवाद की पुनः भाषा में पुनरावृत्ति करना पुनरानुवाद है। इसमें अनुवाद कार्य दो बार होता है- पहली बार में जो लक्ष्यभाषा पाठ निष्पन्न होता है वही दूसरी बार में मूल भाषा पाठ बन जाता है, और जो भाषा पहली बार में मूल भाषा होती है वह दूसरी बार में लक्ष्यभाषा बन जाती है; जैसे- एक अंगे्रजी पाठ का हिंदी में अनुवाद और फिर उस हिंदी पाठ का अंग्रेजी में अनुवाद। कभी-कभी भारतीय भाषाओं में भी यह प्रवृत्ति देखी गई है। यह आवश्यक है कि अनुवादक तथा पुनरानुवादक अलग-अलग व्यक्ति हों तथा पुनरानुवादक मूलपाठ से परिचित न हो। इसका उद्देश्य है प्रथम अनुवाद की विशुद्धता की जाँच करना। पुनरानुवाद में निष्पन्न पाठ से मूलपाठ की ‘सर्वतोमुखी निकटता’ की मात्रा के अनुपात में प्रथम अनुवाद की विशुद्धता की मात्रा निर्धारित होगी। अनुवाद मूल्यांकन के लिए इस पद्धति का प्रायः प्रयोग किया जाता है।
6. सूचनानुवाद : मूलपाठ की विधा संबंधी विशेषता की उपेक्षा कर केवल विषयवस्तु अर्थात कथ्य या संदेश का अनुवाद करना सूचनानुवाद है। यह सारांश और संक्षेप से लेकर अविकल अनुवाद तक हो सकता हे। यह प्रायः व्याख्यात्मक हो जाता है और रूप, बिंब, लक्षण; शैली आदि पूर्णतः उपेक्षित रहती हैं। प्राचीन शास्त्राीय ग्रंथों का समसामायिक भाषाओं में सूचनानुवाद करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। प्राचीन भाषाओं के माध्यम से प्रस्तुत ज्ञान के प्रति समसामयिक पाठकों को परिचित कराना इसका उद्देश्य है।
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