विजयदान देथा का जीवन परिचय | Vijaydan Detha Biography In Hindi
Vijaydan Detha Biography In Hindi | विजयदान देथा का जीवन परिचय बाताँ री फुलवारी जैसी जीवंत रचना लिखने वाले राजस्थान के सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी और पद्म श्री विजयदान देथा जी को बिज्जी उपनाम से भी जाना जाता हैं। इन्हें राजस्थानी भाषा का भारतेंदु भी कहा जाता है क्योंकि देथा जी ने अपनी मातृभाषा के अलावा किसी दूसरी भाषा में कलम नहीं चलाई थी। इनके बेटे कैलाश कबीर द्वारा कई रचनाओं का हिंदी रूपांतरण भी किया गया।
विजयदान देथा का जीवन परिचय | Vijaydan Detha Biography In Hindi
पूरा नाम | विजयदान देथा |
अन्य नाम | देथा, बिज्जी |
जन्म | 1 सितम्बर 1926 |
जन्म भूमि | बोरुंदा राजस्थान |
मृत्यु | 10 नवम्बर 2013 |
व्यवसाय | लेखक |
विधा | कथा, व्यग्य, लोरियाँ |
जीवनसाथी | सायर कँवर |
जोधपुर जिले के बोरुन्दा गाँव में 1 सितम्बर 1926 को जन्मे विजयदान देथा जाने माने कथाकार और व्यंग्यकार हैं। इन्होने 800 से अधिक कहानियां लिखी हैं। 1973 में फिल्म निर्माता मणि कौल ने इनकी कहानी दुविधा पर दुविधा नाम से और शाहरुख खान ने इसी कहानी पर पहेली नाम से फिल्म बनाई।
ये फिल्म ऑस्कर के लिए नामित हुई। इनकी बाता री फुलवारी 14 खंडों में हैं। अलेखू हिटलर, अनोखा पेड़, महामिलन, सपनप्रिया आदि इनके प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। 1965 ई में कोमल कोठारी के साथ मिलकर बोरुंदा में रूपायन संस्थान की स्थापना की।
वर्ष 2011 में इन्हें साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए नामिल किया गया। देथा को 1974 में साहित्य अकादमी पुरस्कार व 2007 ई में पद्म श्री से अलंकृत किया गया। राजस्थान सरकार ने इन्हें प्रथम राजस्थान रत्न सम्मान देने की घोषणा 31 मार्च 2012 को की। इनकी मृत्यु 10 नवम्बर 2013 में हुई।
विजयदान देथा, जिन्हें बिज्जी के नाम से भी जाना जाता है, वे राजस्थान के एक प्रसिद्ध लेखक और पद्म श्री पुरस्कार के प्राप्तकर्ता थे। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार जैसे कई अन्य पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। देथा के पास अपने क्रेडिट के लिए 800 से अधिक लघु कथाएँ हैं, जिनका अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में अनुवाद किया गया है।
लोककथाओं के जादूगर
राजस्थान की रंग रंगीली लोक संस्कृति को आधुनिक कलेवर में पेश करने वाले, लोककथाओं के अनूठे चितेरे विजयदान देथा यानी बिज्जी अपने पैतृक गांव में ही रहते थे, राजस्थानी में ही लिखते थे और हिन्दीजगत फिर भी उन्हें हाथोंहाथ लेता था। चार साल की उम्र में पिता को खो देने वाले श्री देथा ने न कभी अपना गांव छोड़ा, न अपनी भाषा। ताउम्र राजस्थानी में लिखते रहे और लिखने के सिवा कोई और काम नहीं किया। बने बनाए सांचों को तोड़ने वाले विजयदान देथा ने कहानी सुनाने की राजस्थान की समृद्ध परंपरा से अपनी शैली का तालमेल किया। चतुर गड़ेरियों, मूर्ख राजाओं, चालाक भूतों और समझदार राजकुमारियों की जुबानी विजयदान देथा ने जो कहानियां बुनीं उन्होंने उनके शब्दों को जीवंत कर दिया।
राजस्थान की लोककथाओं को मौजूदा समाज, राजनीति और बदलाव के औजारों से लैस कर उन्होंने कथाओं की ऐसी फुलवारी रची है कि जिसकी सुगंध दूर-दूर तक महसूस की जा सकती है। दरअसल वे एक जादुई कथाकार थे। अपने ढंग के अकेले ऐसे कथाकार, जिन्होंने लोक साहित्य और आधुनिक साहित्य के बीच एक बहुत ही मज़बूत पुल बनाया था। उन्होंने राजस्थान की विलुप्त होती लोक गाथाओं की ऐसी पुनर्रचना की, जो अन्य किसी के लिए लगभग असंभव थी।
पुरस्कार और सम्मान
1974 | साहित्य अकादमी पुरस्कार |
1992 | भारतीय भाषा परिषद पुरस्कार |
1995 | मरुधारा पुरस्कार |
2002 | बिहारी पुरस्कार |
2006 | साहित्य चूड़ामणि पुरस्कार |
2007 | पद्मश्री |
2011 | राव सिंह पुरस्कार |
फिल्मे
फिल्म नाम | वर्ष | आधार कहानी |
दुविधा | 1973 | दुविधा |
चरणदास चोर | 1975 | चरणदास चोर |
परिणति | 1986 | परिणति |
पहेली | 2005 | दुविधा |
लजवंती | 2014 | लजवंती |
काँचली | 2020 | केंचुली |
लैला और सत्त गीत | 20202 | केंचुली |
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